सर्कस - 10 Madhavi Marathe द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सर्कस - 10

                                                                                         सर्कस:१०

 

      हम लडकों ने पहले ही तय किया था कि अरुण सर जहाँ बैठेंगे उन्ही के अगल-बगल की सीट पकडेंगे। हमारे ग्रुप में अब लडकियाँ भी शामिल हो गई थी। उस वजह से सफर का रंग कुछ ओैर ही हो गया। धीरज ने बताया सफर में अरुण सर बहोत नई-नई बाते, कहाँनिया, मजेदार किस्से बताते है। सब सामान, लोग, अपनी-अपनी जगह पर ठीक से बैठ गए है यह देखने के बाद अरुण सर हमारे यहाँ बैठने के लिए आ गए। दो दिन की

भागा-दौडी, सुबह से सफर के लिए निकलना है तो वह गडबड, अब सब खत्म हो गया था। शांती से थोडी देर बैठने के बाद अरुण सर ने सबके लिए चाय मँगायी, बिना कुछ बोले चाय का लुफ्त उठाने के बाद गपशप चालू हो गई।

        पहले तो गाने, कहानियाँ, जोक्स इनका सिलसिला चलता रहा, फिर अरुण सर ने कहा “ आज मैं तुम्हे सर्कस का इतिहास बताने वाला हूँ। हर व्यक्ती को जीवन में हमेशा नाविन्यपूर्ण चीजे करने में मजा आता है। वही करते-करते नए खोज के निर्माण हो गए। जीवनमान के दायरे उन नये आविष्कार ने बदल दिए। रहन-सहन में बदलाव आने लगे। मनोरंजन की दुनिया में राजा-महाराजों की बदौलत से कलाकारों को उत्तेजन, पैसा मिलने लगा। इंग्लंड में फिलिप अस्टलेया नामक एक मेजर थे, घुडसवारी करते-करते अब वह कसरत भी करने लगे। घोडे पर गोल चक्कर लगाते हुए भी अपना समतोल बनाए रख सकते है यह बात उनके ध्यान में आ गई। फिर उन्होंने अलग-अलग कलाकार, बॅन्डवादक, कसरतपटू ऐसे लोगों को एकत्रित किया ओैर पहिली सर्कस निर्माण हो गया। सर्कस यह शब्दप्रयोग इ. स. १७८२ में प्रथम इस्तमाल हुआ। फिलिप अस्टले के घर के पास अश्वविद्या में पारंगत चार्ल्स ल्युजेस इस कलाकार ने बाद में खुद के शो का निर्माण किया ओैर उसका नाम रखा ‘रॉयल सर्कस’। १७९२ में जॉन बिल रिकेटस्ट ने अमेरिका के फिलाडेल्फिया ओैर न्युयॉर्क में सर्कस शुरू की। इंग्लंड में जब वह रहता था तब घोडे के कसरत में उसने नाम कमाया। बेबिटो गौरे यह स्पेन का रहवासी घुडसवारी के कसरत में बडा माहीर था तो स्पेन में उसने सर्कस शुरू की। १८ के शतक के आखरी तक युरोप, अमेरिका में सर्कस अच्छी तरह से मशहूर हो गई। शुरू-शुरू थिएटर में सर्कस के खेल होते थे, लेकिन आग की लपेटों के कारण बहुत भारी नुकसान हो जाता था। खुद फिलिप अस्टल का अम्फिथेटर ६२ बरसों में तीन बार आग से जलकर भस्म हो गया। ऐसी घटनाए होने के बाद भी सर्कस के खेल बंद नही हुए। एक पिढी से दुसरे पिढी को हस्तांतरित होती रही। खुद के बच्चे, रिश्तेदारों को सर्कस की कला, कसरत को अवगत कराया जाता था। वही बच्चे बडे होकर अपना वारसा आगे चलाते रहे। अनेक परिवार इसमें शामिल थे। सर्कस फॅमिली के नाम से वह जाने जाते। बर्नूम अँड बेली सर्कस के मालिक जेम्स अँथोनी बेली इन्होने सर्कस जगत में अपना दरारा कायम रखा था. बचपन से स्थानिय सर्कस में वह काम करते थे। बाद में जेम्स इ कुपर सर्कस के भागीदार बन गए। आगे चलकर ‘ग्रेट इंटरनॅशनल सर्कस’ के नाम से जगद्विख्यात हो गई ओैर बाकी सर्कसों से वह स्पर्धा करने लगी। इ. स. १८८९ में दो सर्कस आपस में मिल गई ओैर बर्नूम अँड बेली सर्कस नाम से जानने लगी. अमेरिका में उसी समय अपना वर्चस्व स्थापित कर रहे थे ‘रिंगलींग ब्रदर’ वह पाँच भाई चार्ल्स, अझर्ट, ओर्टो, अक्वेड, ओैर जॉन इन्होने संगीत, नृत्य, विनोद सर्कस में  शामिल किए। इ. स.१८८८ में पहली बार हाथी को सर्कस में शामिल किया गया। चार्ल्स रिंगलींग के कौशल्य वादातीत थे। अनेक छोटी-बडी सर्कस उन्होंने अपने सर्कस में शामिल की। बेली के निधन के बाद बर्नूम सर्कस भी इसी ने खरीद ली। चार्ल्स रिंगलींग के निधन के बाद जॉन रिंगलींग ने कार्यभार संभाला। एक समय में दस हजार प्रेक्षक खेल देख सकेंगे इतना बडा तंबू बनाया गया था। उसके बाद ‘फ्लेड एंटरटेनमेंट’ इस बलाढ्य कंपनी ने यह सर्कस खरीद ली। अमेरिका के फ्लोरिडा स्थित सारा सोटा गाव में रिंगलींग म्युझियम बडे शान से बनाया गया। सर्कस की प्रसिद्धी के लिए गाँव-गाँव में प्राणी ओैर कलाकारों के बॅन्डबाजा के साथ पथदर्शन होते थे।

