आप को यकीन नहीं होगा दोनों बहुओं ने एक पल के लिए भी घूंघट को नहीं हटाया, आश्चर्य तो माता जी को देख कर हुआ उनके साथ उनके जेठ जी (पति के बड़े भाई) भी यात्रा कर रहे थे, माता जी का घूंघट एक पल को नहीं हटा।
ट्रेन मे अन्य भी कई महिलाएं और बेटियाँ तो जो आधुनिकता के रंग मे नजर आ रही थी। स्वयं मेरी धर्मपत्नी जी सूट मे थी, किंतु सत्य कहूं तो यह भारतीय संस्कृति की झलक बड़ी मनमोहक लगी।
हमें सांस्कृतिक रूप मे अपनी जड़ों से जुड़े रहना चाहिए, इससे बेहतर समाज का निर्माण और बच्चों मे अनुशासन और संस्कार जीवंत रहता है।
बातों के दौरान पता चला कि जहां आज परिवार बिखरते जा रहे है वहीं उनका परिवार आज भी सामुहिक रहता है।
और उन सभी को अपनी इस भारतीय संस्कृति पर शर्मिंदगी नहीं बल्कि गर्व है।
( वास्तविक तस्वीर नहीं खींचा क्योंकि यह महिला सम्मान और उनकी निजता का हनन होगा अतः प्रतीकात्मक छवि संलग्न है)
!! सनातन !! !! भारत !! 🇮🇳 🚩
✍️ संदीप सिंह (ईशू)
यत्र पूज्यन्ते नार्यस्तु - भारत वर्ष
दुर्भाग्यपूर्ण है कि यत्र पूज्यन्ते नार्यस्तु - भारत वर्ष - 2 को प्रकाशित नहीं किया गया अतः यहां प्रकाशित कर रहा हूँ कृपया अवश्य पढ़े और समीक्षा प्रेषित कर आशीर्वाद प्रदान करें।
यह सती प्रथा ही नहीं बल्कि कई कुरीतियां (जिनमे प्रमुख अन्तर्जातीय विवाह - जो तब मजबूरी मे होते थे बाद मे स्वैच्छिक उसके उपरांत धोखे की प्लानिंग {सुनियोजित रूपरेखा} के अंतर्गत) मुगल काल के अत्याचारों के कारण स्थापित हुई थी। इसके विषय मे मैं आप सभी को प्रथम भाग मे ही बता चुका हूँ।
मुगल काल - यह काल को स्त्रियों की दृष्टिकोण में काला युग माना जाता है। इस समय में भारत देश पर आक्रांता मुसलमानों ने अपना आधिपत्य कायम कर लिया।
किन्तु अपने स्वाभिमान के लिए किए गए प्रयास को आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बड़ी सफाई से मूल तथ्य हटा कर मुग़लों का यशोगान करने (अपने राजनैतिक, आर्थिक, स्वार्थपूर्ण हितों के वशीभूत) का ही प्रयास किया।
यही वह मूल कारण रहा कि आज भारत के प्राचीन इतिहास मे अपनों का उल्लेख पाश्चात्य प्रभाव मे है, या तो धूमिल है।
उन्होंने हिन्दू स्त्रियों को जबरजस्ती धर्म परिवर्तन करवाया और उनके साथ ज्यादतियां शुरू कर दी। हिन्दुओं ने स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंधात्मक निर्देशों लगने लगे।
इस काल में नारी की दशा दयनीय हो गई। उसे घर में गुलाम की तरह रखा गया। नारी को घर की चारदीवारी की कैद में रहने के लिए मजबूर किया गया । उस समय पर्दा प्रथा जोरों पर रही ।बाल विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाने लगा।
उस समय की नारी को शिक्षा से वंचित रखा गया। मध्यकाल में स्त्रियों की स्वतंत्रता सब प्रकार से छीन ली गई और उन्हें जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरूषों पर अधीन कर दिया गया।
इस युग में नारी को सेविका बनाकर शोषण किया जाने लगा। नारी को वेश्यालयों में बेचा भी जाता था।
मुगलों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढांचा चरमरा गया था। वे परतंत्र होकर मुगल शासकों का अनुकरण करने लगे थे।
मुगलों और विदेशी आक्रांताओं के लिए नारी भोग विलास तथा वासना पूर्ति मात्र की वस्तु थी। इसी कारण नारी का कार्यक्षेत्र घर की चार दीवारी में सिमट कर रह गया था। जिससे समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह तथा सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन बढ़ा।इस प्रकार नारी मात्र दासी और भोग्या बन कर रह गई।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा हैं कि -
कत विधि सृजि नारी जग माही.
