सर्कस - 11 Madhavi Marathe द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सर्कस - 11

                                                                                                  सर्कस : ११

 

         सुबह जल्दी ही सब तैयार हो गए। आज सर्कस के मैदान पर जाना था। इस शहर के बडे मैदान पर सर्कस लगनेवाली थी। शहर का कोई रहवासी जादा तर उस मैदान के तरफ जाता नही था, पर खेल प्रतियोगिता, ऑर्केस्ट्रा, मेले लग जाने के बाद उस मैदान में जान आ जाती थी। वहाँ पहुंचने के बाद हमारा काम चालू हो गया। रास्ते से जाने वाले एक-दो लोग हमे देखते, पुछताच के लिए आगे बढ गए ओैर गपशप करने लगे। मैदान के एक तरफ आठ-दस कमरे भी थे। बारिश का मौसम नजदिक था इसलिए ऐसी जगह चुनी थी, जहाँ पक्के कमरे हो। बारिश का पानी तंबू के किसी कोने से नीचे गिर जाता ओैर सामान खराब होने का खतरा मंडराता इसलिए कमरे में जादा सामान रखकर नुकसान कम करना बेहतर था। कभी बारिश, तुफान के कारण खेल भी कम होते है। धंदा भी मंदा होता है। यह सब बाते चिन्या बता रहा था। तभी मेरी नजर जॉनभाई की जीप की तरफ गई ओैर एकदम से याद आया जॉनभाई तो सबके साथ आए ही नही थे, तो धीरज ने बताया वह जीप चलाते हुए आते है। उनको जीप सफर का मजा लेने का बडा शोक है। जब खेल नही रहते तब वह जंगल के तरफ या सुनसान रास्ते, जगह पर घुमने निकल जाते है। अपने सर्कस का जब स्थलांतर होता है तब अरुण सर जॉनभाई के साथ महत्वपूर्ण चीजे, दस्तऐवज जीप में भेज देते है। रेल यात्रा के दौरान वह अपने पास किंमती सामान नही रखते, क्युं की उनके उपर सब लोगों को संभालने की जिम्मेवारी भी रहती है। सब ठीक से आ गए या नही, बैठे है या नही, किसी का सामान पीछे छुटा तो नही यह देखते-देखते उनके तो पसीने छूट जाते है। तब जॉनभाई यह महत्वपूर्ण जिम्मेवारी संभालते है। जॉनभाई के साथ उनके जैसे सफर का मजा लेने वाले दो-चार लोग होते है। यह कल्पना तो मुझे भी भा गई। जॉनभाई से दोस्ती करने का इरादा मैने पक्का कर लिया।

     साथ में लाया हुआ सामान एक कमरे में रखवा दिया, फिर बॉक्स में रख हुआ सामान निकालने का काम शुरू कर दिया। काम करते-करते गपशप तो चलती ही रही। मैने उत्सुकता भरे स्वर में चिनू को पुछा “ कैसे है जॉनभाई, यहाँ कैसे आ गए?”

  “ मेरे हिसाब से वह चार-पाँच साल से यहाँ काम करते है। मुझे ही अब दो साल हो रहे है। एक बार उनसे दोस्ती हो गई तो पुछ मत, एकदम बडे दिलवाला आदमी है। यहाँ आने से पहले ‘इन रेसिंग’ बेंगलोर की कंपनी है, वहां काम करते थे। भारतीय रेसिंग चॅम्पियन्स द्वारा यह कंपनी चलायी जाती थी। देश की पहली रेसिंग ट्रेनिंग सेंटर थी। अब तो बहुत रेसिंग कंपनी आ गई है। जॉनभाई बहुत बडे रेसर थे। दो बार उन्होने इंडियन नॅशनल चॅम्पियनशिप जीती है, ओैर पुरस्कार भी। फॉर्मुला नंबर वन खेलते वक्त उनके कार का बहुत बडा अक्सीडेंट हो गया, केवल सेफ्टी सुट के वजह से वो बच गए। लगभग पुरा साल वह हॉस्पिटल में ही थे। उसमें काफी खर्चा हो गया। दो साल के बाद शारीरिक ओैर मानसिक तबियत थोडी ठीक हो गई। एक समारोह में अरुण सर की जॉनभाई से मुलाकात हो गई। तब अरुण सर ने उनकी बहुत मदद की। उसके छे महिने बाद जॉनभाई ने सर्कस में काम करना शुरू किया। जीप की कसरत का सराव किया ओैर जीप हवा में उडाने का खेल शुरू किया ओैर लोगों को वह बेहद पसंद आ गया। जॉनभाई मतलब अरुण सर का दाँया हाथ है ऐसा समझ ले।

