गुलकंद - पार्ट 6 श्रुत कीर्ति अग्रवाल द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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गुलकंद - पार्ट 6

गुलकंद

पार्ट - 6

असली समस्या तब शुरू हुई जब बाऊजी नहीं रहे। उनकी उपस्थिति मात्र से सुचारू रूप से चलने वाले कितने ही काम अकस्मात रूक गये। काकाजी के यहाँ से सब्जी-अनाज आना बंद हो गया और उसके हिस्से का खेत शून्य में विलीन हो गया। अम्मा एकाएक अकेली हो गईं और उनकी देखभाल उसके जिम्मे आ गई। अंतर्मन में आदर्शवादिता जोर मार रही थी.. अम्मा के हर सपने को पूरा करने का समय आ गया था। उनको वह सबकुछ दे देने की चाहत थी जिसके लिये कभी भी उन्होंने समझौता किया रहा हो। पर कैसे? उनके लिए ज्यादा सुखद तो गाँव में रहना ही होगा.. तब वह उनकी देखभाल कैसे कर सकेगा? कितना भी पैसा भेज दे, बुढ़ापे के शरीर को जब भी जरूरत होगी, काकी और उनके परिवार की शरण में तो जाना ही पड़ेगा? इससे कहीं अच्छा है कि उन्हें साथ ले जाया जाय, तब क्या अन्नी, उसकी भावनाओं को समझते हुए, उसके अनुसार अपनाएगी उन्हें? यहाँ के मकान और गाय-बछिया का क्या होगा? काकाजी के चंगुल से अपना खेत छुड़ाने के लिये कोर्ट-कचहरी जाना चाहिए या नहीं? पर इन सबके लिये मुंबई से गाँव तक का सफर कितनी बार कर सकेगा वह?

दिल पर पत्थर रख कर गाय और मकान, दोनों को बेच दिया। यह उसकी मजबूरी थी। पर इसके अतिरिक्त तो उसने हर उस चीज को गठरी में बाँधकर साथ ले जाने का प्रयास किया जिससे अम्मा को जरा भी लगाव था.. पर अम्मा के चेहरे पर खुशी का नामोनिशान नहीं था। छोटे-छोटे दो कमरों के अपने फ्लैट में प्रांशु का कमरा खाली करा कर अम्मा को दे दिया और बड़े होते बच्चे को समझा-बुझाकर उसकी खाट अपने कमरे में ही डाल ली पर यहाँ का तो पूरा का पूरा माहौल ही अम्मा के लिये बहुत अलग था। सुबह-सवेरे बाथरूम के नाम पर अजीब-अजीब चीज-सामान बरतने की मजबूरी और खड़े होकर खाना बनाना... अजीब तरह के कपड़े पहने हुए, अजब-गजब बोली बोलते लोग... औरतें मर्दों की तरह पैर लटकाकर कुर्सी और सोफे पर बैठतीं... लोग पूरे कपड़े पहन कर बाथरूम जाते... थैली में, चुल्लू भर दूध आता था जिससे यूँ तो बड़ी कंजूसी से खर्च किया जाता था पर दिन भर चाय और कॉफी बनती रहती थी... नौकरानी घर में रखा चाय-नाश्ता बिना किसी से पूछे हक से खाती-पीती रहती और उसा चोर कह कर प्रताड़ित करने के स्थान पर सिर पर बिठा लिया जाता था! जेल जैसी दीवारों से घिरे रहने की असुविधा.. ऊँची बालकनी से नीचे झाँकने पर और लिफ्ट में घुसने पर लगने वाला वह डर.. और इन सबके मूल में यह कल की आई लड़की ही तो थी। शायद इसी के लिए उनके वीरू को गाँव छोड़ना पड़ा और ऐसी जादूगरनी के फेर में पड़ा कि मर्दों वाली तो बात ही नहीं रह गई है उसमें! मर्द-मानुस तो वही होता है जिसकी आवाज ऊँची हो और जिसे हर हाल में अपनी आवाज को ऊँचा रखना आता हो अन्यथा वीरू जैसे लोगों को तो उनके गाँव में जनखा कहा जाता है। कितनी ही बार उन्होंने वीरू को पास बैठाकर ऊँच-नीच समझाने की कोशिश की पर जादू का असर इतना कि वह तो हर बात को हँसी में टाल देता है।

जिंदगी भर डरी-सहमी ही रही थीं वह। ससुराल वालों ने, पति ने भले कभी गिनती में न लिया हो पर अब तो वह कमाऊ पूत की माँ थीं। बेटा हर महीने जितने नोट कमा कर लाता था, उतने उन्होंने जिंदगी में कभी एक साथ देखे ही नहीं थे। उस बेटे का जोरू से दबना उनको कभी-कभी अपनी, स्वयं की कमजोरी सा लगता... जैसे उसकी परवरिश में ही कोई कमी रह गई हो उनसे। जीने का सही ढंग ही नहीं सिखा पाईं वे उसको। पर क्या उसने अपने खानदान में मर्द नहीं देखे हैं, अपने पिता को नहीं देखा है? देखा नहीं है कि उनके देवर के परिवार के लड़के... बीबी के भड़काने पर भले कत्ल ही क्यों न कर आएँ, पर लोग-बाग के सामने उसे डाँट कर ही रखते हैं? सबकुछ सिखाया थोड़े ही जा सकता, दुनिया देखकर खुद ही सीखना होता है न! वहाँ गाँव में अगर कोई बीबी के सामने इस तरह दबकर रहे तो लोग उसका मजाक बना-बना कर उसका जीना ही मुहाल कर दें। पूछा था, "तू बहू के आगे जोर से बोल क्यों नहीं पाता? क्या बिगाड़ लेगी वो तेरा?"
"पर वो जोर से बोलने का मौका तो दे अम्मा! दिन भर अपने काम में लगी रहती है, कोई ऐसी गलती तो करती नहीं है।" वीरेश ने मुस्कुराकर कहा तो जी जल गया था उनका।

क्रमशः

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