रंगों भरी होली
त्योहार चाहे कोई भी क्यों न हो, हमारे बुजुर्गों का भी मन मचलता है कि वह भी इस अवसर पर, जी खोल कर अपने हम उम्रों के साथ अपने तरीके से, क्षमताओं को ध्यान में रखकर त्यौहार मनायें और उसमें उनकी संतानों की सहमति स्वीकृति के साथ उनकी भी पुरानी यादें ताजा बनी रहें। जीवन का उत्साह कायम रहे और अगले वर्ष के सुखद इन्तजार में अपना समय बिताकर जीवन की डोर से बंधे रहें।
पंकज सर को होली का इन्तजार वर्ष भर रहता, न जाने क्यों होली का त्योहार और होली खेलने के नाम से ही उनकी आँखों में एक चमक सी कौंध जाती। पंकज सर की आँखों में होली मानों सपना बन कर स्थान बनाये हुये थी। इस साल भी होली खेलने का आयोजन पंकज सर ने अपने घर के लॉन में ही रखने का फैसला पहले से ही सुना दिया था। सारे स्टाफ को तैयारी के निर्देश देने बाकी थे।
भगवान कृष्ण की भव्य प्रतिमा के सामने गुलाब, मोगरा, चमेली के फूलों के बडे़ थाल थे। छोटे-बडे़ ढोलकों को कतार में सजा के रखा गया था। यहाँ तक कि चंग, ढफलियों को भी सजाया गया था। साथ में हारमोनियम, तबला, तानपुरा और झांझ भी नज़र आ रहे थे, कैसा नज़ारा था मुठ्ढों पर बैठे बुजुर्ग। पंकज सर की चाहत तो थी कि आगन्तुकों पर पुराने समय जैसे ’’गुलाब घोटा’’ की बौछार करवा कर होली की शुरूआत करते, पर आज के समय में यह कहाँ सम्भव है। कहाँ सम्भव था कसुम्बल केसूड़ा के रंग से भिगोना, गुलाब से बने रंगों में डुबो देना और स्वयं डूब जाना फिर भी उनकी सफलता किसी शब्दों की मोहताज़ नहीं थी।
लॉन के चारों तरफ अशोक के पत्तों की बन्दनवार आयोजन की सात्विकता का परिचय दे रही थी। बेसन की बर्फी, गुलाब जामुन, जलेबी की खुशबू से वातावरण महक रहा था। मठरी, कांजी, बडे़, दही बडे़ और वो पुराने समय के कुल्हड़ों में परोसी जाने वाली छाछ, रबड़ी की व्यवस्था थी। मेथी के गरम पकौडे़ वो भी पुदीने की स्वादिष्ट चटनी के साथ।
दूसरी तरफ गुलाल के थाल सजे थे, उसमें तरह-तरह के रंगों के साथ खुशबूओं का भी अनोखा मेल था। पानी में घोलने वाले वो प्राकृतिक रंगों की व्यवस्था थी, जिसके लिये पानी के बडे़-बडे़ कुन्ड थे और उनमें पानी की धार फेंक कर मारने वाली पित्तल की वह पुराने समय की कुप्पीयाँ। पानी को केवड़ा, गुलाब, खसखस की खुशबूओं से सराबोर करने के बाद सतरंगी पानी से भरे पीतल के कुन्ड और परम्परागत तौर पर पत्थर पर घुटती ठन्डाई के लिये बुलाये गये लोग, जो घोट पीस कर कपड़े से ़छानकर स्वादिष्ट ठन्डाई तैयार कर रहे थे। शहनाई बजाने वालों ने भी मादक फाग की धुन जैसे ’’देवरियो मतवालो’’ जोकि होली के त्योहार के अनुरूप हो, बजाने के निर्देश दिये जा चुके थे। जो फागुन आने के संदेश के साथ पचरंगीया रंगा देने की याद दिला रही थी। रंगों भरे इस माहौल को और भी परम्परागत बनाने के लिये रंगीन सांफों का भी बन्दोबस्त किया जा चुका था। पान की सजी गिलौरियां स्वागत के लिये आतुर नज़र आ रही थी।
