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एक भयानक चेहरा ये भी

भयानक चित्र यह भी

देवदत्त एक साधारण व्यक्ति था। आज के कुछ वर्षो पहले भी वह कूंची का धनी व कला का महारथी था पर वह और उसका परिवार दाने-दाने को तरसता था। कच्ची बस्ती की एक टूटी-फूटी झोंपड़ी में रहने को मजबूर, उसे जब चित्रकारी का कोई काम मिल जाता तो उसे दिल लगा कर करता और परिवार के लिये दो नहीं तो एक वक्त की रोटी का इन्तज़ाम तो हो ही जाता। देवदत्त को देवदत्त चितेरा के नाम से सारा गांव पहचानता। जैसा देवदत्त शांत व संतुष्ट था, ठीक वैसा ही उसका परिवार.... एक वक्त भोजन और दूसरे वक्त पानी पीकर, अगले दिन की आस आंखों में दबाये सो जाता।

गुजरात का काजीपुर गांव, पत्नी मनोरमा ने उस दिन नीम के पेड़ की ठंडी छांव में बैठे-बैठे कहा था अजी..... क्यूं ना आप कोई ऐसा चित्र बनाएं जो लोगों को बहुत पसंद आये और उस तरह के चित्रों की मांग बार बार करें.....तो हमें भी दोनों वक्त का भोजन मिलने लगे। दुखी दम्पत्ती भी.... शायद यह बात करके भूल चुका था... पर कहते हैं कि हमारे चारों और योगिनियाँ घूमती रहती हैं..... और....वे न जाने हमारी कही बातों या बोलों को चरितार्थ इसीलिये तो कहते हैं कि ‘मुंह से सदा सकारात्मक बोल ही निकलने चाहियें.’...ऐसा ही कुछ तो उस दिन भी हुआ था। देवददत्त चितेरा अपनी पत्नी के साथ पेड़ की ठंडी छांव में बैठा था। उसने पत्नी की बात को सुना और सोचने लगा ‘......काश ऐेसा ही होता मैं ऐसा कोई चित्र बनाऊँ कि.... मेरे परिवार के दिन बदल जाऐं। भूख मिट जाये...’. कोमल शिशु के लिये सुविधायें न सही दो वक्त का भोजन तो जुट जायें’।

और कब उसे नींद आई .....शाम के शोर से जागा तो चेहरे पर मीठी नींद की ताज़गी थी| गुजराती कहावत है “राते सुता सपना जोता दिवसे कदी व पूरा थाता| पण आस छे तोज भास छे“। इस विश्वास के साथ उसके दिमाग में पुनः पत्नी की बात घूमने लगी थी..... गांव का चक्कर लगा कर घर में प्रवेश किया तो नन्हा कानुड़ा ( बाल कृष्ण) वर्ष भर का बालक आंगन में बैठा एक मकोडे़ को पकड़ने के प्रयास में लगा था। भोलापन कितना निडर होता हैं। ‘छोडी दे छोडी दे कानुडा.....’.कहते हुए देवदत्त को हंसी आ गयी बच्चे की भोली निडरता पर ..... उसने देखा बच्चा जब मकोडे़ को हाथ से पकड़ने में सफल हो जाता तो पुलक कर किलकारी मारने लगता..... मकोडे़ के काट लेने के भय से अनजान बालक के चेहरे पर अनोखा तेज़ नजर आया.....। म्हारू कानुड़ो .....असीम प्यार उमड़ पड़ा लालू के लिये .....वैसे भी खुशी में मानव का सौन्दर्य अपने चरम पर पहुंचता है ....बस उसी वक्त देवदत्त ने निर्णय ले लिया कि वह एक शिशु का चित्र बनायेगा। पर ...बालक उसका नहीं होगा....’.नज़र लगने का डर माँ को ही नहीं पिता को भी साहस करने से अटकाता है’। किसी बालक के कोमल सौन्दर्य को चित्रित करता अनेक कानुड़ों के विभिन्न भावों को अपनी तूलिका से चित्रित करेगा। फिर चाहे उसे उसका कोई भी मूल्य मिले... अब देवदत्त ने अपनी कल्पना के शिशु की तलाश आरम्भ की अपनी कल्पना के अनुरूप बालक की तलाश, अधीरता और भूख.... और कुछ ही दिनों में देवदत्त चितेरे ने एक ऐसा बालक ढूंढ ही लिया ....अपने ही गांव के एक मजदूर परिवार का पुत्र....बालक क्या था एक दैवीय रूप था।

