सर्कस - 17 Madhavi Marathe द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सर्कस - 17

 

                                                                                                 सर्कस:१७

 

         सुबह उठ गया इस विचार से की आज कुछ नया सीखने मिलेगा। अभी तो पढाई शुरू नही करूंगा इसलिए यह समय तो खाली था। कॉलेज के सर ने कुछ नोट्स, किताबे देकर रखी थी। बॅग में से कपडे भी अलमारी में लगाने रह गए थे लेकिन अभी रखने जाऊँगा तो आवाज से बाकी लोगों की नींद खराब हो जाएगी। ऐसे ही बिस्तर पर पडे रहने का मन नही कर रहा था, तो उठकर बाहर आ गया। भोर का समय, आल्हाददायक हवा का आनंद उठाते घुमने लगा। गूढ, शांतता, योगी लोगों का ध्यान का समय। उनके गंभीर ध्यान के स्पंदन पुरे वातावरण में फैले रहते है, वह शांती ‘मैं’ का अस्तित्व खोकर पवित्र अनुभव का साक्षी बन जाता है, ऐसा दादाजी ने बताया था। इस समय में व्यक्ती, जीवन के सुख-दुःख के बारे में कभी याद भी नही कर पाएगा। तृप्ती, शांती, चैतन्य, आनंद, उत्साह के परे का अनुभव, यह बेला मानव को कराती है। इतने में मेरा ध्यान दूर एक तंबू था, उस तरफ गया। वहाँ से हलकी रोशनी आ रही थी, लेकिन यह तंबू किसका है यह याद नही आ रहा था। झाडीयों के बीच में छुपा हुआ, रोशनी के वजह से वह दिख गया। पुरा बंदिस्त, कही से भी उसे झरोका नही कौतुहल से मैने बारिकी नजर फेर ली। चारों तरफ घुमने के बाद एक छोटी जगह दिख गई, वहाँ आँख लगाए देखा तो दंग रह गया। अंदर का दृष्य अनाकलनीय था। एक छोटे जल रहे दिपक में कुछ गुढता महसुस हो रही थी। एक व्यक्ती ध्यानमग्न अवस्था में बैठी थी, उस व्यक्ती की पीठ मेरे बाजू होने कारण चेहरा नही दिख पाया। उस गुढता से मैं आकर्षित हो गया। क्या करे अंदर जाए या ना जाए यह समझ नही आने के बावजूद वही खडा रह गया। “ अंदर आजा श्रवण।” एक आवाज आई, मैं एकदम से चौंक गया लेकिन अपने-आप पर काबू पाकर अंदर चला गया। उन्हे देखा, लेकिन सर्कस में पहले कभी इनको देखा है ऐसे याद नही आ रहा था। उन्होने इशारे से ही अपने बाजू में बैठने के लिए कहा ओैर शांत मन से श्वास पर कैसे लक्ष केंद्रित करना है यह बताया। झटसे समझ में नही आएगा तो सिर्फ प्रयास करते रहना है यह बताते हुए फिर से वह अपने आप में लीन हो गए। मैं श्वास पर ध्यान लगाने की कोशिश करने लगा लेकिन कुछ क्षण के बाद यही विचार मन में चलते रहे की यह है कौन? पहले कभी कैसे नही देखा? ऐसा कुछ यहाँ देखने मिलेगा यह तो सोचा भी नही था। कभी शांती के क्षण मिलते, कभी विचार मन में चलते, कितना समय बीत गया पता ही नही चला।

      “ श्रवण, उठोगे बेटा अब ?” आवाज सुनकर मैने आँखे खोल दी, सामने बैठ प्रसन्न व्यक्तिमत्व से प्रभावित हो गया। वृद्ध काया लेकिन आँखों में तेज, गोरा वर्ण, एखाद ऋषि -मुनी को देख रहा हूँ ऐसा लगने लगा। मुझे अचरज में देखकर वह बोले चलो चाय पिते है। अब बाकी तंबू का हिस्सा भी नजर आने लगा। एक कोने में टेबल पर रखा गॅस, साइड रॅक में बरतन, रसोई का सामान, दुसरे कोने में चारपाई, कपडे रखने की छोटी अलमारी, बाकी तंबू में थोडी जगह थी। मेरी जुबान अभी भी बंद ही थी। चाय का कप मेरे हाथ में देते हुए उन्होने कहा “ मैं तुम्हारे अरुणसर का पिता हूँ।”  

