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सुहासिनी अपने जीवन की कोई न कोई घटना आशी को सुनाती रहती| आशी सुहास से कुछ ही बड़ी थी लेकिन न जाने कब उसे दीदी कहने लगी थी और उसने सहज रूप से स्वीकार भी लिया था| वर्ना अपने मूल स्वभाव के अनुरूप आशी किसी की कोई बात आसानी से स्वीकार ले, यह ज़रा कठिन ही था| जो कुछ भी उसके जीवन में हुआ था, उसके लिए औरों को दोषी ठहराने की आदत ने आशी को स्वयं का ही दुश्मन बना दिया था|
कमरे की खूबसूरत बॉलकनी में लकड़ी की सादी लेकिन सुंदर कुर्सियाँ रखी रहतीं| जहाँ पर बैठकर नीचे के लंबे-चौड़े बगीचे के रंग-बिरंगे फूलों का दृश्य आँखों में भरते हुए आशी को अपने उस घर की स्मृति आ जाती जो उसका बचपन से लेकर साथी बना रहा था लेकिन जिसे उसने कोई मुहब्बत नहीं दी थी| वह फिर भी उसकी ओर देखकर मुस्कराता, खिलखिलाता लेकिन उसकी सभी यादें उसके पिता के लिए थीं जिन्हें उसकी अनुपस्थित माँ सोनी ने बड़े जतन से पाला था| वैसे तो रंग-बिरंगे फूलों का मुसकराना अवसाद को भी दूर कर देता है लेकिन आशी को न तो उन सबके लिए न तो रुचि थी और न ही समय! आज यहाँ बैठकर वह पीछे घूमकर देखती है और फिर वहाँ से क्रॉस करके उसकी दृष्टि अरावली की पर्वत शृंखला की खूबसूरती पर चिपक जाती| सारी दुनिया का चक्कर काटकर आने वाली आशी को अगर किसी ने प्रभावित किया था तो वह यह ‘मौन’का वातावरण था जो उसे सोचने के लिए बाध्य करता कि आखिर क्या किया था उसने अब तक?
“आशी दीदी! अपने बारे में कुछ बताइए न? ”सुहासिनी अक्सर कहती|
“मैं यहाँ लिखने ही आई हूँ, तुम उसे पढ़ोगी तो सब कुछ जान पाओगी| टुकड़ों-टुकड़ों में मैंने जिया है इस कीमती ज़िंदगी को, तुम इसे पूरे रूप में जानना और समझना कि मैंने ज़िंदगी को समझने में कितनी भूलें की हैं| ”
“आप यहीं रहिए न, क्या करेंगी जाकर? इतने बड़े शहर की चकाचौंध में आपको यह सब कुछ नहीं मिलेगा जो यहाँ से मिलेगा| बस, अब यहीं रहिए मेरे पास---” सुहासिनी आशी से हर दिन यही इसरार करती|
“देखो, क्या क्या है मेरे भाग्य में है और? ”आशी ने एक लंबी सी साँस भरी थी|
“सब अच्छा ही है---भगवन् कहते थे कि अपने सामने आए हुए लम्हों को पानी की तरह बहने दो, एक निरंतर प्रवाह जो हमें अपने साथ यात्रा का सहयात्री बना देता है| बस---उसके साथ बहते चलो| तुम्हें कहाँ कुछ करना है, वह बहाव तुम्हें स्वयं ही अपने साथ ले चलेगा| ”सुहास अक्सर संत की बातों का सार आशी को सुनाती रहती जिसे सुनकर वह भीग उठती और एक अजीब सी मानसिक स्थिति में पहुँच जाती|