उस बालक का चित्र उसने पूरी तन्मयता से बनाया.....बीच बीच में बालक को मनाने.... ध्यान हटाने के लिये..... कानुड़ा ने माखन भावे रे.... जैसे गीत की कड़ी गाता, बालक खिल-खिला का हंस पड़ता.... चित्र पूरा होने पर उसकी स्वयं की आंखें भी उस चित्र पर से हटने का नाम ही नहीं ले रहिं थी।

उत्साह से अपने गांव से चलकर किसी तरह पास के छोटे शहर तक उस चित्र को संभालकर ले गया और बीच बाज़ार में एक दुकान के सामने चित्र को रखकर बैठ गया..... न जाने उस दिन उसकी कब आंख लगी और आंख खुलने पर उसने देखा दस बारह लोग एकटक उसके चित्र को निहार रहे थे।

सभी उससे उस चित्र की कीमत पूछ रहे थे..... देवदत्त चितेरे को इसका अंदाज़ा ही नहीं था| मुंह से कोई कीमत निकल ही नहीं पा रही थी.... हक्का-बक्का.... किसी ने हज़ार दिखाये..... किसी ने दो हज़ार..... किसी ने उससे भी अधिक और अंत में .... एक जोरावर से दिखने वाले व्यक्ति ने सबको धकेलते हुये दस हजार रूपये उसके हाथ में थमाये और चित्र ले कर चला गया। देवदत्त हक्का-बक्का देखता ही रहा। कुछ सुझ ही नहीं रहा हो जैसे....जब कुछ सूझा तो शांत मन से देवदत्त ने सामने खडे लोगों को सम्बोधित करते हुये कहा “भाइयो यदि आपको भी ऐसा ही चित्र चाहिये तो दस दिनो के बाद यहीं इसी जगह पर आप अपना अपना चित्र ले जा सकते हैं | सबका आभार मानता हुआ देवदत्त चितेरा उन रूपयों को सुरक्षित मुठ्ठी में थामें तेज गति, प्रफुल्लित मन से घर की और चल दिया। दिल इतना पुलकित था की घर की डगर लंबी लगने लगी थी। घर पहुंचते ही अपने बालक का माथा चूमा, पत्नि को रूपये पकड़ाता अपनी माँ से बोला .....माँ मुझे जल्दी ही वैसे दस चित्र बनाकर देने हैं।

आज घर में बहुत दिनों के बाद उस बालक के चित्र के कारण घरवालों ने भर पेट भोजन किया था। दूसरे दिन से ही देवदत्त चितेरे ने उसी बालक के सोकर उठने से शाम तक के कार्यकलापों के मनोहर चि़त्र बनाना शुरू कर दिया। देवदत्त के चि़त्रों की मांग बढ़ने लगी| मुह मांगे दामों पर भी चित्र बिकने लगे। देवदत्त चितेरा अब पूरे देश में मशहूर हो चुका था और उसके गांव काजीपुर का नाम भी तो चि़त्रकार श्रीमान देवदत्त बाबु के नाम से ही तो जाना जाने लगा था। देवदत्त बाबु अब अपने आलीशान बंगले में बैठ का चित्र बनाने लगे। सरकार द्वारा प्राप्त अनेक पुरूस्कारों से घर के मेहमान कक्ष, शयन कक्ष, आराम कक्ष की शोभा में चार चॉद लगे थे।