        बातों-बातों में बॉक्स खुलने का काम खतम हो गया। मैदान के बीचो-बीच मुख्य तंबू खडा रहेगा तो उसका आरेखन कर दिया। मैं यह सब देख रहा था। जिसने भी कोई काम बताया वह करता रहा। कोई काम करते-करते गाना गाता तो उसकी आवाज पुरे वातावरण में फैल जाती ओैर हर किसी के मन को तरोताजा कर देती। मुख्य तंबू उभारने में ही जादा समय लग गया। सर्कस के इस तंबू के बीच में एक गोलाकार रिंगण कर दिया, इसका व्यास ४२ फिट से भी बडा हो सकता है, जितनी बडी सर्कस उतना बडा व्यास। घुडसवारी का दौडने का मार्ग, जीप के खेल, जानवरों के संचलन, साइकिल के करतब, एक बाजू में मौत का कुवाँ का पिंजरा, उपर झुले के खेलों की रस्सियाँ, उसके थोडे नीचे संरक्षक जाली, प्रेक्षक ओैर स्टेज के बीच में लोहे की जाली, यह सब एक-एक करते काम खतम होते गए। फिर प्रेक्षक की कुर्सिया, तिकीट दर के हिसाब से नीचे से उपर तक रखी गई। आखरी में सिर्फ बेंच रखे गए। धीरज ने बताया “ अब तो सब पाईप एक दुसरे को जोडे जाते है, नही तो पहले, बांबू एक दुसरे से कसकर बांधने पडते थे। बहोत समय लग जाता था उस काम में। कभी हाथ में कुछ लग गया तो मुश्किल हो जाती थी, कभी खेल के समय बांबू, कमजोर होकर टुट जाते ओैर वहाँ बैठे प्रेक्षक घायल हो जाते थे। कोई कुर्सिया जानबुझ कर खराब कर देते, पर अब यह खतम हो गया। प्लास्टिक की कुर्सियों के कारण काम बहुत आसान हुआ ओैर नुकसान भी कम हो गया। समय के अंतराल में कुछ अच्छा भी हुआ, कुछ बुरा भी।” मैं सिर्फ सुनता गया। देखना, सुनना ओैर ज्ञान प्राप्त करना बस यही काम अभी मेरा था। किसी के बारे में कुछ प्रतिक्रिया देना इसके हित में नही था क्युं कि जिसके बारे में मुझे पता नही उस विषय पर क्या बोलना? अंदर का सब तामजाम तो हो गया। बाहर से मुख्य तंबू के उपर सर्कस के नाम का बडा बॅनर लगाया गया। बॅनर के उपर ओैर तंबू के उपर लाइटींग का काम चालू हो गया। प्रवेशद्वार के दोनों बाजू में खेल के कुछ अंश दिखाने वाले कटाउटस खडे कर दिए, उसके बगल में छोटे स्टेज का निर्माण किया ओैर मोटर सायकल वहाँ रख दी। शो शुरू होने से पहले सज-धज कर दो युवती उसपर बैठकर लोगों को आकर्षित करती है। सामनेवाले एक कोने में तिकीट लेन-देन का छोटा कमरा बनाया गया। उसे लोहे के ग्रील से संरक्षित किया, वहाँ से हजारों रुपयों का व्यवहार चलता था तो उसे सुरक्षित तो बनाना जरूरी था। तंबू में जमिन पर लाल जाजम बिछाकर कुर्सिया लगा दी। अब खेल के तंबू में एकदम जान आ गई। सब के चेहरे खिल गए।