     “ क्या? अभी तक तो किसी ने बताया नही।” मैने अचरज से पुछा।

     “ अरे, सबको पता है मेरे बारे में, लेकिन मैने यह भी बताकर रखा है की हर कोई अपने कर्म के हिसाब से मुझे पहचनेगा। जिसका जैसा भाव है वैसे मुझे पाएगा। छोटे बच्चे दादाजी करते हुए खेलने या कुछ खाने के लिए मेरे पास आते है, कोई पैसे माँगने आता है, कोई अपना दुःख-दर्द बाटने आता है, किसी को कोई तांत्रिक या व्यवहारिक सल्ला-मसलत की जरूरत पडती है, कोई ज्योतिषय पुछ्ने आता है, एक तू ही है जो आत्मप्रेरणा से आ गया। ध्यान की गूढता तुझे यहाँ खिंच लायी, इसका मतलब है तू पिछले जनम में ध्यान-साधना करनेवाला रहा होगा। जिसकी जैसी लहरे होती है वही लहरे उसे अपने पास खिंच लेती है। अरुण के दोनो बच्चे परदेस है, बिबी जाने के बाद वह एकदम से अकेला हो गया है, इसलिए मैं उसके साथ रहता हूँ, जब तक उसे साथ दे सकुँगा दुँगा। किसकी कितनी आयू है यह तो भगवान ही जानता है।” यह वाक्य बोलते समय उन्होने मेरी ओर कुछ अजीब नजर से देखा ओैर फिर आगे बात करने लगे “ यहाँ सब मेरा ख्याल अच्छे से रखते है, अब मुझे सुनाई भी कम देता है तो बाहर का शोर-शराबा भी नही सुनाई देता तो कही भी रहो कुछ फर्क नही पडता।” इस बात पे हम दोनों हँसने लगे। अब मैं भी संभल गया था, उन्हे देख दादाजी की याद आ रही थी।

       “ दादाजी, मैं भी आपके पास ध्यान सिखने आ जाऊँ?”

       “ हाँ जरूर आ जाना। सिर्फ अगर हो सके तो जरा जलदी आ जाना, चार से पाँच बजे का समय ध्यान के लिए बहुत अच्छा होता है। अब तुम जाओ, तुम्हे देर हो जाएगी  कल आ जाना।” उनके पैर छुकर वहाँ से चला आया।

       आज मेरा पुरा रुटीन अलग हो गया, धीरज मुझे ढुंढता हुआ नजर आया।

   “ कहाँ गायब हो गया श्रव्या तू? कब से ढुंढ रहा हूँ।” सुबह की बात धीरज को बता दी तो वह मेरी तरफ अजीब नजरिए से देखने लगा। उसे कुछ समझ नही आ रहा था। फिर धीमी आवाज में उसने कहा “ श्रवण, सब कहते है, वह एक तपस्वी ऋषि है, उनका तंबू सिर्फ दस बजे से शाम पाँच बजे तक ही कोई देख पाता है। बाद में कोई उस तरफ गया तो भी उसे वह तंबू नजर नही आता। बहुत पहुँचे हुए साधू है वह। उनकी इच्छा के बिना तुम उन्हे देख भी नही पाते।” धीरज जो भी बात बता रहा था वह मेरे आकलन शक्ती से बाहर था। दृश्य-अदृश्य शक्ती से अभी तक मैं अनजान था। दोनों एक अजीब बात से शांत हो गए, एक-दुसरे से बात करने का मन ही नही हो रहा था। नाश्ता करने के बाद धीरज संथाळसर से मिलवाने ले गया।

