श्री हरीदास Renu द्वारा कुछ भी में हिंदी पीडीएफ

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श्री हरीदास

श्रीखेमालरत्न राठौर जी के वंश में वैष्णव सुपुत्र उत्पन्न हुए। श्रीहरीदास भगवान् के एवं भगवद्भक्तों के भक्त थे। भक्ति एवं भक्तरूपी मन्दिर के कलश थे। भजन-भाव में आप सुदृढ़ निष्ठा वाले भक्त थे तथा आपका हृदय भागीरथी गंगा के समान पवित्र एवं निर्मल था। मन-वचन एवं कर्म से आप अनन्य भक्त थे। श्रीरामरयनजी की उपासना रीति का ही आपने भी अनुसरण किया। इन्हें भगवत्तुल्य अपने श्रीगुरुदेव का बल भगवबल के समान ही था। इन दोनों की सेवा आपने राजोपचारों से की। जैसे शरद् ऋतु के पूर्ण चन्द्रमा को देखकर समुद्र ऊँची लहरें लेकर बढ़ने लगता है, उसी प्रकार भगवद्भक्तों को देखकर श्रीहरीदासजी के हृदय में आनन्दसमुद्र उमड़ने लगता था॥ १२२॥

श्रीहरीदासजी के विषय में विशेष विवरण इस प्रकार है― श्रीहरिदासजी बड़े सन्तसेवी थे, इनके यहाँ सन्त आते ही रहते थे। एक दिन ये घर पर नहीं थे। सन्तों की जमात आयी। सबका यथोचित सत्कार किया गया। जब सन्त विदा होकर चले गये, तब ये घरपर आये। सन्तों का दर्शन न होने से इनके मन में बड़ा पश्चात्ताप हुआ और तुरंत व्याकुल होकर सन्तों के दर्शन के लिये घरसे निकल पड़े। इतस्ततः सन्तों को खोजते हुए, जिस किसी से सन्तों का पता पूछते जंगल की ओर जा निकले। बावले से इधर-उधर घूम रहे थे, मानो इनका सर्वस्व लुट गया हो। इनकी यह निष्ठा देखकर स्वयं भगवान् सन्तवेष धारणकर इनके सम्मुख आ गये और बोले―'भक्त जी! क्या हूँढ़ रहे हैं?' इन्होंने सन्तवेषधारी भगवान् के चरणों में पड़कर प्रणाम किया और बोले―'महाराज ! सन्तों को ढूँढ़ रहा हूँ। क्या आप बता सकते हैं―अन्य सन्त कहाँ गये? सन्तवेषधारी भगवान्ने हँसकर कहा― 'सब मुझमें ही समझो। अतः मेरा ही दर्शन करके सबका दर्शन समझ लो।' श्रीहरिदासजी ने कहा―'यह कैसे हो सकता है? क्या आप अकेले उन सभी सन्तों के बराबर हरिगुणगान कर सकते हैं? क्या आप अकेले उन सबके बराबर प्रसाद पा सकते हैं?' सन्त भगवान्ने हँसकर कहा―'तुम चिन्ता मत करो, मैं अकेले ही सबके बराबर भगवद् गुणगान भी कर सकता हूँ और प्रसाद भी पा सकता हूँ। इन्होंने कहा―अच्छा, आप पहले मुझे कुछ हरिगुणगान सुनाइये। सन्त भगवान्ने भावावेश में ऐसा श्रीहरियश सुनाया, मानो हजार मुख और दो हजार जिह्वा से शेष जी ही हरिगुण गा रहे हैं। तब तो इन्हें विश्वास हो गया कि ये निश्चय ही कोई समर्थ सन्त हैं। फिर तो ये प्रेमवश उन सन्त भगवान् को अपने कन्धे पर बैठाकर ले आये और षोडशोपचार पूजा-स्तुति की। तदुपरान्त अनेक प्रकार का प्रचुर भोजन बनवाया। जब सन्तजी भोजन करने लगे तो ये पुनः प्रेमवश बोले―'महाराज ! जैसे आपने हरिगुणगान में अनेक सन्तों की सामर्थ्य अपने में दिखायी, वैसे ही प्रसाद पाने में भी आपको अपना ऐश्वर्य प्रकट करना होगा।' सन्त भगवान्ने कहा―'तुम तनिक भी चिन्ता मत करो, जो भी सामान बना हो सब मुझे परोसते जाओ, मैं अकेले ही अनन्त सन्तों का भोजन करने में समर्थ हूँ। फिर तो श्रीहरिदासजी ने बड़े चाव-भाव से इन्हें भोजन कराया। सन्त भगवान् सब भोजन अकेले ही साफ कर गये। तब श्रीहरिदासजी जान गये कि यह तो भक्तवत्सल भगवान् ही मेरे मनोरथ को पूर्ण करने के लिये सन्तवेष में पधारे हैं। फिर तो उन्होंने भगवान् की बड़ी स्तुति-प्रार्थना की। भगवान् इन्हें स्वस्वरूप का दर्शन कराकर अन्तर्धान हो गये।