यह शाम का समय पर्वतों की शृंखला के पीछे धीमे-धीमे भागते सूरज को दृष्टि में कैद करने की चेष्टा करते हुए व्यतीत होता और मन में एक कुनमुनाहट छोड़ जाता| उसी कुनमुनाहट को कागज़ पर उतारने की जद्दोजहद में आशी न जाने कहाँ कहाँ घूमती और फिर से उसी पर्वत शृंखला के पीछे से जैसे कुछ शब्दों को चुराने की चेष्टा करती| वह अपने गर्भ में जाकर उस गर्भास्थ शिशु की वेदना से पीड़ित उसे जन्म देने को विवश थी---
दीनानाथ अपनी लंबी सी लॉबी में ‘व्हील चेयर’पर बैठकर सामने डूबते सूरज पर दृष्टि गड़ाए बैठे थे| सूरज शनै:शनै:अस्ताचल की ओर बढ़ रहा था परंतु उनकी दृष्टि वहीं चिपककर रह गई थी | जीवन की लंबी दौड़ उनके लिए लगभग पाँचेक वर्ष से बिलकुल अकेली, नि:सहाय और अपंग बनकर रह गई थी | स्वतंत्रता के इस युग में भी वह एक परकटे परतंत्र पंछी की भाँति अपनी कुर्सी के पिंजरे में बैठे छटपटाते रहते थे |
प्रत्येक दिन का उगता सूरज उनके मन में हा-हाकार मचा देताऔर प्रत्येक रात माधो और नींद की गोलियों की लोरी उन्हें थपकी देकर सुलाने काम उपक्रम करती| सुबह-सवेरे जब वह करवटें बदलने के प्रयास में होते, उनका अंतरंग माधो बड़े स्नेह और ममता से उनका माथा सहलाता, खिड़कियों के परदे खोलकर लालिमायुक्त सूर्यदेव को उनके कमरे में झाँकने की अनुमति देता और फिर उन्हें बैठकर ब्रश करवाकर, मुँह धुला पोंछकर उनके सामने मेज़ पर सुबह की चाय रखकर उनके बिस्तर के पास ही कालीन पर बैठ जाता |
“जा रे तू भी चाय-वाय पी ले| ” सेठ दीनानाथ उसे स्नेह से पुचकारते |
“अभी जाऊंगा सेठ जी, आप चाय पी लीजिए तो मैं आपको पेपर दे दूँ–”
दीनानाथ के मुख पर एक संतुष्टि की मुस्कान थिरक उठती | पता नहीं माधो से उनका कौनसे जन्म का और कैसा संबंध है? सारी रात उनके कमरे के बाहर लॉबी में पड़ा रहता है | वह करवट बदलने का प्रयास करते हैं तो ज़रा सी आवाज़ से तुरंत दरवाज़ा खोलकर अंदर भागा चला आता है | माधो का पिता साधु भी दीनानाथ के पूरे घर की सेवा इसी प्रकार करता था| यूँ कहा जाए कि उसका पूरा परिवार ही दीनानाथ के परिवाए की सेवा में लगा रहा था तो अनुचित न होगा | साधु की मृत्यु भी इसी घर में हुई थी उस समय माधो लगभग पंद्रह वर्ष का रहा होगा | पति की मृत्यु के पश्चात् उसकी पत्नी रमली का मन वहाँ रम नहीं सका और वह अपने दोनों छोटे बच्चों के साथ गाँव चली गई | माधो वहाँ से टस से मस नहीं हुआ | रमली ने उसे गाँव ले जाने की बहुत ज़िद की, बहुत समझाया पर वह वहाँ से हिला ही तो नहीं | तब दीनानाथ जी और उनकी पत्नी सोनी ने रमली को समझा बुझाकर माधो को शहर में ही रहने की इजाजत ले ली | माधो को बाकायदा स्कूल में दाखिला दिलवाया गया | वह स्कूल जाता, पढ़ाई करता, साथ ही घर के छोटे-मोटे काम भी संभाल लेता | जिनमें सबसे बड़ा काम होता था दीनानाथ की पाँच बरस की लाड़ली बिटिया आशी को बहलाए रखना|