गुलकंद - पार्ट 10 (अंतिम भाग) श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गुलकंद - पार्ट 10 (अंतिम भाग)

गुलकंद

पार्ट - 10
अंतिम भाग

अनरसे वाकई बहुत अच्छे बने थे। भौंचक खड़ा वीरेश देख रहा था कि उत्साह से भरी अम्मा बड़े प्यार से तीनों के टिफिन में ठूंस-ठूंस कर भर रही थीं... गुलकंद भरे पान भी रखे... "अपने दोस्तों को भी खिलाना! शाम को बताना उन्हें कैसा लगा?" वीरेश अम्मा के अंदर अचानक आए इस बदलाव को आश्चर्य से देख रहा था, पर घर के माहौल में वाकई परिवर्तन था। ऐसी क्या बात की प्रांशु ने इनसे? कौन सी शल्य क्रिया को अंजाम दे दिया चुपचाप? और आज वह यह कुछ सचमुच अन्नी से संबंध सुधारने की कोशिश कर रही हैं या प्रांशु को खो देने का भय है उनके अंदर? उससे अटैच्ड तो सचमुच बहुत हो गई हैं धीरे-धीरे!

फिर प्रांशु ने अपना बिस्तर अपने पुराने कमरे में, अपनी दादी के साथ लगा लिया था। अचानक ही बहुत दोस्ती हो गई दादी पोते में। वह पढाई में व्यस्त होता और आँखों में लाड़ भरे अम्मा उसको निहारते न थकतीं। उसके कपड़ों में तह लगातीं, किताबें समेट देतीं, उसके दोस्तों के लिये व्यंजन बनातीं और फरमाइश करके उसके साथ बैठकर किलकते हुए आइसक्रीम भी खाने लगी थीं। ठहाके मार-मार कर मोबाइल फोन में सिनेमा देखतीं और फिर सबके साथ पैर लटकाकर खाने के टेबल पर बैठते ही रस ले-लेकर फिल्म की कहानी सुनाने लगतीं। धीरे-धीरे सोसाइटी में कुछ सहेलियाँ भी बन गई थीं उनकी जो बागवानी के टिप लेने और उत्तर भारतीय भोजन की पाक-प्रणाली सीखने कभी-कभार घर में भी आ टपकती थीं। गर्व सा हो आया उसे अपने बेटे पर जिसने मानों जादू की छड़ी घुमाकर हर समस्या का समाधान कर दिया हो... कब इतना समझदार हो गया उसका नन्हा सा बच्चा, पता ही नहीं चला।

उस इतवार अम्मा ने दस किलो कच्चे आम की माँग रख दी। उनको कहीं से पता चल गया था कि उनके गाँव के मुकाबले मुंबई में आम जल्दी आ जाते हैं। बाजार से खरीद कर स्वाद-बेस्वाद अचार खाने वाली अन्नी को भी घर में अचार बनाने की परिकल्पना अच्छी लगी थी और वीरेश ने देखा, अम्मा लगातार बढ़िया अचार बनाने के टिप दिये जा रही थीं और अन्नी सबकुछ छोड़-छाड़कर उनके साथ आम छीलने में लगी पड़ी थी। जैसे-जैसे सास-बहू में दोस्ती हो रही थी, घर में आए दिन सुस्वादु व्यंजन बनने लगे थे। अम्मा के बनाए गुड़ के पुए की खुशबू वातावरण को मनमोहक बना देती तो अन्नी के बनाए मोदक अम्मा चाट-चाट कर खाने लगी थीं और जिह्वा की संतुष्टि घर में हर किसी के चेहरे पर परिलक्षित होने लगी थी। आश्चर्यजनक रूप से रानी भी अब इस घर को कुछ ज्यादा समय देने लगी थी कि घर के भारी से भारी काम चुटकियों में सलटते नजर आने लगे थे।

खूबसूरत सी सुबह थी वह। वीरेश की नींद जरा देर से टूटी। भौंचक्का रह गया जब रोज की व्यस्तता से इतर, अचानक अन्नी बिस्तर में आकर उससे लिपट गई।
"क्या हुआ?" उसके शरीर की गर्माहट भरी खुशी को महसूस करते हुए पूछा था उसने।
"वो पच्चीस हजार रूपए, आज अचानक मिल गये। हड़बड़ाहट में ड्रेसिंग टेबल के नीचे वाली दराज में रख दिये थे मैंने, और भूलकर आलमारी में खोजे जा रही थी। खुद भी कितना परेशान हुई, तुम्हें भी तंग कर मारा!"
"अरे वाह!" वीरेश ने भी खुश होकर अन्नी के गिर्द अपनी बाहों का घेरा कस लिया। "यह तो बड़ी अच्छी खबर सुनाई तुमने! क्या कहती हो, आज शाम टीवी खरीदने चलें?"
"हाँ, जाया जा सकता है।" अनीता कुछ सोचते हुए बोली, "पर अम्मा के लिये कुछ साड़ियाँ भी खरीदनी होंगी। जब से आई हैं वही तीन-चार साड़ियाँ पहने जा रही हैं.. अब तो वो किनारे से फटने भी लगी हैं।"
"अरे! मेरा तो उस तरफ ध्यान भी नहीं गया। तो चलो, शाम को हम सब इकठ्ठे निकलते हैं। अम्मा को भी तो दिखाया जाय कि बड़ा शहर कैसा होता है। फिर हम सबके लिये कपड़े खरीदेंगे। बाहर ही कुछ खाएँगें और.. फिर स्टूडियो चलकर एक अच्छी सी फोटो खिंचवाएँगें... 'हम दो, हमारे दो' स्टाइल में!" वीरेश ने कहा।
"हाँ, ठीक है। टीवी की वैसे अभी कोई जल्दी भी नहीं है.. आजकल तो मोबाइल पर ही सबकुछ आ जाता है! टीवी हम कुछ दिन बाद खरीद लेंगे!"
अनीता सहमत थी।

मौलिक एवं स्वरचित


श्रुत कीर्ति अग्रवाल

shrutipatna6@gmail.com


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समाप्त