कसुम्बल रंग से सराबोर होते हुये माहौल व आयोजन अत्यन्त सादगी भरा था। तश्तरियों में गुलाल सजा था। पकवानों के थाल सजे थे और आज के दिन आने वाले सभी अतिथि भी भौंचक्के से इस परम्परागत आयोजन को देख कर खुश तो थे, पर कुछ आयोजन में सोमरस (मदिरा) की अनुपस्थिति से थोडे़ निराश भी हुये। पंकजजी सबका स्वागत दिल खोल कर रहे थे। सभी तरह के पकवान गरम तैयार हो रहे थे। पंकज सर के साथ इस बार अन्य सभी भी उत्साह से भाग ले रहे थे। औपचारिक व अनौपचारिक आमंत्रण मिलने वाले सभी आ चुके थे। वर्षों से पंकज सर इस उत्साह उमंग भरे त्योहार का आयोजन अपने घर में ही तो करते आ रहे हैं, पर इस वर्ष सभी को अपने पूरे परिवार के साथ अर्थात माता-पिता सहित इस उत्सव में भाग लेना अनिवार्य था। जिसका कारण किसी को भी तो समझ नहीं आया था। युवा जोड़ों की सोच थी कि माता-पिता की उपस्थिति से उनकी आज़ादी में खलल होगी। रंगों भरा होली का यह त्योहार जिसमें जी भर कर नशा करने, त्योहार के नाम पर ली जाने वाली छूट पर कोई प्रतिबन्ध नहीं, ऐसे अवसरों का इन्तजार हमेशा रहता है। हाथ आया अवसर सभी बड़ों की उपस्थिति के कारण नीरस हो कर रह जायेगा।
पंकज सर ने इस वर्ष अपने माता-पिता के साथ सभी के माता-पिता को भी इस त्योहार के आनन्द में शामिल करने का निश्चय किया था। आज के तीस चालीस वर्षों पहले उनके मोहल्ले में जैसी होली मनाई जानी थी। पंकज सर के मन में वैसी ही सौहार्दपूर्ण होली मनाने की इच्छा थी। जिसे इस वर्ष पुनः मनाने का विचार आया और उन्होंने कमलेश सर की मदद से एक सुन्दर आयोजन कर ही डाला। पंकज सर को कोई अंदाज़ नहीं था कि इस कार्यक्रम को कितनी स्वीकृति मिलेगी, कोई प्रतिक्रिया खुलकर सामने अभी तक नहीं आई थी। सबको याद है, पर न जाने क्यों जब भी बात होती पंकज सर का मन कुछ फीका सा हो आता और बाद में बात करेंगे , यह कह कर अगले दिन पर बात छोड़ दी जाती। कमलेश सर पंकज सर के अधिक निकट हैं, उन्हें ही यह जिम्मेदारी सोंपी गयी कि वह पंकज सर की इस नीरसता का कारण जानें ।
आज पंकज सर ने स्वयं ही कमलेश जी को बुलाया और अपने मन की उलझन बतायी, जिसे सुन कर कमलेश सर के मन में पंकज सर के लिये इज्जत और बढ़ गयी। होली का उत्सव समापन का नाम ही नहीं ले रहा था। शाम के चार बजे तक पूर्ण जोश और उमंगों के साथ होली का आनन्द चलता रहा। पंकज सर की आँखों में सन्तोष स्पष्ट झलक रहा था। सन्तोष था अच्छे संस्कारों का जो माता-पिता ने उन्हें दिये थे, सन्तोष था कि इस त्योहार पर हमने हमारे बुजुर्गों की छत्रछाया में आनन्द मनाया, जोकि हर वर्ष से अलग था। आज की इस रंग भरी होली का उत्सव।