      बारिश का मौसम नजदिक था इसलिए पुरा इंतजाम, पहले से ही अच्छे से कर दिया। इस मौसम में फायदा कम ओैर नुकसान ही जादा रहता था। मैदान के बाजू में कमरे होने के कारण बाकी तंबूओं का निर्माण कम करने वाले थे। रसोईघर, अरुणसर का ऑफिस ओैर कसरत का सामान, बाकी पाँच कमरों में जितने लोग समा सकते है उनकी व्यवस्था की गई। कुछ लोग स्वतंत्र तंबू में रहते थे, वह परिवार थे। तंबू के दुसरी ओर जानवरों के पिंजरे रखे गए, बारिश का पानी उसके अंदर ना जा पाए ऐसी भी व्यवस्था की गई। दो दिन ऐसेही काम चलते रहे, किसी को भी साँस लेने की फुरसत नही थी। खाने का समय गोदाक्का ने सब के लिए रखा था इसलिए थोडा बहुत आराम मिल जाता। देसाईसर ने बताया आज रात अनिल, जमनदास, धीरज सर्कस के होर्डिंग्ज पुरे शहर में लगाने के लिए जानेवाले है तो तुम भी जाना चाहो तो जा सकते हो। जाहिरात पत्रक भी बाँटने है, लगाने है। धीरज साथ में है तो, उसके साथ कही भी जा सकता हूँ। उसके रहते हुए एक सुरक्षितता का अनुभव मैं करता था। काम करने में कुछ कठिणाई नही थी। अभी मैं नया होने के कारण मुझपर किसी ने चिल्लाकर बात करना या गाली गरोच नही की थी, बाकी लडकों, लडकियों को भी इस हालात से गुजरना पड रहा था। धीरज मुझे बहुत संभालता था, ओैर अरुणसर ने भी उसी के साथ रहने की सलाह दी थी उस कारण जहाँ धीरज वहाँ मैं ऐसा चल रहा था। रात को साडे दस बजे, खाना खाने के बाद रिक्षा में बॅनर, सीडी, पत्रक, गोंद, रस्सी यह सब सामान उसमें डालकर हम शहर के तरफ निकल पडे। पहले भी सर्कस इस गाव में आयी थी, इस कारण सबको पता था कि बॅनर, पत्रक कहाँ लगवाने है। अनिल रिक्शा चला रहा था, रात के सन्नाटे में यह काम आसान हो जाता था।

    चाँदनी रात में ठंडी हवा चल रही थी। हम जैसे युवा लोगों को मस्ती सुझने लगी। अनिल एक-एक चौक में रिक्षा रोककर बाजू में खडी कर देता ओैर हम सर्कल के ग्रील को बॅनर बांध देते थे। रास्ते में जहाँ सबकी नजर आसानी से पहुँच सकती है, वहाँ पत्रक चिपका दिए। सबके हाथ चिपचिपा गए थे। काम खतम करते-करते रात का एक बज गया। हम चारों थक चुके थे। अनिल ने कहा चलो, अब तुम सबको लजीज फालूदा खिलात हूँ। थके-हारे फालूदा का नाम सुनते ही खुषी से झुम उठे। लेकिन इतनी रात में कहाँ फालूदा मिलेगा? कौनसा होटल अब खुला होगा? वह केवल हमे सता रहा है ऐसे मानकर रिक्शा में सो गए। दस मिनिट में एक दुकान के सामने उसने रिक्शा रोक दी। लोगों की आवाजें ओैर रोशनी के कारण हमारी नींद खुल गई। अनिल सच में एक होटल में आकर रुका था। खाना खाने वाले दर्दी लोगों की वहाँ भीड लगी थी। अनिल ने कहा “ अरुण सर ने इस जगह का पता मुझे बताकर रखा था ओैर चारों कों फालूदा खाने के लिए पैसे भी देकर रखे है।” यह सुनकर सब खुश हो गए ओैर होटल के अंदर जाकर चार फालूदा की ऑर्डर देते हुए बगीचे में कॉर्नर टेबल पकडकर बैठ गए। कुछ ही देर में वेटर ने चार बडे ग्लास सामने लाकर रख दिए। रंगबिरंगी फालूदा मुँह में जाते ही घुलने लगा। इतनी भागा-दौडी करने के बाद का यह मीठा क्षण दिल-दिमाग को तरोताजा कर गया।

