बुआ का गाँब एक घरोहर
रामगोपाल भावुक
सुरेन्द्रपाल सिंह कुशवाह का उपन्यास ‘बुआ का गाँब’ एक घरोहर कृति है। इसमें देश की स्वतंत्रता के समय की लोक जीवन की झाँकी लेखक ने अपने शब्दों में आँखों देखे हाल की तरह व्यक्त की है।पाठक उसे पढ़ता चला जाता है और ऊब नहीं होती। इसकी भूमिका देश के प्रसिद्ध साहित्यकार आचार्य श्री जगदीश तोमर जी ने लिखी है। वे लिखते हैं-श्री सुरेन्द्रपाल सिंह का यह उपन्यास कथाक्षेत्र में उनकी पहली कृति ही हैं,किन्तु वह अनेक दृष्टियों से अनूठी है।
इसमें ग्रामाचंल की झाँकी से पाठक रू-ब-रू होता चला जाता हैं। लेखक ने अपने गाँव को बुआ का गाँव कह कर परिचित कराया हैं। बुआ का घर कैसा हैं?-मडैया के बाद दूसरे आँगन में एक ओर घिनौची थी, जिसमें मिठउआ पानी के मटके रखे थे। जैसे कथन से सजाया गया है।
इसके प्रत्येक अध्याय में अपनी बुआ के बहाने उनके मायके और ससुराल के गाँव की कहानी कहने में बुआ के परिवार जनों की कहानी कही गई हैं।
जब गाँव में बुआ की बारात आती है, पुरानें जमाने में बारात का आँखों देखा चित्र खीचा गया है। एक बीस बाइस साल की लड़की को लेखक ने बुआ के रूप में प्रस्तुत किया हैं
बरसात के दिनों में गाँव की हालत क्या हो जाती हैं? जब फसल आती तो कैसे खलिहान से ही गाँव के नाई, बरार,धोबी, बढ़ई चमार आदि को उनके हिस्से का अनाज खलिहान से ही तौल कर दे दिया जाता था।
बुआ के बहाने कपड़े सीने वाला उस्मान चाचा, अपने पोथी-पत्रा लेकर गाँव में पण्डिताई का काम करने वाले बुधू पण्डित, गाँव के डेरे और मठानू बाबा जैसे व्यक्तित्व का वर्णन तथा फौजी काका जैसी अलग- अलग अस्तित्व की कहानियों को बुआ के साथ जोड़कर उपन्यास का बाना पहिनाने का प्रयास किया है। इस उपन्यास का नायका बुआ नहीं, बुआ का गाँव है।
बरसात के दिन, क्वाँर का महीना, बड़ा बगीचा, कनागत के दिन, दशहरा,दीपावली और एकादशी और गाँव का दंगल जैसे प्रकरणों में गाँव की संस्कृति के मन मोहक शब्द चि़त्र खीचे गये हैं। जिन्हें बार बार पढ़ने का मन करता है।
इसी कृति में कारसदेव का मेला,गाँव में कार्तिक स्नान का पर्व के साथ लेखक ने बीच- बीच में उपस्थिति दर्ज कराती बुआ का गौना प्रकरण में बुआ की उपस्थिति पूरी तरह दर्ज करा दी है।
बुआ के गौन के बाद बुआ की ससुराल के गाँव का चित्र भी उकेरा गया है। उसके बाद तो परम्परा के अनुसार बुआ का नाम जमुनापारिन उनकी बयो वृद्ध ददिया सास रख देती हैं। ऐसी परम्पाराओं से भरपूर यह कृति पाठक को बाँधे रहती है। उसके बाद तो बुआ के ससुराल जनों का एक-एक करके जमुनापरिन के ससुर, जमुनापारिन के पति कालका आदि का लेखक रोचक परिचय कराने लगता है।
उसके बाद बुआ की अनवाय की विदा में अपने मायेके लौट आती है। यहाँ आकर लेखक अपनी बुआ की सुन्दरता का वर्णन कर पाता है- बैसे बुआ अब हष्ट- पुष्ट एवं सुन्दर दिख रही थीं। चेहरे पर लालिमा छलक रही थी।
कभी- कभी लेखक अपने श्रद्धा रखने वाले पात्रों के साथ न्याय नहीं कर पाता। वह जिस साँचे में बंधा रहता है उसी में अपने पात्र को भी ढालने में लगा रहता है। रचना में हमें किसी पात्र के साथ श्रद्धा, घृणा और प्रेम जैसे भाव न रखकर कृति का लेखन करें तो ही हम पात्र के साथ न्याय कर सकेंगे । मुझे तो लगता है, उस स्थिति में पात्र अपना चरित्र स्वयम् गढ़ता है।
