सर्कस - 9 Madhavi Marathe द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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सर्कस - 9

                                                                                                 सर्कस : ९

    

       आज दिल्ली में हमारा आखरी शो था। तीन दिन के बाद यहाँ से दुसरी जगह जानेवाले थे तो इस समय काम के लिए सर्कस में रहना अनिवार्य था। उसके पहले मेरी तैयारी पूरी हो जानी चाहिए। कल पिताजी भी अल्मोडा से आए थे तो मेरी एक बडी सी सुटकेस भर के कपडे, जरूरी सामान वो साथ में लेके आ गए। अब दाढी बनाने का नया काम पीछे लगा था, दाढी सेट, आएना, नेलकटर ऐसी अनेक चीजों से बॅग भरी हुई थी। सब के विचार से यह तय हुआ कि बॅग बिना सामान निकाले वैसे ही ले जाना बेहतर होगा। दुसरे बॅग में अभी जो सामान इस्तमाल हो रहा था वह सामान ,कपडे, ओैर एक हँडबॅग में खाने के व्यंजन रख देंगे ऐसा हल निकाला। आठ-दस दिन जो कपडे इस्तमाल किए थे वह गोविंदा ने धोकर प्रेस कर के रख दिए। जादा सामान लेकर जाने के हित में, मेरे विचार नही थे क्युंकि वहाँ की दो खाने वाली अलमारी मैंने देखी थी। उसमें यह सब सामान बैठ पाना मुश्किल था, लेकिन चीजे तो लगती रहेगी। तो क्या करे ? फिर सोच-विचार से यह तय हुआ कि जो सामान हमेशा लगता है वह उपर, अलमारी में रहेगा ओैर बाकी सामान बॅग को लॉक करके पलंग के नीचे रख देना। पाँच-छह ताले भी ले लिए थे, किसी के उपर भरोसा करना नही। अपनी चीजे खुद संभालनी होगी ओैर फिर भी कोई वस्तु गुम हो गई तो किसी को दोष देते नही बैठना है, बात वही छोड देनी है, भौतिक चीजों का बोझ मन पर नही रखना है ऐसी सीख दादाजी दे रहे थे। दिनभर में सब तैयारी हो गई।

     रात के खाने के बाद मैं, पिताजी, विनीत ओैर चाचाजी घुमने के लिए बाहर निकले।

पिताजी ने कहा “ श्रवण, अब तुम सच में घर के बाहर कदम रखने जा रहे हो। संभलकर रहना। किसी भी व्यक्ति का स्वभाव जब तक समझ नही आता, तब तक उपर-उपर बाते करते रहना। अपने मन की बात उसे मत बताना। सामनेवाला जो भी कहानी बताएगा, उसपर विश्वास करते हुए पैसे मत देना। एक बार पता चल गया कि तुम, माँगने पर पैसे देते हो तो लोग तुम्हारे पीछे पड जाएँगे। कोई भी ऐरा-गैरा तुम्हे सताने लगेगा। कौन सच्चा ओैर कौन झुठा यह समझ आना मुश्किल हो जाएगा। कुछ अलग अनुभव से गुजरने लगोगे तो अरुण सर से बात कर लेना, हमे भी सुचना देना। मैं देख लुँगा ऐसे भ्रम में मत रहना।” इस बात पर चाचाजी ने भी अनुमोदन दिया।

     श्रवण, अपने सुख-दुख बाटने के लिए अच्छे साथी मिलना भी भाग्यकारक है, इस का अच्छे से इस्तमाल करना। बारिश के टाइम सर्कस कम चलती है उस समय पढाई पर ध्यान देना। ऐसी सुचनाँए चलती रही। गपशप में घर कब पहुँचे पताही नही चला। कमरे में जाते ही विनीत ने एक डायरी मेरे हाथ में थमा दी ओैर कहा “राधा ने यह डायरी तुम्हे देने के लिए कहा है, ओैर कल से तुम्हारे जीवन में जो कुछ घटनाए घटेगी वह सब इस डायरी में लिखते जाना।” इस बात पे हम दोनों ने मुसकुरा दिए। राधा ओैर मेरे बीच की प्यार की डोर विनीत से छुपी नही थी। सच पुछो तो हम दोनों ने भी इस विषय पर खुलकर बात नही की थी। उम्र में छोटे होने के कारण इस प्यार को व्यक्त नही होने दे रहे थे। प्यार के अनोखे पल में ही मैं सो गया।