     सुबह जलदी उठने की जरूरत नही है ऐसे देसाईसर ने पहले ही बताकर रखा था तो दुसरे दिन हम चारों आराम से उठ गए ओैर अपनी तैयारी करते हुए काम पे लग गए। आज शहर में सर्कस की अडव्हटाईज करने जाना था। आज की रिक्शा लोडिंग रिक्शा थी। पीछे जो खाली जगह थी वहाँ बॅन्ड सिखने वाले लडके बॅन्ड बजा रहे थे ओैर सफेद घोडे पर सर्कस का एक रुबाबदार युवक लोगों के तरफ देखकर हाथ हिलाते जा रहा था। दो जोकर अपनी तरफ लोगों का ध्यान बटोर रहे थे। धीरज, माइक हाथ में लिए सर्कस के खेलों का रसपूर्ण विवेचन कर रहा था। रिक्शा के उपर रंगबिरंगी, चमकता सर्कस के नाम का बॅनर लगा हुआ था। छोटू बताने लगा “ पहले इस शोभायात्रा में लडकियाँ भी शामिल की जाती थी, लेकिन अरुण सर को लडकियों का इस तरह इस्तमाल करना बिलकुल पसंद नही तो उन्होने वह बंद कर दिया। उनका मानना है की लोगों को सर्कस देखने में मजा आता है तो वह वैसे भी आते ही है। केवल आपके शहर में सर्कस आ गई है यह बात लोगों के दिलो-दिमाग में बैठने के लिए घोडा, बॅन्ड, विदूषक यह तीन तंत्र का इस्तमाल करते है। इस शोभयात्रा के लिए भी सरकारी परमिशन लेनी पडती है, क्युंकी वाहतूक मार्ग में लोग इकठ्ठा होकर भीड के कारण रास्ते बंद हो जाने का खतरा रहता है।” मैं छोटू की बाते सुनते-सुनते सब देखने लगा, लोगों का निरीक्षण करने लगा। छोटे बच्चों का जोकर देखते ही आंनद से खिल जाना, उनकी तरफ दोस्ती का हाथ बढाना, युवावर्ग के हावभाव, आबालवृद्ध के खिले चेहेरे की मुस्कान मुझे भी सब अच्छा लग रहा था। इतने में एक पत्थर हमारे बाजू में आ गया ओैर छोटू के सर पर जोरसे लग गया। छोटू चिलबिलाते जोर से चिल्लाया। जिस बाजू से पत्थर आया था वहाँ सबने देखा, एक लडका गली में भागकर जा रहा था। हम छोटू के मदद के लिए उसकी तरफ दौडे सिर के पीछे से खुन की धारा बह रही थी। मैने झट से अपना रुमाल निकालकर उसकी जखम पर दबाकर रखा। धीरज ने पानी की बॉटल लाकर उसे पानी पिलाया। वैसे भी शोभायात्रा खतम ही हो रही थी तो दस मिनिट में रिक्शा वापिस लेना तय हो गया। पिंटु बताने लगा “ ऐसी घटनाए हमारे साथ हमेशा होती रहती है। समाज के नजरों में हम जैसे लोग मतलब, एक तरह का दाग-धब्बा। केवल सर्कस में काम करने के लिए हम लोगों का स्वीकार किया है। हमारा व्यंग इन लोगों की हँसी, आनंद का कारण बन जाता है।” दोनों के आँखों में आँसू आ गए। छोटू के मन की वेदना शरीर के साथ-साथ बहने लगी, समाज के सामने कोई कुछ नही कर सकता। कोई भी अस्वाभाविक दायरे समाज स्विकार नही करता। समाज के चौखट के बाहर जिनका जीना होता है उनका जीवन हमेशा संघर्षपूर्ण रहता है। लेकिन उसी समाज के कोई लोग व्यंग लोगों की सहायता के लिए उनके पीछे खडे भी हो जाते है।