      पहले महायुद्ध के बाद जागतिक मंदी में सर्कस उद्योग संकट में आ गया। रिंगलींग सर्कस भी अपवाद नही थी तो परिणामत: बेकार लोगों के लिए अमेरिकन सरकार को सर्कस की पुनर्बांधनी करनी पडी। १९४४ में फिर से रिंगलींग सर्कस को आग लग गई। उसमें १६८ लोगों की मृत्यु हो गई ओैर सेंकडो घायल हो गए। एक ओर टीव्ही का आगमन, सिनेसृष्टी का प्रभाव बढता गया तो सर्कस उद्योग फिरसे खतरे में आ गया। १९६० में फिर से सर्कस के अच्छे दिन आ गए। सोव्हिएत युनियन ने सर्कस को क्रीडा दर्जा देकर प्रोत्साहित किया। मॉस्को सर्कस के सहायता से रशिया में पहली बार सर्कस स्कूल शुरू हुई। फ्रांस में सर्कस कलाकरों के लिए व्यावसायिक स्कूल शुरू की। अमेरिका के अपल सर्कसने भी क्राऊन कॉलेज शुरू किया। प्रिन्स रैनीवर ने मोटे कार्लो यहाँ वार्षिक सर्कस महोत्सव शुरू किया। रशियन सर्कस में तीन गोलाकार रिंगण शुरू किए। यही से प्रेक्षकवर्ग बढता ही गया। फिर तंबू का आकार भी बढने लगा। आयझॅक ए. व्हॅन अंम्बुरध इन्होने वन्य जानवरों का सर्कस मे प्रथम इस्तमाल किया। शेर के मुँह में अपना सर रखते हुए वह खेल दिखाते थे। तालियों की गुंज लेनेवाला वह पहिला सर्कसपटू था। बाघ, शेर, हाथी, भालू अब सर्कस के मुख्य आकर्षण रहने लगे। २० के शतक में जो तांत्रिक क्षेत्र में प्रगती हुई उसके कारण कलाकार के कसरत, जानवरों के खेल के साथ, आकर्षक विद्युत योजना, संगीत, बॅन्ड, स्कॅनर्स, कलर स्पॉट इनका भी बखुबी से इस्तमाल होने लगा। फिर भी उतार-चढाव चलते रहे।