     हमेशा की तरह सब काम खतम करने के बाद नो बजे घर से बाहर निकला। बाद में माँ, पिताजी, चाचाजी अरुण सर से मिलने, सर्कस के ऑफिस में आने वाले थे। जिनकी मैं बाते किया करता था, उनसे मिलने वाले थे। वहाँ का माहोल उन्हे देखना था। मैं सर्कस के मैदान पर पहुँच गया, ऑफिस में अरुण सर से बात करने के बाद अंदर चला गया। आज शो नही था इसलिए सब आराम से अपना काम कर रहे थे। आज अपना सामान पॅक करने का दिन था तो कपडे धोना, सुखाना, जहाँ जरूरत पडे उसे इस्त्री करना यह काम शुरू थे। दुसरे दिन अलग-अलग विभाग को समेटकर रखते है ओैर तिसरे दिन सब तंबू उतार कर ट्रक में रख दिए जाते है ऐसा धीरज ने बताया। तो आज अपने काम का दिन था। थोडी देर इधर-उधर घुमते माँ-पिताजी, चाचाजी दिखाई दिए, उनको लेकर गोदाक्का के पास गया ओैर एक-दुसरे से पहचान करा दी। माँ ओैर गोदाक्का देर तक बाते करती रही। मुझे समझ में आ गया, माँ, गोदाक्का को मेरी तरफ ठीक से ध्यान देने के लिए कह रही होंगी। एक माँ का कलेजा दुसरे माँ को दिलासा दे रहा था। सरलाचाची सब के लिए चाय-बिस्किट लेके आ गई। आसपास का माहोल देखकर तो उन तीनों के मन में चिंता सताने लगी थी, लेकिन अपने चेहरे पर मुस्कान रखते हुए वह बैठे थे। फिर चंदूभैय्या, धीरज, जोकर कंपनी, मोन्या, अंजनबाबू, जॉनभाई सब उनसे मिलने आए। बातों-बातों में कितना समय बीत गया, पताही नही चला। बाद में हम ऑफिस चले गए.

       अरुण सर ने सबको बिठाकर कहा “ अंदर का माहोल देखकर आपको चिंता होना स्वाभाविक बात है। मैं उसे रहने के लिए अलग से कमरा भी दे सकता हूँ, लेकिन उसके  साथी उसे ठीक से नही अपनाएंगे। मित्रता हमेशा बराबर वालों से होती है। सबके साथ रहकर  जो बाते वह समझ जाएगा वह अकेले रहकर समझ पाना नामुमकीन है। सोच एकांगी बनेगी। मैं आठ दिन से देख रहा हूँ श्रवण सबके साथ बहुत अच्छी तरह से घुलमिल गया है। खुद आगे बढकर काम करता है। मित्रता जोडता है। आप निश्चिंत होकर जा सकते हो। मेरा पुरा ध्यान उसपर रहेगा।” यह सब सुनने के बाद तीनों को थोडा ठीक महसुस हुआ ओैर वह घर चले गए। रात को आठ बजे चाचाजी ओैर विनीत मुझे लेने आने वाले थे। अरुण सर ने मेरी तैयारी के बारे में पुछा तो मैं तन-मन, से ओैर बॅग भर के तैयार हूँ ऐसे हँसते हुए कहा तो वह भी हँसने लगे।

       देसाई सर पहले ही जबलपूर गए हुए थे। सर्कस के लिए जगह की परमिशन, तिकीट बिक्री परवाना, खेल का परवाना, वाहतूक पुलिस का ना हरकत प्रमाणपत्र, अग्निशामक दल का प्रमाणपत्र, विद्युत विभाग से परमिशन, महानगर पालिका, आरोग्य विभाग से परवाना, दुरध्वनी, दूरसंचार, जिलाधिकारी से ना हरकत प्रमाणपत्र। अनिमल अॅक्ट अधिनियम १९६० के अनुसार रखरखाव के हमीपत्र, सर्कस के आयोजन जहाँ करने वाले हो उस जगह का नक्शा, सार्वजनीन बांधकाम विभाग का प्रमाणपत्र, इन सब विभाग को वह पहले से ही अर्जी देकर आए थे, अब वह प्रमाणपत्र जमा करने दो-तीन दिन पहले वहाँ चले गए। पेपर्स में जाहिरात देने, बॅनर्स लगाने की परमिशन भी उनको लेनी थी। अरुण सर ने यह मेरा नॉलेज बढाने के लिए बताया, बाद में यह सब काम तुमही संभालोगे, अब तीन दिन जो भी काम कर सकते हो करते रहो यह कहकर वह अपने काम के लिए चले गए।