       संथाळसर की उम्र चालीस के आस-पास होगी। बडी-बडी मुछे, बालों के बीच में दिख रहे चेहरे पर हमेशा गाना गुनगुनाने का आभास हो रहा था। पहले वह ऑर्केस्ट्रा में किबोर्ड बजाते थे, अब पुरा ऑर्केस्ट्रा संभालते है ओैर ऐकरींग भी करते है। उनकी आवाज के लय के माध्यम से प्रेक्षकों का भी दिल उपर-नीचे हो जाता था। उनके विनोदपूर्ण बाते लोगों को हँसाती रहती, उनका पुरा परिवार सर्कस में काम करता था। पत्नी ऑफिस में व्यवहारपूर्ण बाते देखती थी, लडका रिंगमास्टर विजयानंद से जानवरों के प्रशिक्षण के बारे में सीख रहा था। दुसरा लडका सर्कस नियोजन, अडव्हर्टाइजिंग विभाग में काम करता था। संथाळसर ने कौनसा वाद्य बजा सकते हो यह पुछ्ने पर मेरे पास तो कोई जबाब था ही नही। तब उन्होने वहाँ रखे सब वाद्य दिखा दिए। इलेक्ट्रिक गिटार, किबोर्ड, लेरनेट, सॅक्सॉफोन, केटेलड्रम, बोंगोस, भोंगा, झिंबल, झायलोफोन, एस्ट्रोजन, मारॅकस, इसमें से कौनसा वाद्य बजाना चाहोगे? मैं सिर्फ उन सब को देखता रहा। घर में संगीत का वातावरण नही था ऐसा कुछ नही, लेकिन कुछ एक दो वाद्य ही पहचान पाया, फिर भी ड्रम बजाने के लिए मैं आतुर हो गया। तो कमसे कम एक महिने के प्रॅक्टिस के बाद कुछ बिट्स बजा पाओगे तब तक तुम मारॅकस बजाना ऐसा कहते हुए उन्होने एक बडा लंब आकार का वाद्य मेरे हाथ में थमा दिया, बच्चों का खिलोना कैसे बजता है वैसे बजता था। यह कठीन तो नही लग रहा था। उन्होने कहा बिट्स गिनकर उस पर ताल पकडना है, केवल आठ दिन में तुम उतना तो सीख ही पाओगे। फिर आधा घंटा उसे कैसे पकडना है, कब, कहाँ जोर लगाना है, लय कहा छोडनी पकडनी है ड्रमस्टीक कैसे पकडनी है, आवाज एकदम जोर से आनी चाहिये यह सब बाते बताकर मुझसे प्रॅक्टिस करवा ली। छोटे बच्चों को कैसे समझाते है वैसे उन्होने समझाया। आखिर में सब वादयों का मेल शुरू हुआ। नौं लोग अलग-अलग इन्स्ट्रुमेंट बजाने लगे ओैर संथाळसर हाँथ हिलाते उनको मार्गदर्शन करने लगे। सर्कस शुरू होने से पहले जो पीच बजाना होता था उसकी प्रॅक्टिस के बाद सेशन खतम हुआ। अब पहचान तो सब लोगों से पहले से ही हो गई थी। हम दो-चार लोग गप्पे लढाते रसोईघर के तरफ बढे।

     फिलहाल स्टेज के खेल ना होने के कारण मेकप का कोई सवाल ही नही था। खाना खाने के बाद मैं तो सीधा जॉनभाई के यहाँ चला गया। उनका ताफा वही था। चंदूभैय्या, उसे मदद करनेवाले दो लोग, मौत का कुवाँ खेलनेवाला मार्कोस, विभास, नंदू, सब अभी तो मित्र बन गए थे। जॉनभाई मेरे पीठ पर हाथ डालकर अंदर ले गए। एक कोने में टेबल पर फल, चॉकलेट्स, केक, कोल्ड्रिंक, वेफर्स रखे हुए थे।

