कुछ याद रहा कुछ भूल गया -राजकुमार शर्मा ramgopal bhavuk द्वारा पुस्तक समीक्षाएं में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
श्रेणी
शेयर करे

कुछ याद रहा कुछ भूल गया -राजकुमार शर्मा

कुछ याद रहा कुछ भूल गया संस्मरणात्मक दस्तावेज।

                                                                                                                     

                                                   राम गोपाल भावुक

                                                      मो.-9425715707

      एक कर्तव्य निष्ठ पुलिस अधिकारी की आप बीती घटनाओं का यह संग्रह है। इसका सम्पूर्ण पाठ करने पर लगा, यदि लेखक किसी अन्य पात्र का सहारा लेकर बात करता तो निश्चय ही यह एक उम्दा उपन्यास हो सकता था। इस संग्रह में दो सौ सत्तवन संस्मरण संग्रहीत हैं।

      आपके बड़े माई चर्चित संहित्यकार एवं लोकमंगल पत्रिका के संम्पादक डॉ. भगवान स्वरूप चैतन्य लिखते हैं- ‘जो पुलिस अधिकारी, इस सेवा में घुटन से मुक्ति पाने के लिए छटपटना पड़े, त्याग पत्र पर त्याग पत्र देना पड़ें और कोई सुनवाई न हो तो ऐसे व्यक्ति को सेवाकाल की राम कहानी ऐसे ही कागज पर लिखना पड़ती है जैसे यह पुस्तक लिखी गई है।’

राजकुमार शर्मा जी स्वीकरते हैं कि मैंने यह पुस्तक क्यों लिखी?

‘सत्य के लिए मैं सब से भिड़ जाता था। पार्षद , विधायक, सांसद, मंत्री और यहाँ तक कि अपने ही अधिकारियों से भी भिड़ गया परन्तु कभी पराजित नहीं हुआ।’

 वे आगे लिखते हैं- ‘ऐसी सभी घटनाओं को मैंने कथानकों के रूप में लिखा है।’

कथनकों के माध्यम से लिखे जाने वाले विवरण निश्चय ही रोचक बन जाते हैं। फिर अपराधों की दुनियाँ के कथानक तो रोचक बनकर पाठक को बांधे रहने में समर्थ होते ही हैं।

 इस कृति में राजकुमार शर्मा जी ने स्वयं के  ही विषय में लिखा हैं-‘मैंने पुलिस विभाग में साढ़े छत्तीस वर्ष कार्य किया अतः उस अवधि के अनुभवों को लिखने का मैं अधिकारी बन गया हूँ।’

 

 मैं रामगोपाल भावुक आपके परिवार से निकट रहने के कारण उन सभी बातों का चश्मदीद  गवाह रहा हूँ। आपकी माँ मेरी बुआ लगतीं थीं। वे मुझसे अगाध प्यार करतीं थीं। राजकुमार शर्मा जी बचपन से ही खोजी प्रवृति के रहे हैं। पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं।  आपके सबसे बड़े भाई नरेश शर्मा मेरे अभिन्न मित्र रहे, वे अपने अध्ययन काल में ही शायरीं लिखने लगे थे। फिल्मी दुनियाँ में जाने के सापने देखते थे। बड़े भाई का मित्र होने के कारण इन सभी भाइयों पर मेरी दृष्टि रहना स्वाभाविक हो गई थी। आपके बड़े भाई भगवान स्वरूप चैतन्य जी में भी बचपन से ही एक साहित्यकार जन्म ले चूका था। 

 अपनी इस कृति के एक प्रसंग में राजकुमार शर्मा जी लिखते है कि मेरी आँखों के सामने  ही हत्या हुईं  और वह न्यायलय से बरी भी हो गया। सच में बरी होने वाला व्यक्ति उसके बाप का हत्यारा था, बरी हो जाने पर अपने पिता का बदला लेने के लिये उसके पुत्र ने ताक लगाकर बस से उतरते समय उसकी हत्या कर दी थी।  बाद में वह पकड़ा गया था।

 इससे अगले प्रकरण में एक मां रात में जागकर अपने पुत्र को पहलवान बनाने के लिये बादाम पीसती थी। वे अपने बेटे को प्रसिद्ध पहलवान बनाना चाहते थे। लड़के का विवाह तो हो गया था लेकिन पिता नहीं चाहते थे कि बेटा बहू का मुख ही देखे।  वे चाहते थे पहले वह पहलवान बनकर नाम करे, पीछे बहू है। प्रकरण बहुत ही रोचक है। ऐसे इस कृति में अनेक प्रकरण है जिन पर  उपन्यास भी लिखे जा सकते हैं।