     वहाँ से मैं धीरज के तंबू में चला गया। लडके मौज-मस्ती करते हुए अपना सामान समेट रहे थे। यहाँ के शोज कैसे हो गए, क्या अलग अनुभव से गुजरना पडा ? कुछ मजेदार घटना का जिक्र करते हुए जोरसे हँस रहे थे। अब तीन दिन की रुपरेषा अलग रहेगी, नाश्ते के बाद सबको अपना सामान पॅक करने के लिए समय दिया था ओैर उसके बाद मुख्य तंबू में जाना है धीरज अपना सामान पॅक करते मुझे सब बता रहा था। मन्या, चिन्या, चंक्या, पिंट्या से अब अच्छी जान-पहचान हो गई थी। सबके नाम के अपभ्रंश इन लडको ने कर दिए थे। मेरा नाम अब शऱ्या हो गया। लडकों ने सामान ठीक से रख दिया। कुछ फटे या बटन लगाने है वह कपडे बाजू में रख दिए, बाद में उनकी दुरुस्ती की जाएगी।

          यहाँ के काम खतम करने के बाद हम सब मुख्य तंबू में चले गए, वहाँ की कुर्सीयाँ एक-दुसरे में रखकर एक कोने में रख दी। कुछ कुर्सीयाँ खराब हो गई है ऐसा लगा तो वह दुसरी जगह पर रख दी जाती। एक घंटे में तंबू खाली हो गया। स्टेज के पार्ट्स अलग किए, बॅंड वालों ने अपने वाद्य ठीक से रख दिए। माइक व्यवस्था, लाईट्स के वायर, स्पीकर्स एक बडे बक्से में रख दिए। अब सिर्फ उपर वाली कनात रह गई, वह आखरी दिन निकलेगी। सब काम खतम होते-होते खाना खाने का समय हो गया तो रसोईघर की तरफ हम चल दिए, वहाँ कोई खाना खतम कर के जा रहा था तो कोई खाना खाने आ रहा था। बहुत भीड नही थी। आज मुर्गी का रस्सा, नान ओैर चावल थे। मैं तो शाकाहारी था, अब कैसे करें ? धीरज को यह बात समझ आ गई। दोनों गोदाक्का के पास गए तो वह बोली “ यहाँ बहुत लोग शाकाहारी है। उस तरफ का बडा पतेला है ना उस में आलू रस्सा रखा है।”  

बाधाए आ भी रही थी ओैर हल भी निकल रहे थे। मन्या ने कहा “ शऱ्या, धीरे-धीरे तू नॉनव्हेज खाना शुरू कर, यहा जादा कुछ पौष्टिक खाना मिलता नही, नॉनव्हेज से कॅलरीज, प्रोटीन तो मिल जाते है।” मैंने चौंककर उसकी ओर देखा, यहाँ ऐसी बात सुनने मिलेगी यह सोचा नही था।

    “ चौंक मत। यहाँ तुझे कितनी तरह के ज्ञानी लोग मिल जाएंगे। मन्या न्युट्रीशियन विषय में बीएस्सी कर रहा है।”

    “ यहाँ के काम का प्रमाणपत्र देने के बाद सब अड्जेस्ट कर लेते है। इधर जिंदगी भर थोडी रहना है।” मन्या ने कहा। धीरज जैसे लडके बहुत मिल जाएंगे इस बात का मुझे एहसास हुआ। गरीबी के कारण पेट के लिए, अपने परिवार का पालन-पोषण के लिए काम तो करनाही पडता था, लेकिन जिंदगी में आगे बढने की उनकी महत्वाकांक्षा प्रबल जागरूक थी। मतितार्थ, दुनिया गोल है यही सच है। यहाँ के लडके काम ओैर पढाई करते हुए बाहर कुछ काम-धंदा, या नौकरी करने के लिए बेताब थे, तो बाहर से काम-धंदे में या नोकरी से निकाले गए कितने लोग अब यहाँ काम कर रहे थे। चिन्या काम करते हुए पैसे जमा कर रहा था ताकी कार्पेंटर का ट्रेनिंग वह ले सके। धीरज को नोकरी करनी थी। चंक्या को पोल्ट्रीफार्म ओैर पशुपालन का व्यवसाय करना था। यहाँ जानवरों के पिंजरे साफ रखने, उन्हे खाना-पानी देने का काम वो ही करता था। इस के सिवाय पशु चिकित्सक जब आते थे तो उनके सलाह के अनुसार काम करते हुए बिमारिया, उपचार विषय की जानकारी लेते रहता था। धंदे के लिए कितनी पुंजी लगेगी इस बारे में पुछताछ कर के रखी थी ओैर अब पैसे इकठ्ठा करने लग गया था। पिंट्या को किसी बात की पडी नही थी। आया दिन मस्तमौला गुजारो यही उसकी सोच थी। किसी व्यसन का शिकार भी शायद वह बन चुका है, ऐसा सुनने में आया था। एक दुसरे के भावी जीवन की आकांक्षाओं के बारे में बात करते-करते हमने खाना खा लिया। खाने के बाद एक घंटा आराम के लिए समय दिया था तो सब मस्त सो गए। जब बाहर से किसी ने पुकारा तभी हम जग गए।