देवदत्त बाबु की मेहनत रंग लाई, अच्छे दिन आये और... कब समय ने फिर अपना एक नया रूप दिखलाने की ठान ली .....एक दिन देवदत्त बाबु को लगा की मैंने अनेक सुन्दरता से मन मोह लेने वाले चित्र बनाये हैं .....क्यो न मैं अब ऐसा कोइ चित्र बनाऊं..... जिसमें मानव का अत्यन्त डरावना चेहरा नजर आये। इसी सोच को साकार रूप देने के लिये श्रीमान देवदत्त बाबु ने..... अब एक डरावने चेहरे की तलाश आरंभ कर दी.... सुन्दरता की तलाश करना और उसे ढूंढ पाना उतना कठिन नहीं है जितना की भयानकतम चेहरे को खेाज निकालना......वक्त निकलता गया| पर मनचाही सफलता अभी दूर नजर आ रही थी कि देवदत्त बाबु के एक मित्र ने सलाह दी भयानक चेहरे के लिये क्युं न आप एक चक्कर जेल का लगा आयें| देवदत्त बाबु को सलाह जंच गयी| सोचा क्या हर्ज है .....? और अंततः जेल में उन्हें वह भयानक चेहरा मिल गया| जिसकी कि उनको लम्बे समय से तलाश थी। देवदत्त बाबु को जहॉ अपनी तलाश पूरी होने का संतोष था वहीं उसे देख का डर भी मन में समाया था.... ऐसा जघन्य अपराधी जिसके सामने कुछ पल खडे रहना मुश्किल था.....उस पर जेलर ने देवदत्त साहब को सावधान रहने व उनकी सुरक्षा के निर्देश भी दे ही तो दिये थे।

जेल में देवदत्त बाबु के लिये सारी व्यवस्थायें कर दी गईं थीं | श्रीमान देवदत्त बाबु के मन में डर तो था ही पर उन्हें अपने पर व जेल के सुरक्षा कर्मचारियों पर विश्वास भी था। सभी कैदियों को यह पता लग चुका था कि मशहूर चित्रकार देवदत्त बाबु आज अपनी नई कलाकृति बनाने आये हैं। काश वह हमारा चेहरा पसंद करते..... एक हसरत सी सभी के दिलों में जागी थी.... धीर गंभीर मुद्रा में काम आरंभ किया था देवदत्त बाबु ने... सावधानी, भय जब मन में जगह बना ले तो काम की कुशलता सफलता की आशंका अपना स्थान ले लेती है| सामने बैठा कैदी आराम से बैठा था| जैसे सब बातों से निर्लिप्त हो, कुछ समय बाद कैदी ने देवदत्त बाबु पर अपनी नजरें गड़ाते हुये पूछा....तुम क्या कर रहे हो? धीर गंभीर वाणी में देवदत्त बाबु ने संक्षिप्त जवाब दिया..... चित्र बना रहा हुं.,....तुम आराम से बैठे रहो!...... कैदी जैसे सयाना बालक हो आराम से बैठ गया| अभी कुछ और समय बीता... कैदी ने पूछा तुम मेरा चित्र क्यों बना रहे हो ....? ऐसा क्या है मुझ में कुछ असमंजस में स्वतः ही तो बोला था......में भयानक दिखता हुं इसलिये? अब देवदत्त बाबु की बारी थी .....स्वीकृति से चेहरा भर हिलाया था.... कैदी शायद रूंआसा सा हुआ था .....और चित्र का अब थोडा हिस्सा ही बाकी था कि कैदी खडा हो गया .....सीधा सपाट सवाल देवदत्त बाबु पर कर डाला .....क्या तुम काजीपुर गांव के.....देवदत्त चितेरे हो?