     “ श्रवण, अपना काम मेहनत का काम है, भुख जादा लग जाती है, इस वजह से काम करने के बाद जो पसंद आए वह लेकर खाना। अब काम का स्वरूप बताता हूँ। सर्कस खेल के जो साइकिल है उनके ब्रेक चेक करना, ऑईलिंग करना, पंक्चर निकालना, चेन दुरुस्ती, जानवरों के पिंजरे में नीचे से चाक होते है उनको ऑईलिंग करना, नही तो पिंजरा हिलाने में बहोत तकलीफ हो जाती है। मौत का कुवाँ की मोटर साइकिल खेल के पहले अच्छे से चेक करनी पडती है। उसमें कोई भी कमी रही तो समझो मृत्यु को आमंत्रित किया। जीप उड्डान खेल के वक्त भी उसे चेक करना जरूरी है। खेल के वक्त खिलाडी को पहनावा पहेनाने के लिए भी मदद करनी पडती है। ऐसे कई काम शुरू रहते है। अपने लिए जो भी सामान लगता है वह खत्म हो रहा है क्या? वह देखकर उसकी लिस्ट बनाना यह भी देखना जरूरी है।” मैं केक खाते-खाते सब सुन रहा था ओैर गर्दन हिला रहा था। जॉनभाई मेरे जिगरी दोस्त बन गए थे तो कोई औपचारीकता दिखाने की जरूरत नही पडी। धीरज ने एक बात बताकर रखी थी की सिर्फ अपना काम ध्यान से करना जॉनभाई को कोई ठीक से काम ना करे यह बात बिलकुल पसंद नही है। काम करते वक्त उनके अनुभव, दुनिया की अनोखी चीजे, रहस्य, इनके बारें में वह बात करते रहते है। बहुत नया ग्यान वहाँ बटोरने मिलता है। अब क्या करना है ऐसे पुछ्ने पर जॉनभाई को अच्छा लगा, पहले साइकिल की घंटियाँ चेक करने के लिए कहा। उनकी आवाज एकदम साफ आनी चाहिए, घंटी बजाते साइकिलस्वार खेल करने निकलते है तब प्रेक्षकों का मन पहले उसी आवाज की तरफ जाता है। फिर एक-एक साइकिल की घंटी देखना शुरू किया। किसी घंटी से ठीक आवाज नही आयी तो जॉनभाई उसे खोलकर अंदर का पार्ट ठीक करते थे। मैं वह सब बारिकी से देख रहा था। चंदूभैय्या बोले

“ श्रव्या, साइकिल की घंटी इस तरह से देख रहा है तो जीप, मोटरसाइकिल के इंजिन के पार्ट किस तरह देखेगा?” यह सुनकर सब हँसने लगे, हँसा नही वह सिर्फ मार्कोस. अभी तक उसे हँसते, सब से बात करते हुए नही देखा था। सब अपने-अपने काम में लग गए। काम करते वक्त बार-बार मेरा ध्यान मार्कोस की तरफ ही जा रहा था। उसकी उदासी भरी नजर चुभ रही थी। मेरा ध्यान मार्कोस की तरफ लगा है यह चंदूभैय्या के ध्यान में आ गया, अपना काम लेकर मेरे पास बैठा ओैर कहा “ श्रव्या, मर्कोस के ध्यान में अगर ये बात आ गई की तू उसे निहार रहा है तो वह कुछ भी करेगा। एकदम डेंजर आदमी है वह।”

    “ क्युं? क्या हो गया?”

