महारानी
काली कलूटी महारानी के आगे रूपसी नीता हमेशा दबी रहती। घर में रौब चलता उसका....नीता सुबह उठ कर पति सेे राय लेती अवश्य थी कि क्या बनेगा? कब बनेगा... पर उसे पूरे अधिकार से निरस्त करती बाई और कोई तर्क भी काम नहीं आता। कामवाली उसके सामने ऐसे तर्क प्रस्तुत करती कि नीता निरूत्तर हो जाती।
नीता बैंक में मैनेजर है समय पर पहुँचना उसका कर्तव्य है। इसलिये घर की व्यवस्था कामवाली को सौंपना उसकी मजबूरी, अक्सर वह बाहर जाती तब उन दिनों तक पति परिवार बच्चों को बाई के भरोसे छोड़ना पड़ता। छोड़ना तो उसका भ्रम था, वह तो थे ही उसके ही भरोसे, सुबह नौ बजे निकल कर रात नौ बजे आने वाली नीता परिवार के लिये क्या कर रही थी। यह बात वह स्वयं भी जानती थी परिवार के सभी जानते थे। हाँ सहमति थी कि कामवाली बाई को देने के लिये अच्छे पैसे कमा रहा थी। कामवाली की सुविधाओं में कहीं कोई कमी नहीं आती.....कामवाली को कौनसी चैनल देखना पसंद है, यह नीता जानती थी। पति अपना खाली समय किस चैनल को देखकर समय काटते हैं, इससे नीता अन्जान थी। बच्चों के लिये कुछ प्रतिबन्धित चैनलों को भी पति सुशान्त ने ही सावधानीपूर्वक बंदोबस्त कर रखा था।
नीता अक्सर अपने सहकर्मियों के साथ बात करते समय अपनी कामवाली बाई के हुनर की तारीफ करती। एक दिन किसी सहकर्मी ने नीता को सावधान भी किया था...इतना विश्वास करना ठीक नहीं है नीता ध्यान रखना...पर नीता थी कि उसे ईश्वर के बाद किसी पर भरोसा था तो वह उसकी बाई थी। पूरे दिन उसके घर रहने वाली बाई ने नीता की किन-किन चीजों पर अपना आधिपत्य जमा रखा था, नीता स्वयं अन्जान थी। कौनसी साड़ी वह घर ले जाती, कब वापस ला कर प्रैस करने देती नीता को पता ही नहीं चलता। दूध सब्जी के हिसाब की तो बात ही क्या थी। घर के अन्य खर्चों की डोर भी कामवाली बाई के हाथ में ही थी।
बाबा की नई डैªस बनवानी है। नये जूते लाने है,बेबी की फ्राॅक, जूते, मोजे, किताबें, टिफिनतक सभी का हिसाब कामवाली बाई ही रखती। कभी-कभी नीता को उसकी तत्परता देखकर हैरानी भी होती, पर घर की व्यवस्था निर्बाध चलती देख वह अपना दिमाग इन बातों में कभी नहीं लगाती।
कामवाली को नीता के घर में काम करते करीब ग्यारह वर्षों से अधिक हो चले थे। न जाने किस घड़ी में नीता ने अपने ससुराल के गाँंव की एक लड़की को अपने घर में रहने की सहमति दे डाली। कामवाली बाई की प्रतिक्रिया देखने का तो समय ही कहाँ था नीता के पास। आज दस दिन हो गये थे नीता के घर उस लड़की को आये...रविवार का दिन था उसने देखा कि वह लड़की जिसे उसने बडे़ ही दया भाव से अपने घर रहने को कहा था। आज दस दिन बाद भी उसका कोई निश्चित ठोर-ठिकाना नहीं बन पाया था। उसका सामान गैराज के एक कोने में पड़ा था। समय निकाल कर उसने गाँव की उस भोली-भाली लड़की से बात करनी चाही...उसने देखा कि जब भी उससे कुछ पूछती कामवाली उसे किसी ऐसी बात में उलझा देती है कि आगे बात कर ही नहीं पाती। इस तरह वह भी दूसरे काम में उलझी ही रह गई। अगले दो रविवार भी ऐसे ही निकले नीता ने सोचा यदि उसको कोई परेशानी होगी तो वह स्वयं ही बात कर लेगी।
