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जैसे जैसे आशी पीछे मुड़कर देखती, उसे गडमड तस्वीरें दिखाई देतीं जिनमें से उसे रास्ता निकालकर आगे बढ़ना होता लेकिन मनुष्य का मस्तिष्क एक सिरे पर तो टिका नहीं रहता, वह तो पल में यहाँ तो पल में कहीं और—वह आज फिर से पापा की तस्वीर देख रही थी---माधो सदा साथ ही बना रहता था उनके----
“थोड़ी सी कोशिश करें सरकार---हाँ –ऐसे—“”दीनानाथ को माधो आज जबरदस्ती कुर्सी से उठाकर लॉबी में चक्कर लगवा रहा था |
“अरे माधो! नहीं चल जाता बेटा—” वे थकी हुई आवाज़ में बोले |
“चला जाएगा, बिलकुल चला जाएगा| देखिए, आपके सामने जो वो मेज़ है न ! कितनी दूर है! बस, दस कदम! बस, वहीं तक चलेंगे आज---”
“अब तू भी, पकड़ न मुझे ---”
“चिंता न करें मालिक, देखिए, मैंने पकड़ रखा है आपको—चलिए न--”
“हाँ, हाँ –पर कसकर पकड़ न ! ---बस—अब नहीं माधो ---”
“बस, अब एक कदम और –बस ---”
‘ट्रिन–ट्रिन---‘फ़ोन की घंटी बज उठी| दीना हड़बड़ा उठे---“अरे---रे”
“मैं हूँ न सरकार, चिंता न करें –ये पकड़ें रेलिंग –हाँ—ऐसे कसकर | मैं अभी फ़ोन लेकर आता हूँ | ”
दीनानाथ को रेलिंग पकड़ाकर माधो फ़ोन की ओर भागा| उन्होंने मानो अपना पूरा ज़ोर लगाकर रेलिंग को कसकर पकड़ लिया | फ़ोन पर डॉक्टर सहगल थे |
“क्या हो रहा है माधो? कहाँ है तुम्हारा सेठ ? ”
“डॉक्टर साहब, चलवा रहा था| जबसे आप कहकर गए हैं तबसे रोज़ कोशिश करता हूँ उन्हें चलाने की| ”
“वेरी गुड़ माधो, कुछ नहीं होगा, डरना नहीं, तुम रोज़ इसी तरह उसे चलाते रहा करो---गिरे भी तो चिंता मत करना | बस, यह ध्यान रखना कि उसे ज़्यादा चोट न लग जाए| वह बिलकुल ठीक है अब, अपने आप कोशिश नहीं करता| यह कोशिश करना अब तुम्हारा काम है, समझे ? ”
“जी, डॉक्टर साहब---| ”
“जाओ, उसके पास अब, घबरा रहा होगा | ”
“जी, डॉक्टर साहब, नमस्ते | ”
उधर से फ़ोन रख दिया गया था|
जब माधो दीनानाथ के पास पहुंचा, उन्हें उसी स्थिति में खड़े देखकर बहुत प्रसन्न हुआ| वे बिलकुल स्थिर खड़े थे, उसे देखकर बोले –
“इतनी देर लगा दी, देख मुझे मैं गिर जाऊँगा---”यह कहकर वे काँपने लगे | माधो ने भागकर उन्हें अपने हाथों का सहारा दिया| माधो के चेहरे पर मुस्कुराहट खेल गई| आज दीनानाथ काफ़ी देर तक चले व फिर खड़े भी रहे थे| इससे पहले तो कभी-कभी बड़ी मुश्किल से दो-एक कदम चलते थे और वह भी उस दिन जिस दिन डॉक्टर डाँटकर और माधो से कहकर जाते कि वह उन्हें ज़रूर चलाएगा| दो-एक कदम चलकर ही उनकी टाँगें काँपने लगतीं और वे माधो के ऊपर मानो गिरने को हो जाते | माधो भी उनको समझाते-समझाते थक गया था| डॉक्टर का कहना था कि दीनानाथ अपने जीवन से हार मानकर बैठ गए हैं| इसी कारण उनकी इच्छाशक्ति कमज़ोर हो गई है और उनके जीने की आत्मिकशक्ति को और भी कमज़ोर करती जा रही थी | माधो के लिए डॉक्टर जैसे हर बार एक चुनौती छोड़कर जाते थे| आज माधो को अपनी जीत दिखलाई देने लगी थी| उसे मुस्कुराते हुए देखकर माधो का सहारा लेकर व्हीलचेयर की ओर आते हुए दीनानाथ थकान के कारण कुछ चिढ़ से गए|
“क्यों मुस्करा रहा है---एक तो मैं थक गया हूँ –ऊपर से तू—देखता नहीं मेरी टाँगें कैसे काँपने लगी हैं? ”
“कहाँ सरकार—आपको मालूम है—आप आज दस मिनट से भी ज़्यादा चले हैं –और टाँगें अभी काँपी हैं आपकी! अब तक कहाँ काँप रहीं थीं ? ”माधो फिर हँसा |
दीनानाथ धप्प से व्हीलचेयर पर बैठ गए और हाँफते हाँफते बोले –
“ज़रूर, उस पाजी सहगल का ही फ़ोन होगा, क्या कह रहा था? ”
“कुछ नहीं मालिक –ऐसे ही फ़ोन किया था---” माधो ने हँसते हुए उत्तर दिया |
“अरे ! मुझे मालूम नहीं क्या वो मेरी सी.आई.डी करता रहता है और तू उसका चमचा ---है न ! ”
दीनानाथ की साँस नॉर्मल हो गई थीं| वह हँसने लगे थे –“सच कहूँ तो माधो तेरा और डॉक्टर दोनों का ही मेरी ज़िंदगी में बड़ा अहम् हाथ है | तुम लोग न होते तो ---”दीनानाथ जी की आँखों में आँसु छलछला उठे|
सोनी के जाने के बाद उसके सेठ को जिन-जिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ा था, माधो उनका प्रत्यक्ष गवाह है | गवाह भी क्या--–माधो उन परिस्थितियों के मुख्य पात्रों में से एक पात्र ही था| दीनानाथ को जिन अचेतन मन पर पड़ी हुई काली परछाइयों का सामना करना पड़ा था, माधो उनका प्रत्यक्ष गवाह था| गवाह भी क्या माधो उन सब परिस्थितियों के मुख्य पात्रों में से एक पात्र ही तो था| दीनानाथ के अवचेतन मन पर पड़ी हुई काली परछाइयों का नर्तन हर पल, हर क्षण होता रहता था| माधो उनके मस्तिष्क में उभरती परछाइयों को दूर करते-करते स्वयं भी कभी उनसे घिर जाता था, उन्हीं में गुम होकर रह जाता था| आखिर कैसी थीं वे काली परछाइयाँ जिनके अक्स अभी तक पूरे वातावरण को असहज करते रहते थे|