   “  कोई तो बता रहा था, मार्कोस ऑटोमोबाईल इंजिनीअर है। दुसरे देश में काम करता था। वहाँ अच्छा खासा चलने के बाद भारत में आकर शादी की ओैर अपने बिबी को लेकर चला गया। अच्छी नौकरी, पैसा, सुंदर बिबी, शादी के नये-नये दिन सब बढिया चल रहा था। एक दिन किसी फ्रेंड ने पार्टी पर बुलाया, वहाँ पहुंचने पर बिबी बाकी औरतों के साथ गपशप करने लगी ओैर मार्कोस आदमी लोगों में एन्जॉय कर रहा था। निकलने का वक्त हो गया तो वह उसे ढुंढने लगा। कही दिखी नही तो अपने फ्रेंड को कहा शायद मेरी बिबी अंदर होगी क्या तुम उसे बुलाओगे? तो फ्रेंड बोला तुम कहाँ अपने बिबी को लेकर आए थे? कुछ क्षण तो मार्कोस को समझ ही नही आया की वह क्या कह रहा है? दोनों को बुलाया था तो हम दोनों भी आ गए। वह बार-बार बात दोहराता रहा ओैर उसका फ्रेंड इसी बात पर अडा रहा की मार्कोस अपने बिबी को लेकर आया ही नही। फ्रेंड के रिश्तेदार, बाकी लोग भी इसी बात पर अडे रहे। कोई अपना साथ नही दे रहा यह बात ध्यान में आते ही उसके पैरोंतले की जमीन खिसक गई। परदेस में कोई उसकी बात सुनने के लिए भी तैयार नही था। पुलिस कंप्लेंट करके भी कुछ फायदा नही हुआ। पार्टी में, घर के अंदर से उसे किसने गायब किया आजतक किसी को कुछ पता नही चला। इस सदमें से मार्कोस पागल हो गया। उसके पिताजी उसे  वापिस भारत लेकर आ गए। कितने साल सायकियास्ट्रिक ट्रीटमेंट शुरू थी उसके उपर। धीरे-धीरे आत्महत्या के बारे में सोचते वैसे प्रयास करने लगा। स्टंट करते हुए मर भी सकते है ओैर कोई आत्महत्या की ऐसे बोल भी नही सकता इस बात को जानकर मोटरसाइकिल के स्टंट करना शुरू किया। ऐसे खेलों में उसके सिर पर एक आवेश सवार हो जाता है ओैर वह कुछ देर अपना मानसिक दर्द भुल जाता है। खेल के समय तू एकबार उसे नजदिक से देख ले। पैसे की कमी नही उसके पास, लेकिन जलते मन को भुलने के लिए उटपटांग चीजे करता रहता है।” बापरे, ये कैसी दुनिया है? क्या जगत है? इतनी बुरी है दुनिया? मेरे शरीर पर तो रोंगटे खडे हो गए। दुनिया में सब लोग खुशहाल रहे, भगवान किसी को दुःख ना दे ऐसे माँ हमेशा प्रार्थना करती थी, वह क्युं करती थी यह बात अब समझ में आ रही थी।