कार्यक्रम में आगमन के साथ ही सर्वप्रथम भगवान कृष्ण को पुष्प चढ़ाये और फिर सभी बुजुर्गों की गुलाल लगाकर चरण वंदना करें। फिर साठ वर्ष....से ऊपर के युवा लोगों का तो कहना ही क्या था जो खुशी उनके चेहरों पर थी, वह दर्शनीय तो थी ही किसी को किसी से संकोच नहीं, गुलाल से सबके चेहरे रंगे हुये अति सुन्दर थे और आरम्भ हो गया होली के गीतों का सिलसिला। कब किसने ढोलक सम्भाला, किसी ने हारमोनियम और तबला और जो समां बांधा, उन तथाकथित जीवन रूपी वृक्ष के पीले पड़ते पत्तों ने युवा समूह को भी मजबूर कर दिया अपनी ओर खींचे चले आने को और एक-एक कर सभी अपने आप उसी समूह में जुड़ने लगे थे ’’गीत था मोहे भाये ना हरज़ाई रंग हल्के’’ इस पर सभी बड़ों ने जो आपस में रंग उड़ाये कि सारा माहौल रंगीन हो गया। आजकल के बेतुके गानों पर कोई नृत्य भी कितनी देर तक कर सकता है। शराब में भी कहा था इतना नशा जितना इस पुराने ज़माने के कहे जाने वाले समूह के लोगों के संगीत व ढोलक की थाप में था, पता ही नहीं चला कब, कौन मनचला कृष्ण बना, कब राधा बन बहुओं ने नृत्य का मोर्चा सम्भाल माहौल को और भी रंगीन बना दिया, फिर तो क्या फाग, क्या होली गीत, बूढे़ भी अपनी जवानी याद करके वापस जवान हो चले थे। आखिर दिल से तो वे सभी अभी तक जवान ही थे।
शालीनता भरे इस होली के उत्सव में ठन्डाई ने भी भांग की मांग नहीं कि और ठन्डाई, भाग के बिना ही अपना काम करती चली गयी, कुछ परिवार तो ऐसे भी थे जिन्हें अपने ही माता-पिता के इस हुनर की जानकारी ही नहीं थी। अपने ही माता-पिता को इस तरह आनन्द में डूबा देख उनकी ही संतानों की आँख भर आई थी। क्या मूंगथाल, क्या मठरी, क्या कांजी बड़ा, दहीबड़ा सभी खत्म होने की कगार पर थे। इतना भरपेट भेाजन पंकज सर के आयोजन में अभी तक कभी नहीं हुआ था। पहले तो सोमरस भोजन का अवसर ही कब आने देता है? जब अवसर आता है, तब व्यक्ति स्वाद लेने की अवस्था में ही कब होता है?
समापन के समय सभी अपने माता-पिता के साथ जा रहे थे, बगैर किसी शर्म के इस बार का त्योहार उन्होंने पूर्ण होश में मनाया, पूर्ण विवेक से मनाया। माता-पिता में भी अभी कितना उमंग, उत्साह जीवन की ललक बाकी है, यह अनुभव भी हुआ और साथ ही जानने को भी मिला कि होली का सही रूप यह भी है, न कोई रासायनिक रंगों का भय, न पानी में फेंके जाने का डर और न ही किसी प्रकार की अभद्र व्यवहार का पछतावा। आधुनिकता की इस होड़ में त्योंहारों का असली स्वरूप कहीं खोता जा रहा है, जिसे पुनर्जीवित करते पंकज सर के इस प्रयास की सराहना खुले दिल से सभी कर रहे थे। त्योहारों के इस बिगड़ते रूप के लिये कहीं न कहीं हम ही तो जिम्मेदार हैं। जिसमें घर से बाहर निकलते समय मन में एक अन्जाना भय व्याप्त रहता है। इस रंग भरे त्योहार से हमारे बुजुर्ग इसीलिये तो दूर रहते हैं क्योंकि इसमें नशा व अभद्रता व व्यक्गित वैमनस्य, द्वेष की भावना शामिल होती जा रही है।
प्रभा पारीक भरूच गुजरात