     नल के तरफ जाकर मुँह पर पानी मारा ओैर तरोताजा होते हुए मुख्य तंबू की तरफ बढे। कुर्सी, टेबल, स्टेज का सामान, सुबह तैयार रखे बॉक्स, ट्रक में रखने थे। इस काम में छोटे-बडे सब काम में लग गए। जिसकी जितनी ताकत वह उतना बोझ उठाकर लाता था। जल्दही ट्रक भर गया। उसमें जितना भी सामान था उसकी एक लिस्ट बनाई थी। एक कॉपी ड्राइव्हर के पास ओैर एक ऑफिस के फाइल में रख दी जाती। एक ट्रक तो भर गया अब दुसरे में सामान चढाना शुरू हुआ। साइकिले, झुले का सामान, रसोईघर के बडे-बडे बरतन, डिब्बे, थालिया, इ. शिलाई मशिनस्, सर्कस के नाम का बडा बोर्ड, लाल रंग का जाजम, मौत का कुवाँ का पिंजरा, मोटर सायकल, निशाने-तिरंदाजी का सामान, डेकोरेशन बॉक्स, जादू के खेल का सामान, ओैर बहोत कुछ उसमें रख दिया। बीच-बीच में कोई तरोताजा होने के लिए चाय-बिस्किट खाकर आते थे। इन दिनों में गोदाक्का चाय की किटली हमेशा भरकर रखती थी। बडसे बरतन में नमकीन ओैर उबले हुए अंडे रखे रहते थे क्युंकि सबके उपर काम का बोझ जादा था इसलिए खान-पान का वह ध्यान रखती थी। काम खत्म होते-होते रात हो गई। किसी ने आवाज देते हुए कहा तुम्हारे चाचाजी आये है। मै वहाँ चला गया। दिनभर के काम से थकान महसुस हो रही थी।

       दुसरा भी दिन आया ओैर गया। उस रात ट्रक में जानवरों के पिंजरे रखे गए। दिन में यह काम करना जरा मुश्किल था। जानवरों को देखकर लोग उल्टी-सीधी हरकते करते तो उस कारण प्राणी बिघडने का खतरा मंडरता है। चिनू ने बताया।

       तिसरा दिन। आज हम यहाँ से रवाना होने वाले थे। ७५ लोगों की टीम एक बोगी में, एसी तीन बोगी जबलपूर जाने वाली ट्रेन को जोड दी जाएगी। एक-एक बात पता चल रही थी। कल ही सर्कस के उजडे हुए जगह को निहारा था। जहाँ मेरे जीवन को एक अलग मोड मिला, उस जगह का मैं हमेशा ऋणी रहुँगा। आज घर के लोगों से विदाई लेते हुए, गिले आँखों से स्टेशनपर पहुँच गया। वहाँ सब उत्साह से भरे हुए थे। एक-दुसरे के साथ जोर-जोरसे बाते चल रही थी। नया शहर, दो दिन काम से छुट्टी। दिल्ली से जबलपूर लगभग चौदा घंटे का सफर था। वहाँ पहुंचने के बाद एक दिन सबको छुट्टी दी जाती। कोई पाठशाला या होटल में रहने की व्यवस्था की जाती। फिर एक दिन ट्रीप का आयोजन किया जाता। उसके बाद काम की शुरुवात। ट्रीप का सारा खर्चा अरुण सर करते थे। धीरज बताता रहा मैं सुनता गया। ट्रेन ने हॉर्न बजाया तो बिना भावुकता से, प्यारभरे नजरों से मैंने अपने परिवार से विदाई ली ओैर मेरे ध्येय की तरफ वह ट्रेन चलती रही।   

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