     “ श्रव्या, मैं तो छोटा आदमी हूँ। ना पैसा ना पढाई, गाँव में आठवी तक पढाई की फिर एक आदमी के साथ शहर में आ गया। काम ढुंढ रहा था तब एक गॅरेजवाले ने काम पर रख लिया। खाना-पीना, रहना, कपडा सब वही करता था। जी जान से काम करता था गॅरेज में, कुछ दिनों बाद अकेले गॅरेज संभालने लायक हो गया, मालिक भी मुझपर जान चिडकता था। गाव में माँ-बहन, भाई है, सब अपना-अपना कमाकर खाते है, चैन की निंद सोते है। किसी को अधिक की लालसा नही है। माँ कहती है अधिक की लालसा करोगे तो दुःख भी अधिक झेलने पडेंगे, जो है उसी में खुश रहो। एक बार अरुणसर अपनी बिगडी हुई गाडी लेकर हमारे गॅरेज में आ गए ओैर मेरे काम के प्रति लगन, निष्ठा, उत्साह देखकर प्रभावित होकर मुझे सर्कस में गॅरेज के काम के लिए ऑफर दी। पहले तो जोर-जोरसे हँसने लगा की मैं जोकर थोडी ही हूँ सर्कस में काम करने के लिए। फिर अरुणसर ने सर्कस की दुनिया मेरे सामने खोल दी। अंदर कितने विभाग काम करते है यह विस्तृत से बताया। फिर दिमाग में सारी बात आ गई। अरुणसर ने यहा के वेतन के बारे में पुछकर यहाँसे अच्छा वेतन देने का वादा किया ओैर अपना कार्ड मेरे हाथ में थमाकर कहा कभी आने का सोचोगे तो मेरे ऑफिस में आकर मिलना। फिर क्या था वही बात दिमाग में चलने लगी, सपने देखने लगा। अलग-अलग गाँव घुमने मिलेंगे, सुंदर लडकिया सर्कस में रहती है तो एक के साथ शादी बनाऊँगा। एक दिन उठा मालिक को बोला काम छोड रहा हूँ। मुझे ओैर उनको भी छोडने का दुःख हो रहा था। चार पैसे जादा मिलेंगे इसलिए उनको छोडने का मन तो नही कर रहा था, लेकिन उन्होने भी जगरहाटी देखी थी। चार अलग-अलग तरह के व्यवसाय वह भी संभाल रहे थे, आते-जाते लोगों को वह भी देखते रहते थे। मेरा वेतन देकर उपर से अलग बक्षिसी भी दी। कभी कुछ जरूरत पडी तो निःसंकोच कहना, जब चाहे काम पर भी आ सकते हो। मिलते रहना ऐसा कहते मुझे विदा किया। कही गुस्सा नही, झगडा नही शांती में बाहर का रास्ता नापा, अच्छा लगा, वरना अब क्या होगा? मालिक कैसे बात करेगा? मुझे छोडेगा की नही? इस बात का टेंशन ही था? उनका आशिर्वाद लेकर मैं गाँव गया। माँ-भाई को सब बाते बतायी, हमारे घर में खुद का निर्णय खुद लिया जाता है तो कोई मना करने का सवाल ही नही था, लेकिन माँ को लग रहा था ऐसा भटकता जीवन कब तक चलेगा? उसे समझाया, कमाकर लाऊँगा ओैर एक खेती का तुकडा खरीदुँगा फिर हम सब साथ रहेंगे। मालिक से जो बक्षिसी मिली थी वह उसे सोंप दी, बॅग भरकर सीधा अरुणसर के ऑफिस में आ गया ओैर कहा, पहचानते है ना सर? आपके खातिर नौकरी, घर-बार छोड कर आ गया हूँ, अब बोलो। यह सुनकर अरुणसर हँसने लगे ओैर अच्छा वेतन देकर मुझे काम पर रख लिया।”

       चंदूभैय्या की नौटंकी सुनकर मैं भी हँसने लगा। गाँव का सीधा-साधा लडका, हाथ के उपर पेट, जीवन से बढ-चढकर अपेक्षा नही सुखी आदमी लगा।

      “ कैसा है श्रव्या, जितना बडा सपना उतनी बडी जिम्मेदारी, ताण-तनाव, आशा-निराशा के तुफान, अगर उन तुफानों के अंदर जाना ही है तो मन, पूरी तरह से तैयार रखकर जाना ओैर फिर एक दीपस्तंभ बनकर उन तुफानों की लपेटे झेलना, दुनिया अपने मुठी में कर लेना।” सीधा लगनेवाला चंदूभैय्या तात्विक बात बोल गया। कुछ क्षण ऐसा लगा वह मेरी ही बात कर रहा है।

      “ चंदूभैय्या, फिर कोई मिली की नही यहाँ सुंदर लडकी?”

      वह शरमाकर बोला “ अरे यहाँ तो सब लडकियो ने मुझे तो भाई ही बना दिया, कितने दिन तो एक भी हाथ नही आ रही थी लेकिन अब आ गई है, रसोईघर में चंपा काम करती है ना उसके साथ शादी करूंगा। वह भी तैयार है, ओैर अरुणसर को भी इस बारे में पता है उन्होने भी हाँ कह दी ओैर कहा है जल्दी ही तुम दोनों की शादी करा देंगे।” यह सुनकर मैंने उसके पीठपर एक गुद्दा लगाया ओैर चिढाने लगा। कोने में चल रही हमारी मस्ती देख मार्कोस अजीब नजर से देखने लगा, कुछ क्षण ऐसा लगा की शायद उसे भी ऐसी मस्ती करना पसंद होगा लेकिन भुतकाल ने मानो उसके पंख ही काट डाले थे। दुःख से फडफडाते जीना यही अब उसका जीना था।