घर, परिवार और जीवन, कामकाज के साथ ऐसे ही चलता रहा। हम कभी भी किसी दीवार का सहारा लेते हैं तो हम भी नहीं जानते कि वह कब ढह जायेगी। हम कामकाजी महिलाओं की यही मजबूरी है,इस पुरूष प्रधान समाज में बाहर काम करते समय टिके रहने के लिये बाहर का काम प्रमुख होता है और परिवार नगण्य। घर, परिवार सदा दूसरे स्थान पर ही आते हैं। चाहते हुये भी वह हमारी वरीयता सूची में प्रथम नहीं हो पाते।
नीता की अचानक आँख खुली तो सुबह के आठ बज चुके थे। अभी तक चाय नहीं बनी थी, ऐसा कैसे हो गया...सोचती हुयी बाहर आई तो देखा....वह लड़की चुपचाप एक कोने में बैठी है। घर का दरवाजा बन्द है, पति सुबह की सैर के लिये निकल चुके हैं। घर में किसी तरह की आवाज न देख नीता ने उस लड़की से पूछा कामवाली के बारे में, उस लड़की ने बताया अभी तक नहीं आई है कामवाली.....। नीता ने सोचा चलो फोन करते हैं और नीता ने उस लड़की से चाय बनाने को कहा। डरी सहमी लड़की नीता को टुकुर-टुकुर देख रही थी....कुछ समय बाद उसने दूध,चाय, चीनी आदि के बारे में पूछा तब नीता को अहसास हुआ कि इसे अभी तक रसोई घर की कोई जानकारी है ही नहीं......।
पता नहीं कैसा भय था उसके चेहरे पर रसोई घर में जाने के नाम से......। नीता के फोन करने पर जानकारी मिली कि कामवाली का कल रात किसी से झगड़ा हुआ है और उसे गम्भीर चोटें आई हैं।
अब शुरू हुई थी नीता की असली जंग....इतने वर्षों से अपनी गृहस्थी से अन्जान नीता तो इससे भी अन्जान थी कि पीने के लिये पानी का गिलास भी कौन सी शैल्फ में से निकाला जाता रहा है। सारा मूड खराब हो गया। सारे कार्यक्रम धरे के धरे रह गये। आज समझ आया नीता को कि.....बच्चे कैसा घर बिखेर कर रहते हैं, कैसे अखबार पढ़ने के बाद पति महोदय उसे लावारिस छोड़ कर उठ जाते हैं। दूध वाले के दूध के लिये बर्तन नहीं रखने पर, वह कैसे बिना दिये ही वापस लौट गया। आदि, आदि।
नीता सोचने लगी कि उसने क्यांे नहीं जानना चाहा कि यह लड़की सारे दिन साथ रह कर भी काम सीख क्यों नहीं पाई? वह तो उसे इस घर में इसलिये लायी थी कि कामवाली को भी थोड़ी मदद हो जायेगी। नीता ने निर्णय किया खाने का आर्डर कर दिया जाय। चाय के साथ टोस्ट का इन्तजाम करने में व्यस्त होती नीता ने सोचा क्यों न कामवाली के घर जाकर एक बार कामवाली से मिल लिया जाय। नाश्ते के बाद नीता ने गाड़ी निकाली और कामवाली के घर की और जाने लगी....।
कामवाली के घर पहुँचने में नीता को कोई परेशानी नहीं हुयी। नीता ने देखा कामवाली के घर के आगे अभी भी लोग बैठे हैं। समझ आने लगा कि यह झगड़ा सम्भवतः बड़ा रूप ले चुका है। कामवाली के सिर हाथ-पाँव पर पट्टियां बंधी थी। कराहते हुये ही उसने स्वागत किया था। नीता आश्वस्त थी कि सब जल्दी ठीक होने जैसी ही परिस्थितियाँ थी। कामवाली के पति नीता की आवभगत करने की दौड़-भाग में लगे थे। उसने देखा कामवाली के बच्चे, उसके बच्चों के कपड़ो में जंच रहे थे। सामने खुली अलमारी में उसी के बच्चों के नये पुराने कपड़ो को करीने से रखे देख कर नीता दंग रह गई। उसके बच्चों की पानी की बोतल, उनकेे कपड़े नये के नये जूते, मोजे, उसकी अनेक प्रिय साडियाँ, पर्स जैसे उसे मुँह चिढ़ा रहे थे। यहाँ तक कि चाय के लिये लाया गया कप भी उसी टी-सेट का हिस्सा था,जो वह अभी कुछ महीनांे पहले दुबई से लाई थी। वहाँ बैठी नीता को अहसास होने लगा कि कामवाली ने उसकी गृहस्थी को सँवारने के नाम पर अपनी गृहस्थी आबाद कर ली थी। किसी शातिर चोर की तरह उसका सोच-समझ कर उठाया गया, एक-एक कदम आज उसे समझ आने लगा था।