बम बाबा देवी प्रसाद के आध्यात्मिक गुरू थे। परम संत बम बाबा की चर्चा किये बिना गाँव के जीवन पर आधारित कथा कैसे पूर्ण हो साकती है। लेखक ने उपन्यास के पहले भाग को आध्यात्म का बाना पहिनाकर पूरा करने का प्रयास किया है।
इसके बाद उपन्यास का दूसरा भाग आजादी के बाद गाँव से प्रारम्भ होता है। गाँव में आग लगने की घटना से प्रारम्भ होता हैं। गाँव के जमीदार और उनके भाई में जायदाद को लेकर बातंे बढ़तीं जाती है। मारकाट मच जाती हैं लेकिन जमीदार के पिता जी जैसे तैसे बच जाते हैं। उनके भाई मार काट करके फरार हो जाते हैं। बाद में पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं।
इधर बुआ की अम्मा का स्वर्गवास हो जाता है तो बुआ को इस अवसर पर अपने गाँव आना पड़ता है। यही बुआ को पहलवान काका के बारे में सुनाई पड़ता है कि वे बीमार है। उन्हीं दिनों उनकी मृत्यु भी हो जाती है।
बुआ उसके बाद अपनी ससुराल लौट आती हैं। यहाँ आपस की गलत फहमी से फौजदारी हो जाती हैं। बुआ की नजदीकी नेकसी के घर का आदमी मर जाता है। अपराधी पकड़े जाते हैं। उन्हें फाँसी हो जाती है लेकिन देवी प्रसाद के प्रयत्न से वे बच जाते हैं। उसके बाद आपस में राजीनामा हो जाता है। गाँव में फिर एक बार शान्ति का बातावरण स्थापित हो जाता है। जिस गाव में फौजदारी के कारण होली का बटवारा हो गया था , गाँव में फिर होली में सब एक हो जाते हैं। होली का गीत गाया जाने लगता है-गवन चले दो भाई बन को हो
फौजदारी के बाद गाँव - गपोले की बेइग्मानी की बात सामने आती है। जमुनापारिन का देवर अपना हाथ बनाने लगता है। जमुनापारिन का बेटा बउआ संघर्ष करते हुए पढ़ाई करके कलेक्टर बन जाता है। उसकी शादी भी पारिवारिक परम्परा के अनुसार कम पढ़ी लिखी लड़की से हो जाती है, वह उसे अपने मम्मी- पापा की इज्जत का सबाल मानकर स्वीकार भी कर लेता है।
सम्पूर्ण रचना में विद्रही तेवर देखने को नहीं मिलते। यह अभाव पाठक को खटकता भी है।
इस तरह परम्पराओं में के साँचे में ढला समाज, परम्पराओं को तोड़ नहीं पाता। उपन्यास में कहीं भी विद्रोही तेवर देखने को नहीं मिलते। बुआ का चरित्र परम्पराओं के सांचे में ढला चरित्र है। बुआ का चरित्र चित्रण करने में रचनकार की बुआ के प्रति श्रद्धा ने व्यवधान उत्पन्न किया हैं। कृति में मुहावरों और लोक गीतों ने गाँव की संस्कृति को मुखरित किया है, कहीं ये लोक गीत और अधिक इसमें स्थान पा सकते तो लोक संस्कृति और अधिक उजागर हो सकती।
कथाकार कहानी कहने में लगा रहा, कहीं पात्रों के संवादों में कहानी खुलती तो उस काल की लोक भाषा को भी जीवन्त करने में लेखक सफल हो जाता और यह धरोहर शोध का विषय बन जाती।
इस सब के बाबजूद कृति पठनीय एवं संग्रहणीय है। इससे ग्रामीण परिवेश की धरोहर के रूप में इसका अंकन जरूर किया जायेगा।
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कृति का नाम- बुआ का गाँब
कृतिकार- सुरेन्द्रपाल सिंह कुशवाह
प्रकाशन वर्ष’-2021
मूल्य- 350 रु
प्रकाशक-अमित प्रकाशन भोपाल
समीक्षक- रामगोपाल भावुक, कमलेश्वर
कोलोली डबरा भवभूति नगर
जिला- ग्वालियर मप्र -475110