      भारतीय सर्कस का जनम अलग परिणामों से हुआ। भारतीय सर्कस के जनक विष्णुपंत छत्रे, जमखिंडीकर पटवर्धन संस्थान में घुडसवारी करने सीख गए थे। रामदुर्ग संस्थान के चीफ साहेब श्रीमंत भावे इनके आश्रय से चाबुकस्वार के काम पर बाद में छत्रेजी को काम मिला। घुडसवारी के कसरत में उन्होंने बहुत नाम कमाया। १८८१ में बंबई के बोरीबंदर जगह पर चर्नी विल्सन इस इंग्रज कलाकार की ‘हर्मिस्टन सर्कस’ शुरू थी। भारत में आयी हुई पहली सर्कस। जव्हार ओैर कुरूंदवाड के संस्थानिक अपने परिवार के साथ लंबा सफर तय करते हुए सर्कस देखने बंबई पहुँचे। उनके साथ विष्णुपंत छत्रे भी थे। सर्कस के खेल खत्म होने के बाद जो बातचीत हुई तब चर्नी विल्सन कुछ घमेंड से बोले घुडसवारी यह हमारे खेल की खासियत है। कोई भी भारतीय व्यक्ती यह कर नही सकता। यह सुनकर विष्णुपंत छत्रेजी के मन को बात चुभ गई। भारत देश के व्यक्तित्व के अपमान से उनका देशप्रति अभिमान जाग उठा। उन्होंने युवावर्ग, तेजदार अश्व लेकर कुरूंदवाड में सर्कस की तालीम शुरू की ओैर केवल आठ महिने में पहली भारतीय सर्कस चालू की। १८८२ में दशहरे के मुहूर्त पर ‘ग्रँड इंडियन सर्कस’ बंबई के क्रॉस मैदान पर शुरू हो गई। बंबई में चर्नी विल्सन की सर्कस शुरू ही थी, फिर भी छत्रेजी की ‘ग्रँड इंडियन सर्कस’ को तुफान शोहरत हासिल हुई। बाद में विल्सन की सर्कस बंद पड गई। हर्मिस्टन सर्कस का तंबू, बाकी सब सामान छत्रेजी ने खरीद लिया। उस सर्कस में जो परदेसी कलाकार थे, उनको भी अपने सर्कस में शामिल कर लिया। कोई भी परदेसी अनुकरण के बिना अपनी स्वतंत्र भारतीय सर्कस अभिमान से वहाँ खेल के प्रदर्शन कर रही थी। इस सर्कस के एक खेल में, एक युवती भारतमाता बनकर रथ में बैठकर आ जाती, वह रथ दो शेर खिंचके लेकर आते थे ओैर एक हाँथी उस भारतमाता के गले में फुलों का हार डालता था। यह भावपुर्ण दृश्य सब के मन को छु जाता था। कुछ सालों बाद विष्णुपंतजी ने अपने बंधु काशीनाथ पंत इनके हाथ सर्कस का कारोबार सोंप दिया ओैर वे देशाटन करने चले गए। बाद में बहुत नई सर्कसे आयी ओैर चली गई। उसमें शेलार सर्कस के दामू धोत्रेजी के खेल बहुत प्रसिद्ध हो गए। हिंस्त्र जानवरों को काम सिखाना, करवा लेना यह उनकी खासियत थी। सायकल के उड्डाण प्रयोग उन्हीने पहली बार किए। दामू धोत्रेजी का जीवनचरित्र भी बहुत लोगों ने पसंद किया।”            

      खाना आ गया ओैर सब की तंद्रा भंग हो गई। खाना खाते वक्त हमे महसुस हो रहा था कि कितने बडे क्षेत्र के हम वारिस है। खाना खाने के बाद अरुण सर फिरसे बताने लगे

“ दुनियाभर में सर्कस जगत, लोगों कों लुभाता रहा। रशिया की सर्कसशाला तो बहुत ही प्रसिद्ध है। उस हिसाब से देखा जाय तो भारत में सर्कस को एक करिअर की तरह देखा नही है। अपना हुनर दिखाने कही ओैर जगह नही मिली तो वह लोग सर्कस का आसरा ले लेते है। गरीब लोग कुछ भी करने के लिए तयार होते है तो मेहनत भी करते है, नया हुनर भी सिख जाते है। यहाँ हमेशा नया सोचते रहना, करतब, सृजनशीलता, लोगों के साथ मिलजुल कर रहना यह चीजे बहुत मायने रखती है। सांघिक जीवन जीना यह एक कला है, सब से प्यार करना यह एक तजुरबा है। हम जो कर रहे है वह काम निष्ठापूर्वक करना चाहिए। ध्येय रखने चाहिए। चलो अब सोते है। थोडा आराम सब कर लो। फिर कभी कुछ बातें सुनाऊंगा।”