      दिन गुजरने लगे, धीरे-धीरे मारॅकस बजाने आने लगा। बॅन्ड पर ताल से ड्रमस्टिक पडने लगी। गॅरेज में पार्ट को कैसे खोलना, जोडना अब जान गया। बाकी मित्र परिवार तो था ही, चंदूभैय्या से जिगरी दोस्ती हो गई। उसकी गाँव की बोली सुनकर मजा आता था। रात का खाना खाने के बाद मैं, जॉनभाई, धीरज दुर तक घुमने जाया करते थे। जीवन के बारें में बताते, पढाई पर ध्यान देते थे। पढाई पर नेनेचाचाजी तो नजर रखते ही थे उसपर जॉनभाई भी आ गए। डबल धमाका की वजह से मैं ओैर धीरज जी जान से पढाई करने लगे, नही तो दोनो तरफ से डाँट पडती थी। मेरे साथ सुबह उठकर पढाई करने की आदत उसने भी लगा ली। चार बजे उठकर मुनी दादाजी के पास जाता ओैर ध्यान करता था। वह कहते पहले ध्यान करने की आदत तुम्हे लगानी पडेगी, एक बार वह आ गया फिर ध्यान ही तुम्हारे पिछे लग जाता है। धीरे-धीरे एकाग्रता कैसे बढानी है? पाँव हिलाए बिना कैसे बैठना है? यह अब सीख गया था। एक बार बैठ गए तो एक घंटा शरीर हिलाए बिना बैठ पा रहा था। अब उसमें मुझे मजा आने लगा, बंद आँखों के सामने रंग दिखने लगे। एक अलग दुनिया अब प्रकट होने लगी। अंतरंगी दुनिया। बाह्य जग का कोई भी आभास वहां नही था। अविरत शांती का झरना अंदर से फुटने लगा। अमृतबेला के ध्यान की वजह से मेरे चेहरे पर तेज खिलने लगा। मुनी दादाजी मेरे ध्यान की प्रक्रिया के उपर बहोत ही खुश थे। वह कहते जब मैं भगवान के घर जाऊँगा तो मेरा शिष्य तैयार हो रहा है इस विचार से जाऊँगा, पर देखते है क्या होता है? यह बात धीरज ओैर अरुणसर को पता थी, पर ध्यान की वजह से मेरे व्यक्तित्व में जो बदलाव आया था, जो शांती आई थी उसकी ओैर सब खिंचने लगे, लोग मेरे आस-पास रहना पसंद करने लगे। मार्कोस भी काम करते हुए मेरे इर्द-गिर्द रहता था।

एक बार मुनी दादाजी को मार्कोस के बारे में पुछा तब उन्होने कहा “ श्रवण, भोग भोगकर ही खतम करने पडते है, वरना उसे भोगने के लिए फिरसे जनम लेना पडता है। ऐसी बात नही है की किसी को उसके हाल पर छोड देना है, उसकी मदद तो करनी है बाकी खुद के उपर है। तुम थोडी बातचीत करते जाना उसके साथ। जीवनभर का बडा घाव है उसके मन पर। अब वह कभी शादी भी नही कर पाएगा। किसी के साथ मित्रता करना भी मुश्किल है क्युं की विश्वासघात किया हुआ मित्र उसे पहले याद आएगा। बच्चों के साथ वह घुल-मिल जाता है। मेरे यहाँ भी अच्छा महसुस करता है, ध्यान करता है। अरुण को बडा भाई समझता है। जॉन तो उसका सर्वस्व है, वह भी बहुत संभाल लेता है। तुम्हे लगता है वैसे मर्कोस एकाकी नही है, जानवरों के साथ उसकी बहुत बनती है। अब वह स्वीकार करने लगा है की जीवन में बहुत दुःख-दर्द है उसमें मेरा भी एक। तुम उसके पास जाने का प्रयास करो।” मैने हाँ तो कर दी लेकिन अभी भी उसके पास जाने की राह नही मिल रही थी।

