सुरक्षा कवच prabha pareek द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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सुरक्षा कवच

                     

                                        सुरक्षा कवच

        माथुर साहब के घर का वह कमरा सबसे महत्वपूर्ण था। जिसमें  उनका आफिस था और पिताजी का साथ था।  दादाजी के द्वारा बनाया यह घर आज के जमाने को देखते हुये ,काफी बड़ा और हवादार था। पर आंगन वाले कमरे की बात अलग ही थी। पूरे दिन सारा कमरा माथुर साहब के पिताजी द्वारा पूजा में चढाये फूलों से व अगरबत्ती की खुशबु से सरोबार रहता। सलीका पसंद माथुर साहब पिताजी की पूजा की किताबों को भी कवर चढा कर सलीके से रखते। हांलाकि पिता को उनका इस तरह कमरे में  दखल अंदाजी करना नहीं भाता था। कमरे की सफाई घर में सबसे पहले होनी चाहिये ये नियम वर्षो से था। कुछ फालतु सामान कमरे में रखा हो तो स्वयं बाहर रख आतें। प्रतिवर्ष पिताजी की कुर्सी पलंग पर पालिश होती। खिड़की दरवाजे चमकते दिखते। पिताजी  के इसी कमरे को माथुर साहब ने अपना आफिस बना रखा था। वैसे भी घर लोगों से बनते है दिवारों से नहीं। पिताजी का यह सरकारी वकील बेटा जिसने अपना आफिस इसी कमरे में बना रखा था दिन भर वहीं बना रहता । आफिस के समय के दौरान घर का कोई भी सदस्य अंदर नहीं आता। बच्चे भी दादाजी के पास शाम के बाद ही आते।

        दिन भर वकील साहब के पास लोगों का आना जाना रहता। वृद्ध पिता को भी इसकी आदत हो गई थी। शुरू शुरू में एक दो बार दबी जबान से बेटे को कमरा बदल लेने की सलाह दी भी थी पर माथुर साहब ने साफ  इंन्कार कर दिया। फिर पिता ने भी इस विषय में मौन घारण कर लिया था।

          काफी बडा हॉलनुमा कमरा था। पिताजी अपने एक कौने में बैठ कर पढते, रेडियों सुनते, उनके छोटे से मंदिर के पास रैक में रखी धार्मिक पुस्तके कमरे का अहम हिस्सा थीं।  माथुर साहब की और से उन्हे कोई रोक टोक नहीं थी। वह अपने हिसाब से पूजा पाठ मंत्रोच्चार  करते। जब उनके लिये चाय आती तब पिताजी को भी देते। पिता की खाने पीने की सिमित आदतों के कारण उन्हें  कोई शारीरिक तकलीफ तो नहीं थी।पर उम्र तो थी ही।  अकसर काम से आने जाने वाले लोगों को वह भी पहचानते थे, दूआ सलाम के लिये वो भी अकसर उनके पास आ बैठते।

              कुल मिला कर पिता की उपस्थिति से माथुर साहब को कोई तकलीफ नहीं होती, पिता को क्या तकलीफ है  इसकी उनको परवाह नहीं थी। एैसा पिताजी मानते थे। उन्होने अकसर एैसा महसूस भी किया था। पिता को इतना संतोष था कि इस बहाने से बेटा पूरे दिन पिता की ऑखों के सामने होता । उन्हें  भी अलग अलग तरह के लोगों को नजर भर देखते रहने का अवसर मिलता। वर्षो यही सिलसिला चलता रहा।

         माथुर साहब का बेटा भी अब पढ लिख कर वकालात के लिये तैयार था। उनके साथ ही काम करने लगा था। पिता के बडे वाले इस कमरे में सारी सुविधायें थीं।वकीलों का बडा घन होती हैं किताबें वह भी वहीं थीं। पर उस कमरे में दादाजी की उपस्थिति पोते को कभी नहीं भाई। एक दिन उसने माथुर साहब से द्रढ शब्दों में कहा था दादाजी का कमरा बदल दें या  हम अपना आफिस किसी दूसरी जगह पर शिफ्ट कर लेते हैं। माथुर साहब की पत्नी भी यही चाहती थी पिताजी की उपस्थिति के कारण वह कभी पति के पास जाकर बैठ नहीं पाई थी। लेकिन लम्बी बहस के बाद भी जब माथुर साहब तैयार नहीं हुये तो बेटा दो दिन रूठा रहा । द्रढता मिलती है संस्कारों से सिद्ध होती है व्यवहार से।

