बूंदी बनिया Renu द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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बूंदी बनिया


श्रीरामदासजी बूंदी नगर के निवासी थे। जाति के बनिया थे। अतः वर्ण-धर्मानुसार व्यापार करते हुए भगवद्भक्ति की साधना करते थे। अपनी पीठ पर नमक-मिर्च-गुड़ आदि की गठरी लादकर गाँवों में फेरी लगाते थे। कुछ नगद पैसे और कुछ अनाज भी मिलता था। एक दिन फेरी में सामान बिक गया और बदले में अनाज ही विशेष मिला। उसकी गठरी सिर पर रखकर घर को चले। वजन अधिक था, अतः भार से पीड़ित थे, पर ढो रहे थे। एक किसान का रूप रखकर भगवान् आये और बोले— भगतजी! आपका दुःख मुझसे देखा नहीं जा रहा है। हमें भार वहन करने का भारी अभ्यास है, हमें भी बूंदी जाना है। आपकी गठरी मैं पहुँचा दूंगा।' ऐसा कहकर भगवान्ने भक्त के सिर का भार अपने ऊपर लिया और तीव्र गति से आगे बढ़े। थोड़ी ही देर में वे इनकी आँखों से ओझल हो गये। तब ये सोचने लगे— 'मैं इसे पहचानता नहीं हूँ और यह भी शायद मेरा घर न जानता होगा। अच्छा, जाने दो राम करै सो होय।' राम-कीर्तन करते हुए चले। मन में आया कि आज थका हूँ, घर पहुँचते ही यदि गरम जल मिल जाय, तो झट स्नानकर सेवा-पूजा कर लूं और आज कढ़ी-फुलका का भोग लगे तो अच्छा है। इधर किसान रूपधारी भगवान्ने इनके घर आकर गठरी पटक दी और पुकारकर कह दिया कि—' भगत जी आ रहे हैं। नहाने के लिये पानी गरम कर लो और भोग के लिये कढ़ी-फुलका बना लो। उन्होंने कह दिया है। कुछ देर बाद श्रीरामदास जी घर आये तो देखा कि अनाज की गठरी पड़ी है। स्त्री ने कहा— 'जल गरम हो चुका है, झट स्नान कर लो। कढ़ी भी तैयार है, सेवा करोगे तब तक फुलके भी तैयार हो जायेंगे।' श्रीरामदासजी ने कहा-'तुमने मेरे मन की बात कैसे जान ली ?' उसने कहा—उस गठरी लाने वाले ने कहा था। मुझे क्या पता तुम्हारे मन की बात का।' अब तो श्रीरामदासजी समझ गये कि आज रामजी ने भक्तवात्सल्यवश बड़ा कष्ट सहा। ध्यान किया तो प्रभु ने प्रसन्न होकर कहा— 'तुम नित्य सन्त-सेवा के लिये इतना श्रम करते हो, मैंने तुम्हारी थोड़ी-सी सहायता कर दी, तो क्या बिगड़ गया। आपने स्त्री से पूछा-'तूने उस गठरी लाने वाले को देखा था क्या?' उसने कहा ‘मैं तो भीतर थी, उसके शब्द अवश्य ही अति मधुर थे। आपने कहा— वे साक्षात् भगवान् ही थे। तभी तो उन्होंने मेरे मन की बात जान ली। वे सन्त-सेवा से अति सन्तुष्ट होते हैं। अब यदि प्रेम से सन्त-सेवा करेगी तो प्रभु पुनः दर्शन देंगे। स्त्री पछता रही थी, मैं दर्शन नहीं कर पायी। भक्तजी पछताते थे कि मैंने प्रभु के सिरपर बोझ रखा था। यह अनुचित किया। यह घटना हृदय में घर कर गयी। तब से आप सदा भजन-ध्यान में ही तत्पर रहने लगे।'