       जल्द ही हमारा ठिकाना बदल गया। भोपाल में अब सर्कस लगनेवाली थी। पिछले बार जैसे ही सामान पॅकिंग की धुम मच गई थी। गपशप, खाना-पीना, गाना बजाना, चिल्लम-चिल्ली, चारों तरफ कोलाहल। ऐसे माहोल में मुनी दादाजी अपने गाँव जाकर रहते थे ओैर जब दुसरे शहर में सर्कस का बस्तान बस जाता है, तब आकर किसी की दृष्टी सहजता से ना पडे ऐसे जगह अपना तंबू खडा कर देते। मैं ओैर धीरज खुश थे, इस बार हम जॉनभाई के साथ जीप में सफर करनेवाले थे। मार्कोस अपनी मोटरसाइकिल से आनेवाला था। संथाळसर ने भी उनके मॅटेडोर में आने के लिए नेवता दिया था, सब कलाकार उसी से जानेवाले थे। जॉनभाई ने मुझे सामान की देखभाल के लिए दो लोग चाहिए ऐसे कहते हुए मेरी बाजू सँभाल ली, नही तो एक को हाँ करना मतलब दुसरे को गुस्सा दिलाने जैसा था। किसी के दिल को ठेच पहुंच जाय यह मैं कभी नही चाहता था।

       इस शहर को छोडते वक्त थोडा बुरा लगा। बहुत मजे किए थे यहाँपर। रात-रात भर घुमे, किसी हॉटल में जाकर जॉनभाई ने क्या, क्या खिलाया-पिलाया, एक बार तो पुनम का चाँद देखने रात को भेडाघाट लेकर गए। उनका कहना था कि जीवन में कुछ खतरे मोल लेते हुए निसर्ग का आनंद लेने निकलना चाहिए, सृष्टी तुम्हे ऐसे अद्भुत नजारे दिखाएगी की तुम उसकी कल्पना भी नही कर सकते। जब भेडाघाट के लिए हम निकले तब चाँदनीओं की बारात भी हमारे साथ थी, लेकिन ऐसे अंधेरे में उस जलप्रपात तक कैसे पहुँचेंगे यह तो समझ नही आ रहा था। नर्मदा नदी में पानी भी बहुत था। जॉनभाई ने अपने पहचान से एक गाईड की व्यवस्था की थी। वह एक जगह पर हमारी राह देखते खडा था। मुझे थोडा डरा हुआ देखकर जॉनभाई ने कहा “ श्रवण, ऐसी रात में हम जलप्रपात की ओर नही जाएँगे लेकिन एक पॉइंट से वह जलप्रपात देख सकते है वहाँ से देखेंगे। हम सब भिक्या गाईड के पीछे चलने लगे, टॉर्च के उजाले में नीचे देखकर ही चलना पड रहा था। धीरे-धीरे पानी के गिरने की आवाज सुनाई देने लगी, थोडी ही देर में उसका रूपांतरण तीव्र ध्वनी में बदल गया। आगे जाने के बाद भिक्या ने एक दिशा में अपने हाथ से इशारा किया तो हम सब उस ओर देखने लगे। रात के घने अंधेरे में शुभ्र-सफेद, घन-गंभीर नाद करता हुआ वह प्रचंड जलप्रपात देखकर हम तो दंग रह गए। पुनम का चाँद आसमान में अपने तेजस्विता से विहार कर रहा था। उसकी किरणों की वजह से अलग-अलग रंगों के संगेमरमर चमक उठे थे। नीरव शांतता में हम जो नजारा देख रहे थे वह केवल अद्भुत था, मानवहीन तरंगों से भरा समा, जैसे स्वर्ग का आभास निर्माण कर रहा था। कितनी देर खडे रहे, वहाँ से जाने का मन ही नही कर रहा था, लेकिन आखिर में भारी मन से उस दृश्य को ओझल करते हुए वहाँ से निकल गए। गाडी में कोई किसी से बात करने के मूड में नही था, जो एक अलग दुनिया को महसुस किया था उसी में सब गुम हो गए थे। वापिस आने के बाद सो तो गए लेकिन ऐसा लग रहा था वही जलप्रपात में कही खोए हुए है।

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