गुलकंद
पार्ट - 4
पद में छोटी होने के बावजूद वह काकी का प्रभाव ही था कि हर दो-चार दिन पर बाऊजी किसी न किसी काम के लिये उनकी मदद करने को, समय मिलते ही, उनके यहाँ चले जाने फरमान अम्मा को पकड़ा दिया करते... कभी बेटी की विदाई के लिये पकवान बनाना, कभी चिऊड़ा कूटना, धान फटकना होता था... जितना बड़ा परिवार उतना ज्यादा-ज्यादा काम! बाऊजी के आदेश की अनदेखी अम्मा के लिये संभव नहीं थी पर यूँ नौकरों की तरह पराये घर में बार-बार काम करने जाना और इस तरह काकी की सरपरस्ती को स्वीकार कर लेना, उनके आदेशों को चुपचाप पालन करने की वो मजबूरी, उनके आत्मसम्मान को चोट पँहुचाती, बहुत सारे जख्मों को नंगा कर जाती! उनका सबसे बड़ा दर्द था कि उनके पास उनके लिये खड़ा होने वाला कोई नहीं था। न भाई का अस्तित्व नसीब हुआ था न बाप की सरपरस्ती... विधवा माँ की हैसियत नहीं थी उनके लिये कुछ कर सकने की तो कुल-परिवार के लोगों ने मिल-जुल कर उनका ब्याह कराया था! बाऊजी विधुर थे तो क्या, अम्मा का नसीब इतना अच्छा निकला कि सीने पर बैठने के लिये पहली बीबी की कोई औलाद तक नहीं थी। धन-धान्य से भरा-पूरा घर जहाँ सास-ससुर की कोई चिक-चिक तो नहीं ही थी, भाई-भाई के बीच भी बँटवारा संपन्न हो चुका था... मतलब कि पूरे राज-पाट की अकेली मालकिन होकर जा रही थीं वह! बिना दान-दहेज के इतना कुछ कितनों को मिल पाता है ? इसके बाद अगर अपने राज-पाट को सँभालना ही उन्हें न आए तो इसमें किसका दोष? उस लक्ष्मण जैसे भाई के परिवार, जिसने रसोई अलग हो जाने के बावजूद बाऊजी को न पहली बीबी की बीमारी में अकेला छोड़ा था न उसके मरने के बाद इतने सालों तक खाने-पीने की कोई तकलीफ होने दी, के साथ अगर जरा सा रिश्ता तक न निभा सके तो वह औरत ही किस काम की? भले बाऊजी के इस दूसरे ब्याह में काकाजी के परिवार की सहमति बिल्कुल ही न रही हो पर उससे क्या? वैसे वे लोग इस बात से पूरी तरह सहमत थे कि मर्द-मानुस की अपनी मजबूरियाँ होती हैं। इतने साल रँडुआ रह जाने पर कहीं न कहीं तो जाएगा ही वह! पर जब रूकनी बाई थी ही और बाल-बच्चों से भरा काकाजी का घर भी था तब बाऊजी का एक और औरत ब्याहकर घर में बैठा लेना उन लोगों को जरा भी पसंद नहीं आया था। पर अब जो बाऊजी की जिद पर अम्मा घर में आ ही गई थीं तो उस रूकनी बाई के चंगुल में फँसे अपने पति को आजाद कराने की जिम्मेदारी पूरी तरह से उनकी ही बनती थी।अगर इतना भी नहीं कर सकतीं तो खुद ही भुगतें! कौन बैठा रहेगा उन्हें हर सुख परोस कर दे देने के लिये? अपनी सारी कमजोरियों को अम्मा भी अच्छी तरह पहचानती और स्वीकार करती थीं इसीलिए तो कभी कोई शिकायत नहीं की। पर क्या इतना जानने-समझने के बाद भी उनके अंदर कहीं कुछ तो कसक रह गई थी कि सारे दिन खटने के बाद, काकी के यहाँ से वीरू के लिये मिले उस मिठाई के टुकड़े या पकवान की पोटली को उसे पकड़ाने के बजाय अम्मा गाय की नाँद में डाल, अपना बदला ले लिया करती थीं? वीरू को भी तो छोटे-छोटे कामों का हवाला देकर अक्सर बुलाया जाता था पर उसका अस्तित्व अम्मा के अधिकार क्षेत्र में पड़ता था अतः सारी जिम्मेदारियाँ अकेले ही उठाकर वह उसे इस बेगारी से अलग ही रखती थीं और हो सकता है इसी अपराध के बदले उसे पूरे गाँव ने अकेला छोड़ दिया था।
पूरे खानदान में काकी की हैसियत परिवार की इकलौती बहू सी ही बनी रही। सारे नाते-रिश्तेदार उनके ही घर आते और वह हर जगह ठसके के साथ जाती-आती रहतीं। अपने घर में अकेली पड़ी अम्मा को कभी उस खानदान के एक हिस्से के तौर पर देखा ही नहीं गया। वह बस अचार-पापड़, सत्तू, बड़ी-तिलौड़ी, घी-मक्खन और न जाने क्या-क्या बनाने में व्यस्त रहतीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि अम्मा के इस तरह व्यस्त रहने, इतना कम बोलने की वजह से ही वह अंतर्मुखी और शर्मीला हो गया था? अम्मा कभी अपने हक के लिये लड़ीं क्यों नहीं? पर लड़कर भी वह क्या हासिल कर लेतीं? अगर ये घर उनसे छूट जाता तो क्या अकेले अपने दम पर अपने बेटे को पाल लेने का आत्मविश्वास था उनके अंदर?
