बचपन की कविता - नर हो ना निराश करो मन को संदीप सिंह (ईशू) द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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बचपन की कविता - नर हो ना निराश करो मन को

नर हो ना निराश करो मन को


आप सभी को सादर प्रणाम 🙏🏻❣️

अब बात करते हैं चर्चा के मूल विषय पर - :

बचपन की कौन सी कविता आपको अभी भी याद है। उस कविता से आपकी कौन सी यादें जुड़ी हैं।

मछली जल की रानी है, जीवन उसका पानी है,
हाथ लगाओ डर जाएगी, बाहर निकालो मर जाएगी,

इसी कविता से बचपन का वास्ता पड़ा था, शनैः शनैः जीवन आगे बढ़ा तो मैथली शरण गुप्त जी की काव्य पंक्तियों ने मन मस्तिष्क को झकझोर दिया, जीवन की सीख दे रही थी ये कविता, -

नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
जग में रह कर कुछ नाम करो
यह जन्म हुआ किस अर्थ अहो
समझो जिसमें यह व्यर्थ न हो
कुछ तो उपयुक्त करो तन को
नर हो, न निराश करो मन को

संभलो कि सुयोग न जाय चला
कब व्यर्थ हुआ सदुपाय भला
समझो जग को न निरा सपना
पथ आप प्रशस्त करो अपना
अखिलेश्वर है अवलंबन को
नर हो, न निराश करो मन को

जब प्राप्त तुम्हें सब तत्त्व यहाँ
फिर जा सकता वह सत्त्व कहाँ
तुम स्वत्त्व सुधा रस पान करो
उठके अमरत्व विधान करो
दवरूप रहो भव कानन को
नर हो न निराश करो मन को

निज गौरव का नित ज्ञान रहे
हम भी कुछ हैं यह ध्यान रहे
मरणोंत्‍तर गुंजित गान रहे
सब जाय अभी पर मान रहे
कुछ हो न तज़ो निज साधन को
नर हो, न निराश करो मन को

प्रभु ने तुमको दान किए
सब वांछित वस्तु विधान किए
तुम प्राप्‍त करो उनको न अहो
फिर है यह किसका दोष कहो
समझो न अलभ्य किसी धन को
नर हो, न निराश करो मन को

किस गौरव के तुम योग्य नहीं
कब कौन तुम्हें सुख भोग्य नहीं
जान हो तुम भी जगदीश्वर के
सब है जिसके अपने घर के
फिर दुर्लभ क्या उसके जन को
नर हो, न निराश करो मन को

करके विधि वाद न खेद करो
निज लक्ष्य निरन्तर भेद करो
बनता बस उद्‌यम ही विधि है
मिलती जिससे सुख की निधि है
समझो धिक् निष्क्रिय जीवन को
नर हो, न निराश करो मन को
कुछ काम करो, कुछ काम करो
- मैथिलीशरण गुप्त जी


अब मैं भी थोड़ा समझने लगा था, शायद यही कारण था कि - अब काव्य पंक्तियों के भाव सहज समझ आने लगे थे।
तब ये शिक्षा और परीक्षा तक ही सीमित था प्रेरित करने को।
जब जीवन मे कुछ और बढ़ा, तो ये तो बखूबी समझ आने लगी थी।


मेरी स्वरचित चंद पंक्तियाँ स्व. मैथिलीशरण गुप्त जी को सादर समर्पित -

कदम कदम पर उपजे मन मे,
कभी हताशा कभी निराशा
गुप्त जी की ये कविता ही,
जीवन मे भरती रही आशा
जब हारा जीवन मे तो भी याद रही,
जीता जब तब भी याद रही
शिथिल रहा जब मन
उद्वेलित करती है इस तन को
कुछ काम करो कुछ काम करो
नर हो ना निराश करो मन को
(संदीप सिंह "ईशू")


एक बार जब ब्रेन मे गांठ की वज़ह से आए दौरे के बाद हॉस्पिटल मे भर्ती हुआ था। ये मेरे जन्मदिन 19 नवंबर के ठीक एक माह बाद 19 दिसंबर 2007 को हुआ था।

लोग समझने लगे कि अब ये संदीप का अंतिम समय है, अब नहीं बचेगा।
उनका दोष नहीं स्थिति ही कुछ ऐसी ही थी।


मृत्यु एक अटल सत्य है, और उस समय भी मैं इससे मुख नहीं मोड़ रहा था। पर माँ पापा की आशाएं, बहनो के भविष्य के चिंतन से सिहर सा गया था मैं।