     लगभग आधा सफर खतम हो गया था। सब अपने-अपने जगह पर लौट गए। किसी को आपस में बात करने की इच्छा नही थी। जलदी ही नींद ने अपने आगोश में ले लिया। थोडी देर सोने के बात कुछ आराम महसुस हुआ। खिडकी से बाहर देखते-देखते मन के  विचार दैाडने लगे। सर्कस के पिछे कितना बडा इतिहास, परंपरा है। मुझमें तो कोई वादनकला, जिम्नॅस्टिक या कोई भी करतब नही है। मेरे घर का कोई व्यक्ती भी इस क्षेत्र से परिचित नही है तो मैं कैसे इस क्षेत्र की ओर बढ गया ? इन आठ दिनों में अलग-अलग विभागों के बारे में थोडा बहुत पता चल गया था। अब कौनसे विभाग में काम करना है यह मुझे तय करना था। वैसे तो कोई भी विभाग में काम करने में मुझे कुछ आपत्ति नही थी, फिर भी मेकप के काम में मजा आ रहा था। पहले वो ही विभाग काम के लिए सिलेक्ट करते है। पाठशाला में वह जादा पसंद आता था। ऐसेही विचार चलते रहे। थोडी देर में एक-एक करते लोग उठने लगे। फिरसे बातों में रंग चढने लगा। अपना स्टेशन नजदिक आ रहा है ऐसी सुचना आने के बाद सब अपना सामान इकठ्ठा करने लगे। रात हो रही थी। पाठशाला को छुट्टीया होने के कारण दो दिन रहने की व्यवस्था वही पर की थी। स्टेशन से पाठशाला जाते वक्त पुरा शहर दर्शन हो रहा था। बडे-बडे दुकान, अनेक माली बिल्डिंग, भीड, मकान देखते-देखते हम पाठशाला पहुँच गए। रात का खाना हॉटेल से आया, खाना खाकर थके-हारे हम लोग जल्दी ही सो गए।

     सुबह उठने के बाद धीरज ने कहा “ आज अपना ट्रीप का दिन है। सर्कस के खेल खत्म होने तक सिर्फ काम ओैर काम ही करना पडता है इसलिए पहले ही दिन अरुण सर एक ट्रीप रख देते है ओैर उस गाँव की खासियत दिखा लाते है। फिर एक दिन पुरा आराम। परसों से काम शुरू।” यह तो बहुत अच्छी बात थी। काम भी हो गया ओैर देशाटन भी हो गया। घुमने जाना है इस विचार से सब के मन में उत्साह, उमंग की भावना पुलकित हो गई थी। अच्छे-अच्छे ड्रेस पहनकर, जिनके पास कॅमेरा था, वह कॅमेरा लेकर तैयार हो गए। लडकियाँ मेकप करके अपने ग्रुप में चहक रही थी। बस में बैठकर हम जबलपूर देखने निकल गए। अरुण सर ने बताया जब हम शहर देखने जाते है तब उनका इतिहास, कला, प्रगती सब देखकर हमारा ज्ञान भी बढाना ओैर जब खेल देखने लोग आते है तब खेल में शहर के बारें में बात करते हुए प्रेक्षकवर्ग को भी खुश करना यह दो बाते होती है।

       जल्द ही बस ‘मदन महल’ किले के पास पहुँच गई। राजा मदन सिंह ने ११ वे शताब्दी में उस किले का निर्माण किया था। राजमाता दुर्गारानी के बारे में कुछ कथाएँ भी समाविष्ट थी। अभी तो यह किला खंडहर बन गया था। मुख्य शाही परिवार के कक्ष ओैर युद्ध सामग्री के कक्ष कुछ अंश के रुप में वहाँ खडे थे। खुले मैदान में जोरदार हवाँ से झुँझते वह भग्न अवशेष खडे थे। किसी समय यहाँ एक परिवार बसता था इस कल्पना का अनुभव करते हुए वहाँ से हम निकल गए।

        आगे का ठिकाना था, चौसठ योगिनी मंदिर का। सन १००० के आसपास वालचुरी वंश के शासक ने यह मंदिर बनवाया था। भगवान शिव ओैर पार्वतीमाता विवाह के वेशभूषा में सजकर नंदी पर सवार थी, ओैर उनके बाजू में चौंसठ योगिनी बनाई हुई थी। गोलाकार उनकी रचना थी।   

  भेडघाट का धुवाँधार जलप्रपात ओैर उसके दोनों ओर संगेमरमर की सुंदर, रंगबिरंगी पहाडी उस नजारे का वर्णन करना भी मुश्किल था। इंद्रधनुष्य का खेल नर्मदा नदी के पानी के फवाँरों में दिख रहा था ओैर झरने के उपर भी बडासा इंद्रधनुष्य छाया हुआ था। दिनभर खाना-पीना, मौज-मस्ती करते हम लोग शाम को वापिस आ गए। दो दिन कहाँ ओैर कैसे गए पता ही नही चला। कल हम नाष्टा होने के बाद सर्कस के मैदान पर जाने वाले थे। रात को सब जलदी ही सो गए क्युं की कल से जो काम शुरू हो जाएगा वह इस शहर के खेल खतम होने तक चलता ही रहेगा।

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