काकाजी के लड़कों की उम्र उससे काफी ज्यादा थी। वे उसका आदर्श बन सकते थे पर उनकी तरह खेतों पर काम करने से ज्यादा मजा उसे किताबों की उस दुनिया में आने लगा जो न जाने किस अनदेखी दुनिया की बातें किया करती थीं। जिसकी रेलगाड़ियाँ और हवाई जहाज अपनी बैलगाड़ियों और टैम्पो-स्कूटर से कहीं ज्यादा आकर्षक होते थे। काकाजी और मास्टर जी की बिसात ही क्या... गाँव के मुखिया, कलक्टर, चकबंदी अफसर और डाक्टर से कहीं ज्यादा रोब-रूआब वाले सुदर्शन लोग उसे उन किताबों में मिल जाते थे और वैसा बन पाने की राह भी वहीं से निकलती दिखती थी। इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उसे नाकारा करार कर बाऊजी को शरीर थकने के साथ-साथ खेतों में भारी काम करने के लिये बँटाई मजदूर रखने पड़े। घर में आने वाली फसल की मात्रा कम होने लगी और उसे इस तरह बिगाड़ देने की जिम्मेदार अम्मा से मोहभंग होने के कारण बाऊजी रूकनी बाई के यहाँ और ज्यादा समय बिताने लगे। काकाजी ने समझाया, इस तरह बाहर के लोगों में कमाई बाँट आने का क्या फायदा जब हर काम करने के लिये घर में इतने जवान लड़के हों? बाऊजी के ऊपर काकाजी का यह एक और अहसान था... भाई से बढ़कर कोई दूसरा हो सकता है क्या? तीन पत्ती खेलते, बतकही करते भी अपने खेत की लहलहाती फसल आँखों को ठंढ़क देती तो काकाजी पर विश्वास और बढ़ जाता। अम्मा ने भी तो उन्हें कभी बताया ही नहीं होगा कि भरे-पूरे घर का भंडार कब से खाली रहने लगा है। उसके हिसाब से तो कम से कम साधन में अच्छी से अच्छी गृहस्थी चलाना औरत का कर्तव्य होता है। अपनी अम्मा के इस भोलेपन पर दुलार आने लगता था उसे... जैसे गीता के सार को आत्मसात कर चुकी हो वह... दुनियादारी से अछूती, आगत की परेशानियों से बेखौफ, बस अपने कर्तव्य में लीन उसकी अम्मा!
प्रोबेशनरी परीक्षा में उत्तीर्ण करते ही उसे बैंक मैनेजर की नौकरी मिली, और साथ-साथ गाँव हमेशा के लिये छूट गया। फिर तो दोनों खेतों के बीच की मेड़ भी टूट गई और खेती संबंधित सारे निर्णय अब काकाजी के बेटे ही लेने लगे... उनके हर निर्णय में बाऊजी की सहमति अपने-आप रहती। बाऊजी के पास अब समय ही समय था और उनकी जरूरतों भर उनका हिस्सा भी उनके पास पँहुच जाया करता था। अम्मा की जरूरतें अब उसके भेजे मनीआर्डर से पूरी होती थीं जिससे कमाऊ बेटे की माँ होने का गर्व उनके चेहरे पर खिल आया था।
फिर अनीता आई थी उसकी जिंदगी में... हँसती-खिलखिलाती मगर जुझारू लड़की! जिस काम के पीछे पड़ जाती, पूरा कर के ही दम लेती। महानगर में जन्मी और वहीं पली-बढ़ी... एक अलग सी स्मार्टनेस थी उसके अंदर। स्त्री होना कभी भी उसकी कमजोरी नहीं रहा कि घर हो या बाहर, सबकुछ अकेले सँभाल सकती थी। जिम्मेदारियाँ लेना और स्वयं को हमेशा अलग-अलग कार्यकलापों में व्यस्त रखना इसके स्वभाव की वह खासियत थी जिसके कारण वह अनीता को इतना ज्यादा पसंद करने लगा था कि उसको अपनी बाहों में समेटकर, दुनियाभर का सुख देने का जी चाहा था उसका और अनीता ने भी तो उसकी जिंदगी का हिस्सा बनने से इन्कार नहीं किया था।
क्रमशः
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श्रुत कीर्ति अग्रवाल
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