समर्पण prabha pareek द्वारा फिक्शन कहानी में हिंदी पीडीएफ

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समर्पण

                                            समर्पण  

 तृप्ति आखिर पहुंच ही गई उस घर के दरवाजे तक|  राज्य परिवहन की बस से उतरते समय कंडक्टर ने तृप्ति को रास्ता तो बता ही दिया था। पहाड़ी रास्ते से होते हुए तीन किलोमीटर तक चलने के बाद पहुंचा जा सकता था।  तृप्ति  छोटा सा बैग उठाए चलने लगी। रास्ते में होटल वाले से शाम को रुकने की बात करके आगे बढ़ गई। सघन हरियाली, मधुर वातावरण पर मन में व्यग्रता। राह में लोगों से पता पूछते पूछते  कई पहाड़ी पगडंडियाँ पार करके आखिर तृप्ति ने वो मकान ढूंढ ही लिया।

     अपने असमंज में द्वार खटखटाया था। दरवाजा खुला जिसने खोला वह निश्चय ही गृह स्वामिनी तो नहीं थीं। अतः ऊपर से नीचे निहारते हुए तृप्ति ने उसे  चारू जी को बुला लाने को कहा। वह स्त्री तृप्ति को स्वागत कक्ष में बिठाकर चारू जी को बुलाने अंदर चली गई । तृप्ति ने सादा सलवार कुर्ता ही पहन रखा था। पंद्रह दिन की अल्प बीमारी के पश्चात हुई पिताजी की आकस्मिक मृत्यु का कम सदमा भी तो नहीं था  तृप्ति के मन पर। सब काम विधिपूर्वक निपटाया जा चुका था। बड़ी  बहनों  के जाने से पहले वसीयत भी पढ़ ली गई थी।

   तृप्ति वकील साहब को बाहर छोड़ने गई। उसी समय एक लिफाफा तृप्ति को देते हुए वकील साहब ने कहा था ’’तुम्हारे पिताजी ने यह तुम्हारे ही हाथ में देने को कहा था’’ तृप्ति ने असमंजस से कहा ’’मुझे ?” छोटा सा पत्र था। जिसमें दिए गए पते पर चारू पंत नाम की स्त्री को मिल आने और भविष्य में जरूरत पड़ने पर मदद कर देने  निवेदन था।  आशावान पिता ने अपनी पुत्री से मां को इस विषय में कुछ नहीं बताने को भी कहा था। तृप्ति भी कंपनी के काम का बहाना बनाकर यहां तक आ सकी थी। मम्मी की भावनाओं का भी कितना ख्याल रखा पापा ने। अपने जाने के बाद भी वे इसे लेकर सतर्क थे।

 वैसे पापा उन लोगों में से थे भी नहीं जो पत्नी पर अपने निर्णय थोप कर मजे करते हैं |मम्मी पापा  दोनौ सदा सलाह मशवरा करके ही निर्णय लेते थे। जो सबको मान्य भी होते थे। समाज में सभी उन दोनों के सधे हुए व्यवहार व प्रेम की तारीफ करते नहीं थकते थे। उनके लिए सदा एक आदर्श दंपत्ति का संबोधन  था।

तृप्ति ख्यालों में डूबी थी कि अंदर से गृह स्वामिनी का आगमन हुआ। बालों में सफेदी की झलक रही थी|  साधारण किंतु आकर्षक व्यक्तित्व तृप्ति को  प्रश्नवाचक नजरों  को देख कर चारूजी ने बैठने का इशारा किया। तृप्ति को ध्यान आया--- अपना परिचय देना चाहिए। धीरे से कहा ’’मैं सुबोध कांत जी की बेटी तृप्ति हूं।’’ नाम सुनकर  चोंकी  और बोली ’’सब कुशल तो है, तुम्हें क्यों भेजा यहां’’ ठन्डी आवाज में जवाब दिया था तृप्ति ने ’’ पापा का देहांत हो गया है’’। रोना रोकने के प्रयास में आवाज आगे नहीं निकल पाई थी। तृप्ति ने अपनी  आँखें  चारूजी के चेहरे पर गड़ा दी, देखना चाहती थी कि पापा की मौत का  समाचार पाकर इस स्त्री के चेहरे पर क्या प्रतिक्रिया आती है।    

