शून्य से शून्य तक - भाग 10 Pranava Bharti द्वारा प्रेम कथाएँ में हिंदी पीडीएफ

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शून्य से शून्य तक - भाग 10

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अचानक वह सब कुछ हो गया जिसकी किसी ने सपने में भी कल्पना तक नहीं की थी| मनु को मामा की मृत्यु के पश्चात् भारत लौटना पड़ा और अपनी इतनी काबिलियत के बावज़ूद वह अभी तक भटक ही तो रहा है | कुछ ऐसा हाथ ही नहीं लग रहा था जिससे वह एक्शन ले सके | आखिर पूरा माहौल समझने में उसे कुछ समय तो लगेगा ही ---| 

“मनु साहब ! यहाँ के और विदेश के काम करने का ढंग बिलकुल अलग है–आप –”

“कितना भी अलग क्यों न हो मि.बाटलीवाला, काम, काम ही होता है और मैं कोई विदेशी नहीं हूँ जो यहाँ का वातावरण नहीं समझ पाऊँगा--| ”

“ठीक है तो फिर –”और जैसे मनु और बाटलीवाला के बीच एक शांतिपूर्ण युद्ध छिड़ चुका था| ‘ए कोल्ड वॉर ! ’

मनु अपना काम करना चाहता था लेकिन यहाँ आकर वह इतना उलझ गया था कि उसे लगता था कि वह अपना समय बर्बाद कर रहा है | पर उसे करना पड़ रहा था वह सब--–कभी-कभी वह सोचता कि ठीक है, माँ के भाई की निशानी है | कभी सोचता कि उस ‘निशानी’के लिए वह अपने जीवन का समय क्यों बर्बाद करे ? वह छटपटाता रहता था | अब तो उसकी मम्मी भी थक गईं थीं और उन्होंने भी कह दिया था कि थोड़ा और प्रयास कर ले, थोड़ा और समय उसको दे दे| यदि उसके बाद भी स्थिति नहीं संभल पाई तो फिर फ़ाइनली कुछ सोचना ही होगा| 

डॉ.सहगल शहर के जाने-माने प्रैक्टिशनर थे, इतने बड़े अस्पताल के मालिक ! अत:घर में किसी भी वस्तु की कमी नहीं थी | बस मनु को ही कभी-कभी लगता कि वह इतना पढ़-लिखकर भी क्यों बेकार अपना समय बर्बाद कर रहा है? फिर भी लगा हुआ था| शायद कभी माँ का सपना साकार हो सके| पर बस, अब कुछ दिन और--–कभी कभी कोई लिंक हाथ में आता भी तो फिर ऐसी परिस्थिति हो जाती कि किसी भी अपने एम्पलॉइ के अभाव में वह लिंक हाथ से फिसल जाता| बाटली वाला ने पूरे स्टाफ़ को मानो फौलाद के शिकंजे में जकड़ रखा था | आज के ज़माने में वरना नौकरी मिलती ही कहाँ है ? बंबई जैसे शहर, में आने वाले लोग नौकरी की कल्पना में भरकर सपने सजाते हुए अपने गाँवों से निकल पड़ते हैं और फिर उनकी आँखों में सजे सपने गाँवों से बहकर समुद्र के खारे पानी में जा समाते हैं| पता नहीं न जाने कितने शहरों और गाँवों के लोगों को बंबई नगरी ने अपने आश्रय में रखा हुआ है| कुछ की आँखों में फिल्म नगरी के सपने होते हैं तो कुछ की आँखों में बंबई नगरी में जाकर बड़ा व्यापार करने के---बंबई कुछ को ऐसे ‘धंधों’में भी घसीट लाती है जो –और जब लोग असफ़ल होने लगते हैं तो अपना और दूर दराज रहने वाले अपनों के पेट भरने के लिए ’कुछ भी’करने की सोचकर उसी नगरी में समा जाते हैं| फिर होता है उनका अथक प्रयास, वे जूझते रहते हैं और अंत में खुद को भाग्य पर छोड़ देते हैं| यह सब इस नगरी के लिए नया नहीं है | यह तो वर्षों चली आ रही परंपरा हो गई है अब पता नहीं, मनु इस सबमें कहाँ फिट बैठता है? पर हाँ, अभी उसके साथ भी हो तो कुछ ऐसा ही रहा था| कंपनी का मालिक होकर भी अभी तक वह बाटलीवाला की कठपुतली बना हुआ था| 

“मनु! तुम उस बाटलीवाला को निकालकर बाहर खड़ा क्यों नहीं कर देते ? क्या है वह –केवल पच्चीस प्रतिशत का पार्टनर भर ! वो भी भैया को मजबूरी में रखना पड़ा | ”

रीना सहगल भुनभुनातीं | मनु चुप बैठा उन्हें ताकता रहता और डॉ.सहगल हँसकर कहते ;”भाग्यवान ये बिजनैस की बातें हैं, तुमने कोशिश करके देख ली न, कुछ समझ में नहीं आया न! अब छोड़ो तुम भी यह सब! तुम तो बस घर को महकाती रहो| बच्चे बड़े हो गए हैं अपना काम खुद संभाल लेंगे –”

“हाँ, कितनी कोशिश तो की मैंने भी, समझ नहीं आया, कहाँ बदमाशी चल रही है लेकिन मैं मनु के जैसी ट्रेंड तो नहीं हूँ न ? ”वे अक्सर उदास हो जातीं | 

“ऐसा नहीं है मम्मी, आप भी जानती हैं इतना आसान नहीं है –” मनु माँ की गर्दन के इर्द-गिर्द अपनी बाहों का घेरा बना देता| 

“बाटली वाला से तोड़ने में मुझे कितनी देर लगती है ? पर उसे निकालने से मेरे हाथ कुछ भी नहीं लगने वाला| अलग तो होना ही है पर आराम से, विवेक से ---”

“अब छह महीने हो गए हैं तुम्हें यहाँ आए हुए, अभी तक सैटल होने के कुछ आसार दिखाई नहीं दे रहे ! ”

“वहाँ छह साल रहा तो कुछ नहीं, यहाँ छह महीने में ही परेशान हो गई तेरी माँ---”डॉक्टर सहगल चिढ़ाते| 

“आप चिंता न करें मम्मी” मनु माँ के कंधे प्यार से सहलाता हुआ कहता| 

“मैं ठीक लाइन पर चल रहा हूँ मम्मा, कुछ समय और कोशिश करके देख लूँ--| ”