  मैं कथाकार हूं। राजकुमार शर्मा जी की इस पुलिस डायरी के अनेक किस्से मुझे कहानियों और उपन्यास के कथ्य दिखाई दिये हैं। किसी भी पुलिस अधिकारी के जीवन में ऐसी ही घटनायें रोज घटती रहती हैं। वे यदि उन्हें लिखना चाहते हैं तो एक संस्मरण के तौर पर ही लिख पाते हैं।

विद्यार्थी जीवन में आप अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ग्वालियर महानगर के उपाध्यक्ष रहे। बाद में आप सफलता पूर्वक विद्यार्थी परिषद के अध्यक्ष के पद पर भी कार्य करते रहे। आप के साथ ही श्री जयभान सिंह पवैया जी मंत्री रहे हैं। उस समय में आपने खण्डवा, बम्बई,वाराणसी के अखिल भारतीय अधिवेशनों में भाग लिया था। आप आपतकाल के समय में, आपने भूमिगत रहकर सक्रीय कार्यकर्ता का सफल दायित्व निभाया। सुबह चार बजे छिपकर शहीद छात्रों की समाधियों पर माल्यार्पण किया तथा आपतकाल विरोधी पर्चे कमर में बांधकर भिण्ड पहुचाने में सफल रहे थे।

 सन् 1977 में आपका पुलिस उपनिरीक्षक के पद पर चयन हो गया तो जयभान सिंह पवैया जी के निवास पर अखिल भारतीय विद्याथी परिषद ने आपका विदाई समारोह आयेजित किया था ।

 

 वर्ष 1978 में आपने पुलिस प्रषिक्षण प्राप्त किया। जब ये पहली बार कोषालय का निरीक्षण को निकले तो वहाँ का प्रहरेदार शराब पिये, बहुत खराब हालत में डयूटी पर अव्यवस्थित हालत में पड़ा मिला। यह दृश्य देखकर इन्हें पुलिस की नौकरी बहुत खराब लगी और इन्होंनें नौकरी से त्याग पत्र भेज दिया। इस पर  इनके बड़े अधिकारी एस डी ओ पी साहब ने इन्हें बुलाया। इन्होंने उस प्रहरेदार की बात न कह कर अपनी लोक सेवा आयोग की तैयारी की बात उनसे कही। वे बहुत खुश हुए। उनके समझाने पर इन्होंने त्याग पत्र बापस ले लिया। बाद में इन्हीं अधिकारी की पुत्री से इनका विवाह हो गया जो आज भी इनकी जीवन संगिनी हैं।

 इन्हें कुछ मित्रों ने षराब पिलाने का प्रयास किया पर ये हुनुमान जी की फोटों के सहारे शराब पीने से बच गये।

 जीवन में कुछ बहुत ही नेक काम आपके हाथ से हो गये हैं जैसे लव जिहाद में फसाई गई हिन्दू बालिका को बहुत ही कठिनता से मुक्त करा पाया था। आप पुलिस विभाग की कमजोरियों को इस कृति में रेखाकिंत करने में सफल रहे हैं जिससे आने वाले पुलिस अधिकारीं सचेत होकर कार्य कर सकेंगे। कैस कैसे प्रलोभनों को ठुकराकर स्वयं को पाप से बचाया। भाई- भाई का विवाद सुलझाया । आदतन रिक्शे का किराया नहीं देने वाले न्याय सेवक माननीय के आचरण तथा ऐसे ही असत्य के समर्थन में निर्णय लेने वालों से किनारा करने वाले लोग आपको जीवनभर बिल्कुल पसन्द नहीं आये हैं।

                पुलिस विभाग ऐसा विभाग है जहाँ बड़े - बड़े सांतिर अपराधियों से जूझना पड़ता हैं, ऐसा ही एक प्रकरण डाकू जगत सिंह का हैं। वह इतना दुस्साहसी  डाकू था। एक दिन इनके थाने के सामने से घोड़े पर बैठकर शान में मुश्कराते हुए निकला। यह बात ये सहन नहीं कर पाये। इन्होंने जाकर उसके घोडे़ की लगाम पकडली और दहाड़ देकर उसे घोडे से नीचे उतार लिया था।

