गुलकंद - पार्ट 3 श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गुलकंद - पार्ट 3

गुलकंद

- 3 -

काकाजी के व्यक्तित्व ने उसे सदैव प्रभावित किया था! हँसते-मुस्कुराते, मीठी बातें करते काकाजी के सामने उसे अपने पिता का स्वभाव कभी अच्छा ही नहीं लगा। पर प्रभावित होने के बावजूद वह काकाजी को बस थोड़ा दूर-दूर से ही देखते रहने को मजबूर था कि उनके व्यवहार की पता नहीं कौन सी एक शुष्कता उसे उनके करीब जाने से, उनके सामने कुछ बोल पाने से रोक दिया करती थी। बाद में जब से नये मास्टर जी गाँव में आए, वह उनका ही मुरीद बन गया। वैसे उसके गाँव में उस समय पढ़ाई-लिखाई का कोई माहौल नहीं था। स्कूल में ज्यादातर बड़े और रसूखदार घरों के बच्चे जाया करते थे जो प्रारंभिक शिक्षा गाँव में करने के बाद अक्सर बाहर भेज दिये जाते थे। फीस देकर बच्चों को स्कूल भेजने का चलन उसके जैसे घरों में तो बिल्कुल ही नहीं था। अखबार जैसी मामूली चीजें भी उन दिनों खास-खास लोगों का ही शगल था जिसकी खबरें अपने-अपने विश्लेषण के साथ संयुक्त रूप से सुनी-कही जाती थीं। बाद में विकास के नाम पर एक सिनेमाहॉल खुला था जिसमें खासी भीड़ रहने लगी थी। उस सिनेमा के गाने दिन भर रेडियो पर भी बजते और बढ़ते बच्चों की चर्चाओं में भी रस भरते रहते।

जब गाँव के ढ़ेर सारे बच्चे आम-अमरूद चुराते, गिल्ली-डंडा और कंचे खेलते, आवारा कुत्ते-बकरियाँ दौड़ाते या नदी-पोखरों में कीचड़ और पानी में लोटते, वह सूनी आँखों से किनारे खड़ा देखता रहता। उसे समझ में नहीं आता था कि उसे कोई अपने साथ शामिल क्यों नहीं करता है। धीरे-धीरे वह अंतर्मुखी और शर्मीला होता चला गया। चचेरे भाईयों को खेतों में काम करते देखता, बहन की शादी रचाते, नाचते-गाते देखता और उनकी एकता से अभिभूत रहता। उसके अपने घर में तो अक्सर ऊँची-ऊँची सूती साड़ी बाँधे, दिन भर काम में जुटी अम्मा के अलावा और कोई नहीं होता था। घर-द्वार सहेजने, गाय-बछड़े की देखभाल, अचार-पापड़-बड़ियाँ बनाने, विधि-विधान से एक के बाद आते दूसरे त्योहार पर बनने वाले ढ़ेर सारे व्यंजन और भरे हुए खलिहान की सारी जिम्मेदारी उठाती अम्मा को अपने लिये फुर्सत के पल शायद ही कभी नसीब होते हों, उसका अकेलापन कब बाँटतीं?