      सर्कस के तंबू में जाते ही छोटू को लेकर हम सीधे ऑफिस में गए। वहाँ का फर्स्ट एड बॉक्स निकालकर देसाईसर ने छोटू के जख्म की मरहम पट्टी की। थोडे में सब निपट गया था अन्यथा डॉक्टर के पास जाकर टाकें लगवाने पडते। छोटू को खाना खिलाकर एक पॅरासिटीमॉल गोली दी ओैर जबरदस्ती सुला दिया। बाद में हम लोगों ने भी खाना खाया ओैर काम पे लग गए। वैसे तो लगभग सब काम खतम ही हो गया था, दो दिन के बाद शो शुरू होनेवाले थे तो एक आखरी नजर सब ठीक हुआ है की नही इसके उपर डाली जा रही थी। जॉनभाई ओैर उनकी टीम जीप की दुरुस्ती, ऑईलिंग, पार्ट चेकिंग, साफसफाई करते हुए दिख रही थी। उनकी हर एक कृती में कार से लगाव, प्यार झलक रहा था। मार्कोस मन लगाकर मौत का कुवाँ की मोटर साइकिल चमकाने में लगा था। चंदूभैय्या के यहाँ कुछ लडके-लडकियाँ साइकिल साफ कर रहे थे तो दुसरे तंबू में खेल के समय पहने जाने वाले ड्रेस की छानबिन चालू थी। आज हर तरह के काम खतम करते हुए कल से करतब के सराव शुरू होने वाले थे। मन्या ने दुर से आवाज लगाई ओैर बोला “ अरुणसर ने तुम्हे ऑफिस में बुलाया है।” हाथ पोंछकर मैं ऑफिस की ओर बढा। शाम का समय हो रहा था। अरुणसर के ऑफिस का काम खतम हो गया था। मैं अंदर आते ही वह बोले “ आओ श्रवण, कैसी चल रही है भागा-दौडी? कैसा लग रहा है? कुछ तकलीफ तो नही है ना?”

    “ नही सर, कुछ तकलीफ नही है लेकिन स्थिर जीवन से निकलकर ऐसे जीवन में प्रवेश करने में थोडा समय तो लगेगा। दिनभर काम करने की आदत भी नही है तो कभी-कभी जरा मुश्किल हो जाती है पर मन के आनंद में सब भुल जाता हूँ। अभी तो कुछ जिम्मेदारी भी नही है, इस कारण कोई तनाव भी मन  के उपर नही। जो काम बोलोगे वह कर देना यही चल रहा है।”

   “ हाँ श्रवण, लेकिन अब तुम कल से अपना काम शुरू करोगे। अभी बाह्य स्वरूप में काम के बारे में तो पता चल गया। अब प्राणी जगत से मेल बढाना है। रोज वहाँ जाते हुए उनसे थोडी बहुत बातचीत करनी है। जल्द ही वह तुम्हे पहचानने लगेंगे। क्या खेल में कुछ करतब दिखाने में तुम उत्सुक हो?”

    “ मुझे तो कुछ सुझ नही रहा है सर, आपही बता दो। वैसे तो मेकप का काम करना मुझे पसंद है। सुबह मेकप का काम खतम हो गया की दुसरे कामों पर ध्यान दे सकुँगा।” मैंने कहा।

    “ हाँ यह भी चलेगा, लेकिन सिर्फ एक बार मेकप करते हुए काम खतम नही होता है। हर खेल के पहले फिर से टच-अप करना पडता है। कौनसा क्रीम या पावडर जो भी मेकप का सामान खत्म हो रहा है इस पे भी ध्यान देकर वह लिखकर रखना जरूरी है। वह यादी बनाना, ऑर्डर करना, लेकर आना, रात में कलाकारों का मेकप उतारने में मदत करना यह भी करना पडता है। ठीक है धीरे-धीरे तुम सब समझ जाओगे। जयंती को मैं बताकर रखता हूँ की कल से तुम वहाँ काम करने आओगे।” बात करते-करते अरुणसर ने ऑफिस बंद किया ओैर हम दोनो बाहर आ गए। फिर कोई ना कोई सर से आकर बात करने लगा तो हम एक-दुसरे से बाय करते हुए चले गए।

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