मैं नहीं रहूँगा तो इनका सहारा कौन होगा ?
ये एक मानवीय सोच होती है, प्रायः सभी के अंदर होती है।
ये अलग बात है कि मृत्यु के बाद भी जन्म देने वाला ईश्वर उन्हें भी सम्हाल लेता है।


चिंता की लकीरें तो पापा के चेहरे पर थी, मेरा बेटा कष्ट मे है।
शायद वो मुझसे भी कई गुणा ज्यादा कष्ट मे थे, उन चंद दिनों मे जीवन से बड़ा सबक मिला। सबके साथ खड़े रहने वाले मेरे पापा, आज बेटे के लिए हॉस्पिटल मे अकेले खड़े थे, बेड पर बेसुध पड़े इकलौते बेटे के साथ।


सगे संबंधी, रिश्ते नाते ये सब मैं अपनी अधखुली आँखों और बहुत ही कम काम करती यादाश्त के साथ देखा था।
दिमाग व्यवस्थित कार्य नहीं कर रहा था।


अब जीवन जीने की इच्छा शक्ति अंदर से उत्पन होने लगी थी।
जब अपने जैसी समस्या से जुझ रहे 1 वर्ष के नवजात बालक को जिसे हर 30 मिनट पर दौरे पड़ रहे थे, पूरा नन्हा शरीर ऐंठ जाता था, उसे कितना दर्द रहा होगा।
फिर साहस मजबूत होता गया।


डॉक्टर ने पापा से कहा - चिंता मत करिए, ऑपरेशन नहीं होगा, CT scan रिपोर्ट मे ये गांठ दिखी है, दवा से खत्म हो जाएगी।
24 दिसंबर 2007 को हॉस्पिटल से घर पहुंचा था।


दिमाग सोच नहीं पाता था ज्यादा, चलता तो लड़खड़ा जाता था।
हिम्मत करके मैं 1 जनवरी 2008 की सुबह उठा था।
अब मैं चल सकता था, 2 जनवरी को छोटी बहन का जन्मदिवस मनाया।


इस कठिन समय मे मैथली शरण गुप्त जी की ये पंक्तियाँ टूटे फूटे पंक्तियों मे ही याद आती पर जीवन के प्रति प्रेरित करती थी।


कहाँ मैं अपने संस्मरण मे उलझा बैठा।
आइए आगे चलते है -
जीवन उतार चढ़ाव है, फिर इससे क्यों मुख मोड़ा जाए। जब भी चित्त अशांत रहे, तो सोचों ये जीवन क्यों मिला, कुछ तो लक्ष्य होगा, कुछ तो कर्तव्य होंगे, ये जीवन बेमतलब नहीं है। ईश्वर ने भेजा तो खुद को पहचानो बिना अवसर गंवाये बढ़ चलो।

किसी कार्य मे असफलता मिले, तो भी निराश नहीं होना नया उपाय करो, उपाय कभी व्यर्थ नहीं होता किंतु समय गवां कर किए उपाय की सार्थकता क्षीण होती है।
जरूरी नहीं कि आप असफल हो गए तो सफलता दुबारा नहीं आएगी।

किसी ने कहा था - सूर्योदय और अवसर समय से उठने वाले को प्राप्त होता है।

जीवन का लक्ष्य होना तो आवश्यक है क्योंकि लक्ष्य विहीन जीवन कोई मायने नहीं रखता।

श्रेष्ठ मानव जाति के लगभग सभी मानवों की जिंदगी का लक्ष्य सुखद जीवन, प्रसन्नता, और धन कामना ही होती है। मूलतः लोग धन प्राप्ति को ही लक्ष्य मान कर इसे प्राप्त करने को ही सफलता अथवा कामयाबी मानते है।

मैं भी भिन्न नहीं हूँ किंतु कामयाबी के प्रति मेरी धारणा भिन्न है।
"कामयाबी कोई अंतिम पड़ाव नहीं बल्कि एक सतत यात्रा है, जिसे एक आयाम मे सुनिश्चत करके पूर्णविराम लगाने के बजाय थोड़ा स्थिर रह कर पुनः निर्बाध बढ़ते जाता चाहिए ये एक ऐसी यात्रा है, जिस पर हम अपनी अंतिम साँस तक निरंतर चलते रहते है।"

आज बस इतना ही, अब दे विदा शीघ्र ही उपस्थित होऊंगा एक नए विषय के साथ।

- संदीप सिंह (ईशू)