तृप्ति की बात सुनकर  चारुजी का चेहरा, आंखें स्थिर हो र्गइं। लगा जैसे सब कुछ जानना चाहती हैं।  स्पष्ट  लगने लगा था  सदमा लगा था। सावधानी से उठकर एक कदम आगे भी बढ़ाया। शायद तृप्ति को सांत्वना देने या पीठ पर हाथ रखकर सांत्वना देने की सोच रही हों  फिर भी न जाने क्या सोचकर रुक गई। ठीक किया उन्होंने क्योंकि शायद तृप्ति उनकी संवेदना को  अस्वीकार कर देती, क्योंकि उसके मन में उनके प्रति कोई सम्मान तो था नहीं और रास्ते भर तो वह क्रोध में उफनती ही आई थी।

तृप्ति तो बस अपने पिता की अंतिम इच्छा पूरी करने चली आई थी। साथ ही यह निर्णय ले चुकी थी कि  भविष्य में इस रिश्ते को कोई समर्थन नहीं देना| इनके साथ यही उसका एकमात्र संपर्क होगा। यदि पिता के प्रति उसके कर्तव्य हैं तो माता के प्रति तो अब और भी अधिक हैं।तृप्ति अपनी चेक बुक साथ ले आई थी  कि  इस निर्णय के साथ कि थोड़ी बहुत आर्थिक सहायता करके संबंध खत्म कर दूंगी। कुछ कहने ही जा रही थी कि चारू जी ने कहना शुरू किया ’’हमने एम बी ए साथ किया था। इतनी लंबी जान पहचान की उम्मीद नहीं थी। बिना सोचे समझे अचानक कृति के मुंह से निकल गया और आज तक संबंध बनाए रखा,? मेरे पापा तो ऐसे नहीं थे| आप  स्त्री होकर भी स्त्रियों कर संवेदना को क्यों नहीं समझ पाईं ---| बात को आगे बढ़ाने के बदले उन्होंने उसका रोक दिया कि मैं अभी अभी ऑफिस से आई हूं और तुम सफर से भूख  का कुछ उपाय कर ले पहले, चाय के साथ आराम से बात करेंगे| तृप्ति  हाथ धोते   हुए विचार कर रही थी अपनी बातों से मुझे न बहला  पायेंगी आप |

चाय के साथ आमने-सामने बैठते समय सोच लिया था कि बात की तहत तक तो जाना ही है| मन ही मन दृढ़ निश्चय कर चुकी थी कि रात को होटल में ही जाना है| चाय पीते हुए चारू जी ने अपनी बात शुरू की तृप्ति  जानने को उत्सुक थी कि वह स्वयं किस तरह इस रिश्ते की सफाई देती है| शांत बैठी सुन रही थी चारू जी भले साँवली  थी पर एक दीप्ति थी उनके चेहरे में, लंबे बाल, सादा सूती सलीके से बंधी साड़ी, हाथ में मर्दाना घड़ी तृप्ति के पूर्वाग्रह ही थे जो उनसे प्रभावित होने को रोक रहे थे| चारू जी ने बोलना शुरू किया| “एमबीए के दौरान मेरी व सुबोध सुबोध की अच्छी दोस्ती हो गई थी सुबोध  सरल मेहनती और सिद्धांतों के पक्के थे शिक्षकों, छात्रों में लोकप्रिय| कोर्स के अंत तक हम बहुत करीब आ गए थे| बिना कुछ कहे विदित  था क्या एक सूत्र में बंध जाएंगे| बस यही हमारी भूल थी, हमारे  रूढ़ीवादी माता-पिता किसी भी तरह जात बिरादरी के बाहर विवाह करने को राजी नहीं हुए और हमने परिवार में बड़े बुजुर्गों का विरोध करने का साहस नहीं था और एक यह डर भी था कि मेरी छोटी बहन का विवाह करने में बाधा आएगी मेरे माता-पिता वे तो अपने पसंद का लड़का मुझ पर लाद रहे थे या मैं अपनी पसंद के किसी भी लड़के से जो हमारी जाति का उससे विवाह कर सकती थी|