कैसे बच्चों का स्कूल यूनिफाॅर्म फटती रहती थी। किताबें, काॅपियां खो जाती थी। पति की मंहगी-मंहगी कमीजें उसे एैसे चिढ़ा रही थी, मानों उसकी हार का जश्न मना रही हो।
कामवाली का समाचार जानने के बाद बिना कुछ बोले ही नीता अपने घर वापस आ गई। एक गम्भीर चुप्पी से जब उसने घर में प्रवेश किया तो पति चिन्तित हुये। नीता ने आश्वस्त किया कुछ दिन में ठीक हो जायेगी। पति बार-बार पूछते रहे, ईलाज के लिये पैसे दे आई हो या नहीं? वह बस चुप रही समझ नहीं आ रहा था,क्या निर्णय ले......... अलमारी खोलकर देखने पर अपनी ही अलमारी पराई लग रही थी। सब कुछ नया नज़र आने लगा.....करीने से लगे डिनर सैट के लापता बर्तनांे की खाली जगह मुँह चिढ़ा रही थी। नीता आज सोच रही थी कि उसकी नौकरी से दो गृहस्थियाँ आराम से चल रही थी। इसका अफसोस नहीं था। उसे अफसोस था कि वह स्वयं इससे अन्जान क्यों थी? उसमें अब इतनी हिम्मत नहीं बची थी कि वह पति को सारी बात बता सके। जानती थी उसका ही दोष गिना जायेगा। आॅफिस में भी इसकी चर्चा नहीं कर सकती थी। कितनी चेतावनियाँ दी जा चुकी थी। जिसपर नीता ने कभी ध्यान नहीं दिया।
आज उदास और खिन्न मन से बैठी नीता ने पति को सूचित किया कि वह एक सप्ताह की छुट्टी लेकर घर रहना चाहती है। अपने बच्चांे को और आपको अच्छा खाना बना कर खिलाना चाहती है। उसके इस निर्णय से पति अचंभित थे, पर वह आश्वस्त थी और चाहती थी कि इन कुछ दिनों में आगे के लिये वह कोई सही निर्णय ले ही लेगी। एक हफ्ते की मेहनत में नीता ने घर की काया पलट कर रख दी। उसे स्वयं विश्वास नहीं हुआ कि कुशल गृहणी के गुण उसमें अभी भी विद्यमान हैं।
आज तीस वर्षों की शानदार मान सम्मान भरी नौकरी छोड़ कर भी नीता को अफसोस नहीं था। अचंभित थी कि एक अनपढ़, अशिक्षित, सामान्य सी महिला ने उसे यह निर्णय लेने के लिये पे्ररित किया। युवा पुत्र-पुत्री भी उसके इस निर्णय से आश्वस्त थे। बंधनों में बंधना किसे भाता है पर माता-पिता के प्यार के बंधन भी मीठे ही लगते हैं।
आज नीता साठ वर्ष की हो चुकी हैं। पति के साथ पहाड़ों पर घूमने आई है। हिलटेन होटल से सुन्दर नज़ारें नज़र आ रहे थे। रात हल्की बरसात हो चुकी थी, मौसम खुशनुमा था। उसके कमरे के पास के कमरे से कुछ आवाज आ रही थी। नीता को वह आवाज जानी पहचानी लगी। इसलिये उत्सुकता से रूक कर ध्यान दिया। कुछ समय बाद दरवाजा खुला और उसकी सहकर्मी सुगंधा उसके सामने खड़ी थी। नीता को देख कर चहक पड़ी सुगंधा। वही तो थी पूरे आफिस में जिसके रहने और रख-रखाव के अंदाज को सभी सराहते थे। सुगंधा से बहुत वर्षों बाद मिलना हुआ था। एक दो बार आफिस छोड़ने के बाद अपने बाकी पैसे लेने अथवा फाईल देने जब गई तभी अन्तिम बार मिलना हुआ था सुगंधा से। एक आध बार उसका फोन भी आया पर नीता ने स्वयं को जैसे गृहस्थी के लिये समर्पित कर दिया था। नीता को याद आया कि पूरे आॅफिस में सुगंधा ही तो थी जो उसे आगाह करती रहती थी। उसकी गृहस्थी के लिये......