 

 जीवन में भांति- भांति के अधिकारी मिलते रहे हैं। जिनमें कुछ तो बहुत सज्जन अधिकारी मिले किन्तु कुछ बहुत ही दुर्जन। जिनकी दुर्जनता को ये आज तक भूल नहीं पाये हैं। एक तो उपवास के नाम पर मुर्गे का सेवन करते थे। कुछ घटिया सोच के भ्रष्टाचारी थे तो कुछ कृतध्न स्वभाव के भी मिले। कुछ तो ऐसे मिले जो आदतन रिक्शे वाले के थी पैसे नहीं देते थे। इन्हें सबसे खराब वे लगे जो सत्य के समर्थन में निर्णय लेने में किनारा करते थे।

       बर्षात के दिनों में मोटर साइकल से बच्चे को डॉक्टर को दिखाने भोपाल जाते समय एक दिन में अठारह सार्पों से सामना हुआ। अच्छी बात यह रही राह चलते में सड़क पर वे एक एक कर निकलते गये पर ये हतास नहीं हुये।

 इसी तरह लटेरी के पास के जंगल में इनकी जीप के आगे से छलांग लगाते हुए तेंदुआ निकल गया था। बजरंग गढ़ के पास षेरों का जोड़ा देखने को मिल गया था। अच्छी बात यह रही आभाष होने पर इन्होंने गाड़ी की रफतार बढ़ा दी थी, अन्यथा उसकी अगली छलांग इनकी गाड़ी पर ही होती।

 दूसरी बार ग्यारसपुर बेगमगंज के पास काफी घना जंगल था। रास्ते में एक रपटा पड़ता था। अचानक दिखा एक बबर षेर रपटा पर पानी पी रहा है। इन्होंने  एक दम ब्रेक लगाकर गाडी मोड ली थी जिससे बचाव हो गया।

 इन्हें मेहलुआ चौराहे के पास तथा मोहम्मद गढ़ में षेरों के षिकार के कई किस्से सुनने को रोज रोज मिल जाते थे।

 ये संस्मरण लेखक ने इस तरह लिखे हैं कि पाठक इन्हें बार- बार पढ़ना चाहता हैं और ये पाठक की स्मृति में बने भी रहते हैं।

पुलिस में एक एसडी ओपी और सी आई की ऐसी जोड़ी थी जो आधीनस्त थाना प्रभारियों के गले दवोचने में लगी रहती थी। उन्होंने अपने इस पवित्र काम को धन्धा बना लिया था। उन्होंने कलेक्टर से कह कर इनकी भी सी आर बिगड़वा दी थी लेकिन पुलिस में चुप रहने के अलावा कोई विकल्प नहीं होता। ऐसी झंझटों से बचने के लिये ही ये लोक सेबा आयोग परीक्षा में बैठना चाहते थे। इसके लिये उसकी तैयारी के लिये अवकाश लेकर ये घर आ गये थे। पन्द्रह दिसम्बर को परीक्षा शुरू हो रही थीं उसी दिन  आपके पूज्य पिताजी का देहावसान हो गया। इसी कारण परीक्षा स्थगित करना पड़ी। मुझे याद है आपकी माता जी  जब जीवन के अन्तिम दिनों में बीमार पड़ी तो ये उन्हें सेवा करने के लिये अपने घर भोपाल ले गये। वहीं उनका देहावसान हो गया।

   पिताजी के देहावसान के कारण जो लोक सेवा आयोग की परीक्षा स्थगित करदी थी। उसके अगले वर्ष फिर इसी परीक्षा के लिये अवकाश मांगा तो एक बड़े अधिकारी के यहाँ चोरी हो गई। उसकी तपसीस में इन्हें लग जाना पड़ा। परीक्षा की तैयारी के लिये केवल पन्द्रह दिन की छुट्टी स्वीकृति का सन्देष मिला, इस बात पर इन्होंने नौकरी से स्तीफा लिखकर भेज दिया। इनके स्वसुर जी पुलिस में बड़े अधिकारी थे। उन्हें यह बात पता चली तो उन्होंने इनका स्तीफा इन पर दबाव डालकर बापस करा लिया और दो माह की परीक्षा की तैयारी के लिये छुट्टी स्वीकृत करा दी।