श्रीरामदासजी सन्तों की सेवा उनकी रुचि के अनुसार ही करते थे। एक दिन आपके यहाँ कई सन्त पधारे। आपने उनसे पूछा— 'महाराज! आप लोग मेरे भगवान् का प्रसाद पायेंगे या अलग बनाकर भोग लगाकर पायेंगे?' सन्तों ने कहा— हम तो आपके भगवान् का ही प्रसाद लेंगे।' भक्तपत्नी ने रसोई बनायी, उस दिन ज्वार की रोटियों का भोग लगा। दो सन्तों ने देखकर कहा कि— 'हम तो ज्चार की रोटी नहीं खायेंगे। आपने पत्नी से पूछा— 'तूने ज्वार की रोटी क्यों बनायी ?' उसने कहा— नवीन अन्न प्रभु को प्रिय समझकर मैंने ज्वार की रोटी बनायी। दूसरे कभी भगवान्ने ज्वार की रोटी खाने से इनकार नहीं किया था, अतः मैंने ज्वार की रोटी बनायी।' इस पर आपने कहा—भगवान् का भोग अनन्त स्थानों में लगता है, केवल यहीं भोग लगता है, ऐसी बात नहीं। वे तो अपनी रुचि का भोग कहीं-न-कहीं लगा ही लेते हैं, किंतु ये सन्त तो कृपा करके यहीं आज प्रसाद लेंगे, कहीं अन्यत्र नहीं जायेंगे। अतः सन्तों से पूछकर उनकी रुचि के अनुसार ही उन्हें भोग लगाकर पवाया करो।' ऐसा कहकर आपने तुरंत गेहूँ की रोटियाँ बनवायीं और सन्तों को भोजन करवाया।

श्रीरामदासजी के यहाँ अनेक साधु-सन्तों के भोजन नित्य होते। अतः कुछ दुष्टों ने इसे सह न सकने के कारण राजा से शिकायत की कि 'इस बनिया के पास अपार सम्पत्ति है, व्यर्थ ही उसे लुटाता है, आपको कर भी नहीं देता है। सबको ठगता है। अतः इसकी सम्पत्ति को आप छीनकर राजकोष में जमा कर लें। राजा ने उनकी बात मानकर सिपाही भेजे। बुलाकर कहा–'तुम हमारा कर दो, अन्यथा तुम्हारी सम्पत्ति जब्त कर ली जायगी।' भगतजी ने कहा— मेरे पास धन का संग्रह नहीं है, जो कुछ कमाता हूँ, उसे सन्त-सेवा में लगा देता हूँ। आप मेरे घर की तलाशी ले लें। जो भी सोना-चाँदी हो, वह आप ले लें।' किसी ने राजा को उकसाते हुए कहा— ‘नीबू बनिया आम ये दावे ते रस देयँ।' राजा ने इन्हें कारागार में बन्द कर दिया और घर का सम्पूर्ण अन्न-धन छीनने का विचार किया। श्रीरामदासजी के मन में चिन्ता हुई। सेवा में बाधा जानकर आपने श्रीलक्ष्मणलाल का स्मरण किया। श्रीलक्ष्मणजी ने प्रकट होकर इन्हें बन्धन से मुक्त कर दिया। स्वयं कारागार में रामदास का रूप धारणकर बँध गये। पुनः इनके घरपर सन्त-सेवा की धूम देखकर लोगों ने राजा से फिर चुगली की। राजा ने कहा— हमने तो उसे कारागार में बन्द करवा दिया है, फिर वह घरपर कैसे सन्त सेवा कर रहा है? राजा ने सिपाहियों से कारागार में जाकर देखने को कहा तो वहाँ रामदास बन्द थे, पुनः शिकायत करने वालों के साथ जाकर उनके घर पर देखा, तो दोनों जगहों पर रामदास है। यह सुनकर राजा ने दोनों को दरबार में हाजिर करने का हुक्म दिया। दरबार में आते-आते श्रीलक्ष्मण जी अन्तर्धान हो गये। रहस्य जानकर राजा आपके चरणों में पड़ गया। अपराध क्षमा के लिये विनती करने लगा। आजीवन आपने सन्त-सेवाव्रत निभाया। आपसे प्रेरणा प्राप्तकर राजा-प्रजा सभी ने भक्त-भगवन्त-सेवा का नियम लिया।