सुगंधा वहाँ अपने पति के साथ आई होगी, नीता ऐसा मान कर चल रही थी....हम बातंे करते रहे। कभी मौसम की, कभी पुराने समय की। बच्चों के बारे में पूछा उसके बच्चे अच्छे पढ़-लिख कर काम करने लगे थे। मैं भी बच्चों के बारे में गर्व से बता रही थी। दूर बैठे पति मोबाईल पर लाॅन में आने का आग्रह कब से कर रहे थे। सो शाम के समय कमरे में ही पुनः मिलने का निर्णय कर हम अलग हुये।
दिन भर घूमने के बाद थकान स्वभाविक थी। खाना खाने नीचे जाने की इच्छा तो नहीं थी, पर पति के आग्रह पर नीचे जाना ही पड़ा और कोने की टेबल पर जाकर खाने का आॅर्डर कर इन्तजार करने लगे। सामने से सुगंधा को आता देख, मैंने पति को उसके बारे में बताया। पति ने भी उसे अपने साथ आकर भोजन करने को आग्रह कर ही दिया। झिझकती सी वह हमारे साथ आकर बैठ गई। पास कुर्सियों में एक कुर्सी खाली छोड़ हम बैठ गये। उसकी पसंद पूछने पर उसने सादा भोजन की मांग की और आॅर्डर देकर आराम से बातें करने लगे.....करीब बीस मिनट के बाद नीता के पति ने सुगंधा से पूछा कहाँ हैं, आपके श्रीमान्! अभी देर लगेगी क्या आने में......? अचरज से सुगंधा ने पूछा ’’क्या आप उनके आने का इन्तजार कर रहें हैं’’ हम एक साथ बोले हाँ.....और सुगंधा ने बताया कि वह तो अपने दोस्तों के साथ यहाँ आई है और वह सब लोग किसी दूसरी जगह गये हैं। पति के विषय में पूछने पर उसने धीरे से कहा वह उस शहर में ही हैं। कुछ समय तक एक अन्जान चुप्पी सी पसरी रही, तीनों ने भोजन करना शुरू किया, बातों का विषय भी रोचक रहा। यात्रा सहयात्री और होटल....। खाना खाकर हम अलग हो गये। जाते समय सुगंधा मेरा मोबाईल नम्बर ले कर अगले दिन बात करने की बात कह कर चली गई। मुझे अच्छा लगा इतने समय बाद कोई बात करने वाला मिला। पुराने दिनों की यादें ताजा हो गई। दो दिन हम पास की जगहों को देखने में व्यस्त रहे, निकलने के दो घंटे पहले सुगंधा का फोन आया ’’क्या कर रही हो, आना चाहती हूँ तुम्हारे रूम पर’’....मैंने सहर्ष स्वीकृति दी और सुगंधा कमरे में आकर सामान समेटने में मेरी मदद करने लगी....।
काम पूरा होने के बाद चाय के साथ बात करने की सोच कर हम बाहर बरामदे में आकर बैठे...। सुगंधा ने धीरे से कहा नीता हमारे लिये दूसरों को सलाह देना आसान होता है और स्वयं पालन करते समय चूक जाते हैं......मैं उसके अप्रासंगिक उद्बोधन को स्पष्ट तौर पर समझ नहीं पाई और प्रश्नवाचक नज़रों से उसकी ओर देखा.......आँखों की कोर में जबरन चले आये, आँसुओं को पोंछते हुये उसने बताया कैसे उसकी ठसकेदार कामवाली जिसका रौब वह सब पर झाड़ा करती थी, उसकी ही आँखों में धूलझोंक कर घर गृहस्थी सम्भालती, उसके पति को ही ले उड़ी......। मैं सन्न रह गई क्या कहूँ। मेरी सारी कहानी तो मैं उसे पहले ही सुना चुकी थी।
सबसे बड़ा दीन दुर्बल वह है
जिसका अपने ऊपर नियंत्रण नहीं।
प्रभा पारीक, भरूच, गुजरात