 पढ़ाई पूरी करने के बाद हम सब अपने अपने घरों घर लौट चुके थे| अपनी लड़ाई अलग-अलग रहे थे सुबोध भी कहीं और विवाह को तैयार नहीं थे| तुम्हारी दादी इकलौते बेटे का विवाह करने को आतुर थी मैं जानती थी कि जब तक मेरा विवाह नहीं हो जाता सुबोध  विवाह नहीं करेंगे अतः एक  वर्ष के पश्चात जब मुझे लगा कि मेरे माता-पिता किसी भी तरह अनुमति नहीं देंगे तो मैंने सुबोध के शहर में रहने वाली मेरी सहेली कामना को हम राज बनाया| उसे सिर्फ यह संदेश सुबोध तक पहुंचाना था कि मेरा विवाह हो गया और मैं अपने परिवार में बहुत खुश हूं|

सुबोध बहुत नेक इंसान थे उनमें गहरा कर्तव्य बोध था| मैं जानती थी कि एक बार विवाह हो जाने के बाद वह अपनी पत्नी को दुखी नहीं करेंगे और देखा जाए यह अपराध भी मैंने ही किया था| हमारे बारे में सुबोध ने जब अपने माता-पिता को बताया तो उन्होंने विवाह की सहर्ष स्वीकृति दे दी थी मगर मेरे यहां से विरोध था| मैं यह नहीं चाहती थी कि मेरे कारण सुबोध के घर का सुख चैन  खो जाए|

 इसके बाद भी सुबोध  ने मुझे दो पत्र लिखे  जिनका मैंने जवाब दिया ही नहीं| वह समझे पत्र  मुझ तक पहुंचे ही नहीं---|  सुबोध का विवाह होने से मेरे मन का बोझ उतर गया पर मैं भी हठी  थी| माता-पिता द्वारा सुझाए हुए लड़के को मैंने किसी ना किसी बहाने अस्वीकार कर दिया| मुझे स्वयं पर विश्वास ही नहीं बचा था कि मैं जीवन में आने  वाले किसी अन्य  पुरुष के साथ न्याय कर पाऊंगी बस यही तसल्ली थी कि सुबोध  एक भरपूर जीवन जी रहे थे| तीन पुत्रियों के साथ खुश संतुष्ट थे|

 मैं भी नौकरी करने लगे बहन का विवाह सजातिय  युवक के साथ हो गया|

 समय चलता रहा| पिता चल बसे मां मेरे पास ही रही,  मेरे मन मैं  कुछ नहीं किसी से कोई गिला शिकवा भी क्या?  न कोई  उम्मीद| सभी सहपाठियों से भी खुद को दूर कर लिया जो सुबोध  के संपर्क में आ सकते थे| तने बड़े देश में गुम हो जाना कहां कठिन है और सुबोध  ने  यह मानकर कि मेरा विवाह हो चुका है मुझे  ढूँढने का कोई  प्रयत्न नहीं किया| लेकिन कुछ बरसों के बाद उन्हे  पता चल गया कि मैंने विवाह नहीं किया और उन्होंने साथियों के द्वारा मेरा पता ठिकाना भी पा लिया| अपराध बोध तो होना ही था सुबोध महीने में एक आद बार मेरा हाल चाल पूछने लगे| आकर मिलने की बात भी की, शायद मिलकर तसल्ली कर लेना चाहते थे कि मैं सुरक्षित कुशल हूं ना पर मुझे तुम्हारी मां की अपराधी बन कर नहीं जीना था| मेरे प्यार में घर बसाना था घर उजाड़ना कतई नहीं और एक स्त्री होने के नाते मैं दूसरी स्त्री का बसा बसाया घर बिगाड़ने की बात कैसे सोच सकती थी| वो  विश्वास दिलाते रहें कि  अपनी पत्नी के प्रति कर्तव्य में कोई कमी नहीं आने देंगे| पर मैँ कतई  तैयार नहीं थी |