घर-घर जाकर लोगों को पढ़ाई का महत्व समझाना और एक तरह से जबर्दस्ती पकड़ कर बच्चों को पाठशाला लाना मास्टर जी जैसा लगनशील आदमी ही कर सकता था। वही न जाने कहाँ-कहाँ से चंदा जमा कर कोर्स की किताबों, कापियों और कलम-पेंसिल का इन्तजाम किया करते और शिक्षा ज्ञान बाँटते फिरते। लोगों के काम करने के समय को देखते हुए शाम को चौपाल पर भी पढ़ाने-लिखाने को तैयार रहते। ऐसे में पता नहीं कब वह उनका पसंदीदा छात्र बन गया था जो स्कूल का समय समाप्त हो जाने के बाद भी सबक याद हो जाने तक वहीं बैठा रहता था। एक बार उसका उत्साह बढ़ाने के लिये मास्टर जी ने उसे एक कहानियों की किताब उपहारस्वरूप दी थी, जिसका पन्ना-पन्ना चाट गया था वह! फिर एक विज्ञापन, जिसका शीर्षक 'हम दो हमारे दो' था, पर उसकी नजर टिक कर ही रह गई। हँसते- मुस्कुराते लोगों की फोटो.. सुदर्शन पुरूष, सुन्दरी नारी, एक छोटी लड़की और गोद में एक गुलगोथना सा बच्चा! वह विस्फारित नजरों से देखता रह गया था! ये अम्मा, ये बाऊजी.. ये वह खुद! ऐसा भी कहीं होता है क्या? अम्मा-बाऊजी और वह, साथ-साथ कभी हँस सकते हैं क्या? अम्मा कभी बाऊजी से इतना सट कर खड़ी हो सकती हैं क्या? और बहन? उसकी जिंदगी में कोई भाई-बहन क्यों नहीं? काकाजी के यहाँ तीन लड़के, दो लड़कियाँ हैं, इसीलिए तो वे सब साथ-साथ कितना मजा करते हैं! और क्योंकि उसका कोई सगा भाई-बहन नहीं, इसीलिये वह यूँ सबसे अलग-थलग सा पड़ा रहता है! एक ही घर का होते हुए भी, वह उनमें से एक नहीं है। वैसे उसके पास प्रश्न और भी बहुत सारे थे। उसके ही बाऊजी इतने गुस्सैल क्यों हैं, काकाजी की ज़ुबान में इतनी मिठास क्यों है? अब सोंचता है तो महसूस होता है कि एक अदना से विज्ञापन ने उसकी सोच ही बदल कर रख दी थी मानो! उसे अम्मा-बाऊजी के साथ हँसने-मुस्कुराने की इच्छा होने लगी थी पर बाऊजी ने तो कभी उसे पास बुलाकर प्यार से सिर पर हाथ नहीं फेरा? ऐसा करने का तो ख्याल भी उनके दिमाग में नहीं आया होगा। पिता का कर्तव्य खाना- कपड़ा दे देने तक सीमित होता था जो उसके घर में भी था! असुविधा की हर स्थिति में, पत्नी-बच्चों को लात-जूतों से पीट देना भी तो हरेक घर की कहानी थी... बल्कि ये घटनाएँ तो इतनी सामान्य थीं कि कभी-कभी उसे स्वयं ही लगता कि सिर्फ उसी को यह सब खराब क्यों लगता है, बाकी लोगों को क्यों नहीं? एक काकाजी के घर को छोड़कर बाकी किसके यहाँ औरतों को सिर पर चढ़ाकर रखा जाता है? यह खुला सत्य था कि बिना मार-पीट और अनुशासन के मर्द अपनी औरतों को औकात में कैसे रख सकेंगें? पर वह क्या करे अगर उसकी संवेदनाओं के तार बाऊजी के बजाय हमेशा अम्मा से जुड़ते रहे हों। हर बार के कलह में उसे अपनी अम्मा ही निर्दोष नजर आती हों तो? पास ही के घर में काकी भी तो थीं, उनकी की स्थिति सबसे इतनी अलग क्यों थी? वह तो सज-धज कर ठाठ से रहतीं और लोगों पर हुकुम चलातीं... उनके ऊपर शासन करने को क्या उनके घर में किसी के पास मर्दानगी ही नहीं थी?

बाऊजी खेत जोतते, बीज बोते... हाड़-तोड़ मेहनत जरूर करते पर उनका काम अम्मा की तरह चौबीसों घंटे लगातार चलने वाला नहीं था। ताश खेलकर हारने-जीतने के लिये और जी भरकर देसी दारू चढ़ाने के लिये उनके पास बहुतायत से समय होता था। फिर हारने की खीझ हो या सिर पर चढ़ा नशा, सब तो अम्मा के ऊपर ही निकलता। अम्मा और उनकी उम्र में भी अच्छा खासा अंतर था। गाली-गलौज और पिटाई से अधमरी हुई माँ को थर-थर काँपते उसने हमेशा देखा है। तब भी, जब रात में बाऊजी उसे खींचकर बगल की कोठरी में ले जाते और तब भी जब वह कई-कई रात घर ही नहीं आते। अब सोंचने पर भले ही आश्चर्य हो पर तब यह सब इतनी मामूली बात हुआ करती थी कि अम्मा को भी तो उसने कभी शिकायत करते नहीं देखा? उनका कम से कम बोलना और हल्के से घूँघट में छिपी सूजी आँखों से ही वह उनकी उदासी को पढ़ने की कोशिश करता रहता था। पर उनकी बनिस्पत काकी इतनी रसूखदार क्यों थीं जबकि बाऊजी और काकाजी के खेतों का माप तो बिल्कुल बराबर ही था, यह उसे बहुत बाद में पता चला। शायद बाऊजी की जो कमाई दारू और रूकनी बाई के बीच छीझ जाती थी, काकाजी के घर में उसपर पूरा अधिकार काकी का होता था। आखिरकार बड़े घर की बेटी थीं वह! सामर्थ्यवान भाईयों का संरक्षण, हर समय सिर से पाँव तक पहने रहने के लिये असली सोने के गहने और घर-परिवार से जुड़े सारे निर्णय लेने की स्वतंत्रता... एक दिन उसने मासूमियत से अम्मा से पूछा था, "तुम काकी की तरह गहने क्यों नहीं पहनती?"
"पहनूँगी न, जब 'तू' कमाएगा!" अम्मा ने खुली आँखों से सपना देखते हुए कहा था।

क्रमशः
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श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com