                पुलिस की नौकरी में उतनी तैयारी नहीं हुई। अन्य छोटी केटेगारी में इनका चयन तो हुआ लेकिन उनमें इन्हें नौकारी करना नहीं थी।  इसलिये इन्हें मन मार कर  इसी नौकरी में रह जाना पड़ा।

                 पुलिस की नौकरी में जब जब हिन्दू- मुस्लिम विवाद समाने आया, बडे़ ही सोच समझकर कदम रखने की जरूरत पड़ी है। एक मुस्लिम शव जो गलत जगह दफना दिया गया था, उसको उखडवाकर कब्रिस्तान में दफनवाया था।

एक बार तो अपने आरक्षक की पत्नी जो खाना बनाते समय बहुत जल गई थी। उसे तत्काल खून की जरूरत थी। इनका खून मैच हो गया तो उसे खून देने में इन्होंने देर नहीं की थी।

 

 

किसी पुलिस अधिकारी के जीवन में ऐसी घटनायें रोज- रोज घटित होतीं रहतीं हैं लेकिन आप ने उन्हें किस नजरिये से देखा है, यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है। बन्धुबर लेखन में दृष्टि का ही तो खेल है। किसी भी रचनाकार की कुछ रचनायें हीं चर्चित हो पातीं हैं। आपने इस कृति में दो सौ सत्तवन घटनाओं को स्थान दिया है।  इसके कुछ शीर्षक ऐसे हैं जिन्हें पाठक पूरी घटना को पढ़े बिना छोड़ नहीं सकता। जैसे-1984में आठ सिखों की जान बचाई। विधायक जी के दबाव में गलत काम नहीं किया। ऐसे भी न्यायधीश, महिला का मेरे घर में प्रवेश, बेटे ने जयविलास महल में फलावर पॉट तोडा, अघोरी, एक जज साहब पुलिस अधीक्षक के समक्ष गिड़ गिड़गिड़ाये, जब शर्मिला टेगौर ने मुझ से नमस्ते की, बल्लभ भवन की महिला लिपिक और मैंने एक समाचार पत्र पर मानहानि का मुकदमा ठोका जैसे प्रकरणों पर कौन पाठक दृष्टि नहीं डालना चाहेगा।

 इनमें से कुछ घटनायें तो ऐसी लगतीं है जिन्हें लेखक महोदय भुलाने पर भी भुला नहीं पा रहे होंगे, जैसे- न्यायालय में ही मुझ पर आरोप लगा कि मेरा एनकाउन्टर कर देंगे। जब जब अयोध्या का नाम सामने आता होगा आपको‘ अयोध्या वाईवपास पर महिला के षव को समेट कर पोस्ट मार्टम के लिए भेजा, जेसे प्रकरण की याद जरूर आती होगी। पुलिस की अभिरक्षा में लाई गई हिन्दू लड़की की कठिन कहानी को भी आप कैसे भुला पायेंगे।

 लव जिहाद वाले प्रकरण बहुत ही नाजुक होतें हैं। उन्हें सुलझापान बहुत ही कठिन होता हैं। आप ने अपने प्रान्त से दूसरे प्रान्त अजमेर में जाकर हिन्दू युवती को मुक्त कराया ही नहीं था वल्कि उसे बिकने से भी बचाया था। आपने अपनी सूझबूझ से कश्मीर से एक लड़की को भी मुक्त कराया था।

जीवन में कुछ अच्छे काम हो जाते हैं तो वे जीवन भर अपने जीवन की सार्थकता को प्रकट करते रहते हैं।

      मुझे यह कृति पढ़ते समय लगता रहा है जिन लोगों का बर्णन इस कृति में किया गया है वे आपकी इस कृति को पढ़ेंगे तो उनका व्यवहार आपके प्रति कैसा हो जायेगा? सम्भव है कसमसाकर रह जाये अथवा अपने चरित्र हनन के लिए आपको न्न्यायालय में घसीट ले जायें।

इसे पढ़ते समय यह बात भी चित्त में बार बार आ रही है कि इस कृतिको आत्म कथा के तौर पर लिखा जाता तो आप इसमें इससे अधिक अपना आत्म निरूपण कर पाते।                                           

                                                 0000

सम्पर्क

- कमलेश्वर कालोनी (डबरा)

    भवभूति नगर जि0 ग्वालियर, म0 प्र0 475100

    मो0 9425715707 Email : tiwariramgopal5@gmail.com

कु