गुलकंद - पार्ट 9 श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गुलकंद - पार्ट 9

गुलकंद

पार्ट - 9

इस दो बित्ते के फ्लैट में कोई भी बात किसी से छिपती नहीं है। अचानक वीरेश की नजर पड़ी, बालकनी के कोने में उदास बैठी अन्नी के गले में बाँहें डाले प्रांशु उसके गले लग, गालों को चूम, उसे मनाने में लगा था। पता नहीं क्यों आज उनके मध्य होने वाली बातों को सुनने का लोभ संवरण नहीं हो सका और वह चुपचाप साथ वाले कमरे में आकर लेट गया!

"इतना टेंशन बर्दाश्त नहीं होता बेटा! अब मुझे यह घर अपना जैसा लगता ही नहीं!" अनीता सिसक-सिसक कर कह रही थी।
"मैं पापा से बात करूँगा माँ, आप परेशान मत हो!"... प्रांशु ने कहा तो वीरेश सोच में पड़ गया। पता ही नहीं चला कि कब उसका बेटा इतना बड़ा हो गया!
"तेरे पापा के वश में कुछ नहीं है! वो अपनी माँ को किसी हालत नाराज नहीं करेंगें! पर तू ही बता, मैंने क्या नहीं किया उनके साथ सामंजस्य बिठाने को? सारी ताकत से दिनभर दौड़ती रहती हूँ... कपड़े पहनने का स्टाइल चेंज कर लिया... हमेशा होंठों को सिलकर रखा... उनकी पसंद का खाना बनाया, पर मैं उनको खुश नहीं कर पाई! तुझे क्या लगता है, नौकरी छोड़ दूँ तो क्या वह खुश हो जाएँगीं? नहीं होगा ऐसा! बस मेरे हाथ-पैर कट जाएँगें। उन्हें मैं नहीं चाहिए थी तेरे पापा की लाइफ में, पर अब तो मैं आ चुकी हूँ न? क्या अभी भी वह मेरी जगह किसी और को लाने के सपने देख रही हैं?" अन्नी की हिचकियाँ बँधी जा रही थीं। वीरेश का जी चाहा कि उठकर अन्नी चूम ले.. सांत्वना दे और अपना दिल खोलकर रख दे पर तभी प्रांशु की बातों से स्तब्ध रह गया वह।
"क्यों छोड़ोगी नौकरी? वाइस-प्रिंसिपल बन गई हो... दो-चार साल में प्रिंसिपल बन सकती हो। इतनी मेहनत क्या ये अत्याचार सहने के लिये की थी? सहती भी क्यों हो तुम? जवाब क्यों नहीं देती? पापा से डरती हो? वो अपनी माँ को नहीं छोड़ेंगे तो मैं दो टूक बातें कर लूँगा उनसे... मैं भी अपनी माँ को नहीं छोड़ने वाला! मगर पहले मैं दादी से बात करूँगा, आज और अभी! अगर उन्हें तुम मंजूर नहीं हो तो साफ-साफ कह दूँगा कि मुझे भी भूल जाएँ। फिर लाती रहें अपनी पसंद की। सबकुछ उन्हीं के हिसाब से थोड़े ही न होगा। हम दोनों कहीं भी शिफ्ट हो जाएँगें... यहाँ से तो ज्यादा ही खुश रहेंगे!"

कलेजा मुँह को आया जा रहा था। जैसे सबकुछ हाथों से फिसलने वाला हो... समझ में ही नहीं आ रहा था अब क्या करना चाहिए। उसकी अपनी गलती थी यह! उसने ही तो घर की शांति-सौहार्द के प्रयास में सास-बहू के बीच एक कॉम्पिटिशन शुरू करा दिया और फिर आदर्श बेटा साबित होने की धुन में अन्नी को नजरअंदाज कर अपनी माँ के पास जा खड़ा हुआ! सही स्टेप यह होता कि जब अम्मा ने पहली बार अन्नी के लिये कड़वा बोला था, उसे कड़ाई के साथ उनको वहीं रोक देना चाहिए था ताकि अपने उस लहजे को आगे बढ़ाने की उन्हें हिम्मत ही न पड़ती। मगर उस स्थिति में क्या अन्नी निरंकुश नहीं हो जाती? हे भगवान! आखिर सही क्या है? मन वैराग्य की ओर झुक रहा था... सबको खुश रखने के प्रयत्न में वही सबसे गलत साबित होता जा रहा है... उसे ही सब छोड़-छाड़कर कहीं चले जाना चाहिए।

ठीक है, अब वह किसी से कुछ भी नहीं कहेगा! सचमुच उसके वश में कुछ नहीं है... शायद वह हार गया है। मर्ज को ठीक करने के लिये कड़वी गोली भी खानी पड़ती है और वक्त-जरूरत शल्य क्रिया भी करनी ही पड़ती है... अतः अब वह स्वयं को सबसे काटकर अलग कर लेगा। अच्छा है, अब बागडोर प्रांशु सँभाल ले।... होइहै वही जो राम रचि राखा। को करि तर्क बढ़ावै साखा... लंबी साँस खींचकर वीरेश वहाँ से हट गया।

क्रमशः

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श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com