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श्रीयमराज जी

जिह्वा न वक्ति भगवद्गुणनामधेयं चेतश्च न स्मरति तच्चरणारविन्दम्।
कृष्णाय नो नमति यच्छिर एकदापि तानानयध्वमसतोऽकृतविष्णुकृत्यान्॥ – ( श्रीमद्भा० ६ । ३। २९)


“जिनकी जीभ भगवान् के मङ्गलमय गुणो एवं परम पवित्र नामो का वर्णन नहीं करती, जिनका चित्त भगवान् के चरणकमलो का चिन्तन नहीं करता, जिनका सिर एक बार भी श्रीकृष्णचन्द्र को प्रणाम करने के लिये नही झुका भगवान् विष्णु के पावन कर्मों से सर्वथा पृथक् रहने वाले केवल उन दुष्टो को ही तुम लोग यहाॅ ( यमपुरी मे ) लाया करो।” यह यमराज जी ने अपने दूतो को आदेश दिया है।

जब भी यमदूत हाथ मे पाश लेकर मर्त्यलोक के मरणासन्न प्राणियो को लेने चलते है, तभी उन्हें पास बुलाकर उनके कान मे यमराज जी समझाते है – “जो लोग भगवान् की कथा को कहने-सुनने में लगे रहने वाले है, उनके पास तुम मत जाना। उन्हे तो तुम छोड ही देना, क्योकि मैं दूसरे सब प्राणियो को कर्म का दण्ड देने वाला स्वामी हूँ, पर भगवान् के भक्तो को दण्ड देने की शक्ति मुझमे नहीं है। मैं उनका स्वामी नही हूँ।”

नित्य देव होने पर भी यमराज जी भगवान् सूर्यनारायण के पुत्र है। वे देव-शिल्पी विश्वकर्मा की पुत्री संज्ञा से उत्पन्न हुए है। उनके शरीर का रंग श्याम वर्ण का है और वे हाथ मे भयंकर दण्ड लिये रहते है। उनका वाहन भैसा है। भगवान् ब्रह्मा की आजा से ही प्राणियो के कर्मों के अनुसार फल का निर्णय करने-जैसा कठोर कर्म उन्होंने स्वीकार किया। वैसे तो वे भगवान्‌ के अंश है और कारक पुरुष है। क्ल्पान्त तक संयमनीपुरी मे रहकर वे जीवो को उनके कर्मानुसार फल का विधान करते रहते है।

पुण्यात्मा जीवो को यमराज जी धर्मराज के रूप मे बडे सौम्य दीखते है। पुण्यात्मा जीव शरीर छोडने पर धर्मराज के सौम्य सुन्दर शीलवान् दूतो द्वारा बडे सुख एवं आदरपूर्वक संंयमनी पहुंचाया जाता है और धर्मराज उससे उसके पुण्यों के अनुसार उच्च लाेकों मे भेजते है किंतु पापियो को उग्र रूप मे दर्शन देना उन्हें नरकों में डालना आदि भयंकर कर्म भी वे दया से ही करते हैं। यमराज प्रधान भागवताचार्यो में है। अतएव उनके द्वारा निष्टुरता तो सम्भव ही नहीं है। वे तो दण्ड इसलिये देते हैं, जिससे प्राणी पापो से छूटकर पवित्र हो जाय। वह शुद्ध होकर फिर पृथ्वी पर जाने योग्य हो और उसे भगवान्‌ को पाने का अवसर प्राप्त हो सके। जैसे अपवित्र सोने को अग्नि मे तपाते है शुद्ध
करने के लिये, वैसे ही यमराज जी के द्वारा नरको की विविध यातनाएँ जीव के पापकर्म के मल को दूर करने के लिये ही दी जाति है।

यमराज जी ने अपने दूतों को भक्ति तत्व का उपदेश करते हुए कहा है – “जीव के समस्त पापों को दूर करने के
लिए इतना ही साधन पर्याप्त है कि वह भगवान के दिव्य गुण मंगलमय चरित्र एवं परम पावन नाम का स्मरण करें जो बुद्धिमान पुरुष है वह, ऐसा सोचकर भगवान के भजन में ही संपूर्ण भावनाओं के साथ चित को लगाते हैं। ऐसे महापुरुष मेरे द्वारा दंड पाने योग्य नहीं है। उन्होंने यदि पहले कुछ पाप किया भी हो तो भगवदगुणानुवाद उसका नाश कर देता है। जो समदर्शी भगवच्छरणागत साधुजन है, उनके पवित्र चरित्र तो देवता तथा सिद्धगण भी गाया करते हैं। मेरे दूतों! भगवान की गदा सदा उनकी रक्षा किया करती है। तुम लोग उनके पास मत जाना। मेरा कोई सेवक या स्वयं में भी उन्हें दंड देने में समर्थ नहीं। निष्किंचन वीतराग परमहंस जन रसज्ञ होकर भगवान के चरण कमलों के जिस मकरंद में निरंतर लगे रहते हैं, भगवान मुकुंद के उस पदारविंदमकरंद से विमुख होकर तृष्णा के द्वारा नरक के द्वाररूप घरों में जो बंधे हैं उन ( काम-क्रोध परायण स्त्री पुत्र आदि संसारासक्त) पुरुषों को ही तुम लोग यहां यमपुरी में लाया करो।


इदमेव हि मागल्यमिदमेव धनार्जनम्।
जीवितस्य फलं चैतद् यद् दामोदरकीर्तनम् ।

यह जो दामोदर का नामगुणकीर्तन है, यही मङ्गलकार्य है, यही यथार्थ धनसञ्चय है—यही जीवन का फल है। (पद्मपुराण पातालखण्ड अ० ५८।५९ ) । –यमराज

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