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रामानुज शत्रुघ्न जी

संसार में भगवान् के कई प्रकार के भक्त होते हैं। सबके आचार तथा सबके व्यवहार भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। शत्रुघ्न कुमार उन सब भक्तों में विलक्षण हैं। वे मूक कर्मयोगी हैं। उन्हें न कुछ कहना रहता, न पूछना रहता। भगवान् के भक्त का अनुगमन करना, भक्त की सेवा करना, भक्त के ही पीछे लगे रहना– यह सबसे सुगम साधन है। भगवान् क्या करते हैं, कब कृपा करेंगे, कैसे कृपा करेंगे, इन बातों को सोचना छोड़कर किसी सच्चे प्रेमी संत की शरण ले लेना और निश्चिन्त होकर उसकी सेवा करना, उसी पर अपने को छोड़ देना अनेक महाभाग पुरुषों में देखा गया है। शत्रुघ्न कुमार ने भी इसी प्रकार भगवान के परम प्रिय भक्त श्रीभरतलाल जी की सेवा को अपना आदर्श बना लिया था और इससे वे कभी भी विचलित नहीं हुए।
 
शत्रुघ्न जी के विषय में ग्रन्थों में बहुत ही कम चर्चा आयी है, पर जो आयी है, उससे उनकी एकान्त निष्ठा का पूरा परिचय मिलता है। उन्होंने भरतजी का आश्रय लिया और फिर एक बार भी उस आश्रय से पृथक् नहीं हुए। कोई भी यह सोच तक नहीं सकता था कि शत्रुघ्घ्र कभी भरत से अलग रह सकते हैं। चित्रकूट में परीक्षा के लिये जब वसिष्ठजी ने भरत से कहा– “श्रीराम-लक्ष्मण अयोध्या लौट जायँ और तुम दोनों भाई वन को जाओ।” तब बिना एक क्षण विलम्ब के भरत जी ने इसे स्वीकार कर लिया। शत्रुघ्न से भी पूछना चाहिये, यह सोचने की आवश्यकता मानना तो शत्रुघ्न के भाव पर अविश्वास करना होता।
 
एक बार ननिहाल से जब भरत, शत्रुघ्न लौटे, तब मन्थरा पर छोटे कुमार (शत्रुघ्न) का रोष प्रकट हुआ। वे उस कुटिला को बहुत कठोर दण्ड देना चाहते थे। दया करके भरत जी ने उन्हें रोक दिया। इसके पश्चात् वे शान्त हो गये। फिर किसी से वे रुष्ट नहीं हुए। चित्रकूट से लौटने पर भरत जी नन्दिग्राम में तपस्वी बनकर रहने लगे। माताओं की, राज-परिवार की, सेवकों की, सभी की व्यवस्था का भार शत्रुघ्न जी पर पड़ा। शत्रुघ्न जी को क्या किसी से कम दुःख था ? श्रीराम के वनवास से उन्हें कम पीड़ा हुई थी ? ऐसी व्यथा में सारे भोग-सुख काटने दौड़ते हैं। उस समय सब कुछ छोड़कर व्रत, उपवास, संयम, नियम, तप करने से आत्मतोष होता है। हृदय की पीड़ा कुछ घटती है। परंतु जब हृदय पीड़ा से हाहाकार कर रहा हो, जब वस्त्र आभूषण जलती अग्नि-से लगते हों, तब दूसरों को प्रसन्न करने के लिये, दूसरों को सुख देने के लिये हृदय दबाकर, मुख पर हँसी बनाये रखकर उन सबको स्वीकार करना कितना बड़ा तप है– इसका कोई सहृदय अनुभवी पुरुष ही अनुमान कर सकता है। शत्रुघ्न जी पर माताओं की सेवा का भार था। उन दुःखिनी माताओं को समान भाव से प्रसन्न रखना था। शत्रुघ्न स्वयं वस्त्राभरण से सजे न रहें, प्रसन्न न दीखें तो माताओं का शोक जग जायगा। उन्हें अपार पीड़ा होगी। अतएव शत्रुघ्न ने चौदह वर्ष अंदर से भगवान् के साथ पूर्ण योग रखते हुए, पूर्ण संयम पालते हुए भोग को स्वीकार करके, प्रसन्न रहने की मुद्रा रखने का सबसे कठोर तप किया। उन्होंने सबसे कठिन कर्तव्य का पूरे चौदह वर्ष निर्वाह किया।
 
श्रीराम राज्याभिषेक के पश्चात रघुनाथजी की आज्ञा से लवण नामक असुर को मारकर शत्रुघ्नजी ने मधुपुरी बसायी, वहाँ राज्य की स्थापना की और पीछे वहाँ का राज्य अपने पुत्रों को देकर फिर वे श्रीराम के समीप पहुँच गये। पूरे जीवन में वे भरतलाल की आज्ञा के अनुवर्ती थे।
 

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