अवकाश प्राप्ति के बाद यहां छोटा सा घर ले लिया| महानगर की अपेक्षा यहां ज्यादा सुरक्षित महसूस करती हूं, एक छोटी सी नौकरी के सहारे समय कट जाता है और कुछ परिचय भी हो गया युवावस्था में अकेले रहना मुश्किल  लगता है पर जब तक मां का साथ भी था| पर अब ढलती उम्र में फिर असुरक्षा की भावना आने लगी है|

 मुझ से भी अधिक तुम्हारे पापा को मेरी चिंता थी| तृप्ति  सब चुपचाप बैठे सुन रही थी| उसका दबा  क्रोध पिघलता जा रहा था|

अब  चारूजी चुप थीं , बीते दिनों की यात्रा में थक गई थी शायद और तृप्ति के पास तो वैसे भी कहने को कुछ था ही नहीं धीरे-धीरे चारूजी ने फिर से कहना आरंभ किया| “तुम मेरी बेटी के समान हो कैसे क्या कहूं| अब तुम बड़ी और समझदार हो चुकी हो तृप्ति प्यार सोच समझकर नहीं किया जाता मुश्किल तो तब है जब परिवार इसे स्वीकृति नहीं देता| जिंदगी में जो हमारी इच्छा अनुसार ना हो सके उसे चुपचाप स्वीकार कर लो, जिंदगी जीने का यही एकमात्र उपाय है|

 भोजन के बाद तक भी इस तरह जीवन के विभिन्न रंगों का सिलसिला चलता रहा| बाकी दो बहनों के बारे में भी जानती थी चारूजी थोड़ा बहुत सभी के बारे में बड़ी आत्मीयता से पूछा विचार कर रही थी कि मां के विषय में बात नहीं की संभवत और लिखित समझौते का पालन कर रही थी|

 पापा के बारे में विस्तार पूर्वक जानना चाहा न जाने क्यों चारू जी के साथ  पापा के विषय में बात करना तृप्ति  को अच्छा लग रहा था और बातें देहांत तक भी पहुंची|  पापा की बीमारी उस दिन की बात सुनकर उनके चेहरे पर गहरा विशाद  छा गया| उन्हें फिर से खो देने की पीड़ा---- इतना ही कहा है हरि  इच्छा ---! मेरी  अब होटल में  रात बिताने की हिम्मत नहीं थी| इतना जान लेने के बाद शायद मन में ऐसी भावना भी नहीं आई| चारुजी की आत्मीयता  ने कुछ घंटों में ही उसे अपने होने का एहसास करा दिया| सामने पापा का विद्यार्थी समय का चित्र रखा था| सोच रही थी कि इस चित्र के सहारे चारूजी ने  पिता के नाम पर पूरी जिंदगी बिता दी| पिता ने तो अपना जीवन पूरा जीया था |

 सुबह जाने की तैयारी है तृप्ति चारूजी के चेहरे पर आज अनोखी शांति है| बरसों की  भावनाएं बह कर  चेहरे को निर्मल तो कर गई तृप्ति को आज समझ आया जो दूसरे का ही सदा सोचते हैं उनके चेहरे पर ऐसा तेज क्यों होता है? आज,  क्या सही है और क्या गलत है इसका निर्णय करना तृप्ति के लिए तो कठिन नहीं असंभव था।

प्रभा पारीक, भरूच गुजरात