उसके सवाल दागने के भाव व लाल भयानक आँखों को देखकर देवदत्त बाबु की तुलिका वहीं जड़वत हो गयी| हाथ वहीं थम गये ....आनेवाला समय कितना भयानक अथवा सामान्य होगा, इसका अंदाजा लगाने में असर्मथ देवदत्त जी कुर्सी पर धम्म से बैठ गये और अचानक वह .....कैदी जोर जोर से रोने लगा....उसका रूदन इतना भयानक ह्रदय द्रावक था की पल भर में जेल की सारी व्यवस्था सजग हो गयी....| .अनेको प्रयास करने पर भी नाकाम.....उसे चुप कराने में सफलता न मिलते देख, एक बुर्जुग की तरह देवदत्त जी ने उसे अपने सीने से लगाया संभवतः देवदत्त चितेरे का वह उष्मा भरा आलिंगन उस दुःखों से संतप्त कैदी में दिल पर थोडा मरहम लगा पाया हो| अब कैदी चुप हुआ| घूंट भर पानी पीकर कैदी ने जो कहा........ उन शब्दो ने श्रीमान देवदत्त बाबु को एक ही पल में वापस देवदत्त चितेरे से भी निम्न अवस्था में ला खडा किया.....

कुछ ही समय के बाद कैदी ने मुड़ा तुड़ा सा कागज अपनी जेब से निकाला देवदत्त को देते हुये कहा “तुम्हारी सबसे सुन्दर रचना वाला बालक भी मैं ही था ....समय भी क्या चीज है? आज समय ने मुझे सबसे भयानक रूपवाला व्यक्ति बना कर पुनः तुम्हारे सामने ला खडा किया है.....तुम मेरे ही कारण देवदत्त चितेरे से यहाँ तक का सफर तय कर पाये .....और मैं तुम्हारे ही कारण जीवन के बाईस बर्षो के बाद यहाँ खडा हूँ |

तुम्हारे सामने एक भयानक चेहरे वाले व्यक्ति के रूप में......अचरज से देवदत्त बाबु का आँखें झपकना बंद कर चुकी थी...मुंह से कोई बोल ही नहीं निकल पा रहे थें। कि..... कैदी ने आप बीती सुनाई। कैसे उसके मजदूर पिता को तुमने मेरा चित्र बनाने के लिये मनाया था| पैसों का प्रलोभन और फिर मुक्त हाथों से तुमने जो पैसे देना शुरू किया तो पिता को काम काज में रूची ही नहीं रही| चित्र से मिले वह पैसे शराब की भेंट चढ़ने लगे...और.... नहिं मिलने पर मेरे फटे होठ सूजे गालों के भी अनेक चित्र तुमने बनाये हैं ... जीवन के अठारह वर्ष माँ को मार खाते, भूखा सोते देखता रहा| शिक्षा से दूर, मजूरी, भीख के अलावा करता भी क्या? सभी तो पिता के नशे की भेंट चढ़ चुका था।

एक दिन पिता के संतापों से दुखी माँ ने स्वयं को जला कर मुक्ति पा ली और मैं न जाने कब सारे जीवन का आक्रोश एक ही बार में पिता, चाचा, पडोसी की निर्मम हत्या करके निकाल कर घर से निकल पडा.... अंजान रास्ते....न जाने कितनी हत्यायें किं पाप किये ......सब तुम्हारे कारण---|

जब तक तुमने चित्र नहीं बनाया था, पिता काम करके घर तो चला रहे थे। देवदत्त चितेरे के मुंह से इतना ही निकला पानी....| तब से आज तक मशहूर चित्रकार देवदत्त बाबु ने अपनी तुलिका को हाथ भी नहीं लगाया... उनके ही सधे हाथों से चित्रित अघूरा भयानक चेहरा अब उनके चेहरे पर आ लगा है। ग्लानी भावना ने उनके जीवन में इतनी गहरी जगह बना ली है कि परिवार, प्रतिष्ठा किसी की चाह नहीं हैं| अपने अनजाने अपराधों के लिये क्षमा की गुहार कहाँ जाकर लगाये कि उन्हें मानसिक शांति मिले।

कभी कभी अन्जाने में ही सही मनुष्यों से वह कृत्य हो जाता है जिसका निर्णय हम मनुष्य के द्वारा करना अन्याय कहलाता है।

प्रभा पारीक, भरूच

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