             पिताजी ने समस्या की गंभीरता को समझते हुये बेटे को दूसरी जगह जहाँ वह चाहे आफिस लेने की अनुमती दे दी और साथ में आर्शिवाद भी। कहा कि वह तो यहीं से काम करेगे ।

         एैसा ही हुआ जैसा बेटा चाहता था। आखिर नई पीढी की नई सोच थी। बेटा अभी अभी ही पढाई पूरी कर के निकला था अनुभव में कच्चा था। कुछ केस उसने अनुभव न होने के कारण एैसे स्वीकार कर लिये, जिसमें अपयश की संभावनाये अधिक थी पर पुत्र को तो इसके लिये आफर करी हुई रकम नजर आ रही थी। माथुर साहब ने भी सोचा एक चोट खाकर संभलने वाले फिर कभी नहीं फिसलते। परिपक्वता के लिये असफलता भी जरूरी है। इसी सोच के कारण उन्होंने दखल नहीं दिया। अब तो उसके पास इसी तरह के ही केस आने लगे और मुंह मांगी रकम के आफर भी। पर अनुभवहीन पुत्र तो पहले वाले केस को ही अभी पूरा नहीं कर पाया था। मुव्वकिल का सामना करना भी आसान न था। जिसका तनाव लिये वह धूम रहा था।

              अपने सारे तनाव व चिन्ता लेकर वह एक दिन माथुर साहब के पास आकर बैठा। उस दिन किसी मुवक्लि के न होने के कारण पिता पुत्र अकेले थे। दूर बैठे दादाजी भी सारी बातें सुन रहे थे। सारी बात सुनकर माथुर साहब ने अपने पुत्र से जो कहा वह उनके जीवन का सबसे बड़ा सच है

           माथुर साहब ने कहा मेरी सफलता, मान-सम्मान के पीछे अगर कोई है तो यह कमरा है जब मैने काम शुरू किया तभी से यह कमरा मुझे सुरक्षा देता आया है पिताजी ने भी अनेको बार कहा है कि मैं दूसरे कमरे में बैठ कर काम करूं पर उन्हें नहीं पता कि वो मेरे कितने बडे सुरक्षा कवच रहे हैं। जब से काम शुरू किया है पिता की नजरो के सामने रहा ।इसी लिये किसी के लिये अपशब्द बोलना मेरी आदत में नहीं आया। पिता की उपस्थिति के कारण समय की मर्यादा का पालन करना मेरी मजबूरी रही । देर रात तक जागना पडता, हमारे व्यवसाय में जिसका कोई अंत नहीं था। इसी कमरे के कारण आने जाने वालों ने भी मर्यादा का सदा पालन किया। तुम्हें आश्चर्य होगा कि मुझे आज तक किसी प्रकार के गलत तरह के पैसे का कोई प्रलोभन नहीं दिया गया। क्यों की पिताजी की उपस्थिति में स्वीकारना तो दूर की बात थी  किसी को मुझ से कहने की हिम्मत नहीं हुई।  इसी लिये बेटा उस पवित्र कमरे को जिसे मैं अपना सुरक्षा कवच समझता हुं, जानता हुं उनके रहते मुझ से कभी कोई गलत काम नहीं होगा। अभी तक का जीवन सिद्धान्तो पर चलकर बीता है आगे भी बीत जायेगा।

        तुम्हे  मैं यही कहूंगा कि अब समय बदल गया है नई शैली से काम करने में परेहेज मत करना बेटा शराब की बोतल सी हैं ये ईमानदारी कोई छोड़ता नहीं,  कोई छूता नहीं  पर नैतिकता का चलन हर युग में रहा है और रहेगा। मैं नहीं चाहता की तुम मुझे भी अपना सुरक्षा कवच मानों। यूं तो  अच्छाई अपना असर जरूर दिखाती है भले ही थोडा वक्त ले ले, बस सब्र का दामन पकडे रहना। मेरा आर्शिवाद सदा तुम्हारे साथ है। तुम्हे कभी भी मेरी आवश्यक्ता होगी तब मैँ तुम्हारे साथ हुं पर फिर भी नये युग की सोच और नई कार्य शैली से मुझे कोई शिकायत नहीं है आज हर श्रेत्र में बदलाव आ रहा है| तो वकालात का श्रेत्र भी इससे अछूता क्यों रहे । दादाजी की आँखों से झर झर बहते आँसू बहुत कुछ कह रहे थें।जो स्वीकृति तो थी ही साथ में स्वयं की गलत सोच का पछतावा भी था।

                       प्रेषक प्रभा पारीक