पराधीन सपनेहुँ सुख नाही
आज के लेख मे भारत मे नारी की स्थिति को मैं तुलसी दास जी की ही रचना के माध्यम से बताने का प्रयास करूँगा।
तुलसीदास जी रचित रामचरित मानस में नारियों को सम्मान जनक रूप में प्रस्तुत किया है।
जिससे ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ ही सिद्ध होता है। नारियों के बारे में उनके जो विचार देखने में आते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी।।
अर्थात धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा अति विपत्ति के समय ही की जा सकती है। इंसान के अच्छे समय में तो उसका हर कोई साथ देता है, जो बुरे समय में आपके साथ रहे वही आपका सच्चा साथी है। उसीके ऊपर आपको सबसे अधिक भरोसा करना चाहिए।
जननी सम जानहिं पर नारी ।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।
अर्थात जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपनी मां सामान समझता है, उसी के ह्रदय में भगवान का निवास स्थान होता है।
जो पुरुष दूसरी नारियों के साथ संबंध बनाते हैं वह पापी होते हैं, उनसे ईश्वर हमेशा दूर रहता है।
इससे समाज मे नारी के लिए सम्मान और उत्कृष्ट आचरण भी सहजता से निर्दिष्ट हो रहा है।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।
नारी सिखावन करसि काना ।।
अर्थात भगवान राम सुग्रीव के बड़े भाई बाली के सामने स्त्री के सम्मान का आदर करते हुए कहते हैं, दुष्ट बाली तुम अज्ञानी पुरुष तो हो ही लेकिन तुमने अपने घमंड में आकर अपनी विद्वान् पत्नी की बात भी नहीं मानी और
तुम हार गए।
मतलब अगर कोई आपको अच्छी बात कह रहा है तो अपने अभिमान को त्यागकर उसे सुनना चाहिए, क्या पता उससे आपका फायदा ही हो जाए।
यहां भी तुलसीदास जी ने नारी की विद्वता और जीवन मे उनके योगदान को दर्शाता है। इससे स्पष्ट होता है कि हमारी भारतीय सभ्यता मे नारी सदैव से पूज्यनीय रही है, इसी लिए पत्नी को अर्धांगिनी और जीवन संगिनी कहा जाता है।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर न सुन्दर ।
केकिही पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं सुन्दर लोगों को देखकर मुर्ख लोग ही नहीं बल्कि चालाक मनुष्य भी धोखा खा जाता है। सुन्दर मोरों को ही देख लीजिए उनकी बोली तो बहुत मीठी है लेकिन वह सांप का सेवन करते हैं। इसका मतलब सुन्दरता के पीछे नहीं भागना चाहिए।
चाहे कोई भी हो। तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। उनका सबसे प्रचलित दोहा जिसे सबने अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हमेशा विवादों के घेरे में आ जाता है। कई महिला संगठनों ने तो इसका घोर विरोध भी किया।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
अर्थात प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते हैं। सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? आपkh पूर्व की पंक्तियों मे इसे सहजता से समझ गए होंगे।
और तो और- तुलसीदास जी ने तो-
एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है। इससे सिद्ध होता है कि महिलाएं और पुरुष समानांतर थे।
सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना, कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है।
(हालांकि माता कैकयी के व्यक्तित्व को आज हम काफी गलत प्रचलित और प्रचारित करते। माता कैकयी के विषय मे एक रचना लिखने का प्रयास है,- "क्षत्राणी माँ कैकयी" अभी लेखन अधूरा है, इसे पूर्ण करके आपके सामने उपस्थित करूंगा।)
ऐसे में तुलसीदासजी के ताड़ना शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है ऐसा तो सहजता से स्वीकार नहीं होता।
इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है वो तो और कुछ ही दर्शाते हैं।
शूद्र यहां जाति वर्ग नहीं है, जिसे हमने विचारो मे स्थापित करके जाति विशेष को इंगित कर लिया।
तुलसीदास जी ने यहां शूद्र का संबोधन निकृष्ट प्रवृत्ति, अधर्मी, व्यभिचारी, गलत आचार विचार वाले व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया है।
तुलसीदास जी ने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं, इसलिए 'ताड़न' शब्द को संस्कृत से ही जोड़कर नहीं देखा जा सकता, राजा दशरथ ने स्त्री के वचनों के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।
असल में ये चौपाइयां उस समय कही गई है जब समुद्र द्वारा श्रीराम की विनय स्वीकार न करने पर जब श्री राम क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाला तब समुद्र देव श्रीराम के चरणों मे आए और श्रीराम से क्षमा मांगते हुए अनुनय करते हुए कहने लगे कि-
हे प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और ये ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि, शिक्षा देने के योग्य होते हैं।
ताड़ना एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ पहचानना, परखना या रेकी करना होता है।
तुलसीदास जी के कहने का मंतव्य यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है।
इसी तरह गंवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ाना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं और उनकी प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता।
इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता।
इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।
परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग अपने जीवन में भी उतारते हैं,और रामचरित मानस को नहीं समझ पाते हैं। अपितु अर्थ को अनर्थ बना कर प्रस्तुत करते है।
नारी सदैव पूज्यनीय थी, है एवं अनावृत रहेगी। आज कुछ सदियों से कुरीतियों ने काफी गहरी जड़ें जमा बैठी है, परिणाम हम आज नारी को भोग्या ही समझते है।
लेखक - संदीप सिंह (ईशू)
यह सती प्रथा ही नहीं बल्कि कई कुरीतियां (जिनमे प्रमुख अन्तर्जातीय विवाह - जो तब मजबूरी मे होते थे बाद मे स्वैच्छिक उसके उपरांत धोखे की प्लानिंग {सुनियोजित रूपरेखा} के अंतर्गत) मुगल काल के अत्याचारों के कारण स्थापित हुई थी। इसके विषय मे मैं आप सभी को प्रथम भाग मे ही बता चुका हूँ।
मुगल काल - यह काल को स्त्रियों की दृष्टिकोण में काला युग माना जाता है। इस समय में भारत देश पर आक्रांता मुसलमानों ने अपना आधिपत्य कायम कर लिया।
किन्तु अपने स्वाभिमान के लिए किए गए प्रयास को आज के तथाकथित बुद्धिजीवियों ने बड़ी सफाई से मूल तथ्य हटा कर मुग़लों का यशोगान करने (अपने राजनैतिक, आर्थिक, स्वार्थपूर्ण हितों के वशीभूत) का ही प्रयास किया।
यही वह मूल कारण रहा कि आज भारत के प्राचीन इतिहास मे अपनों का उल्लेख पाश्चात्य प्रभाव मे है, या तो धूमिल है।
उन्होंने हिन्दू स्त्रियों को जबरजस्ती धर्म परिवर्तन करवाया और उनके साथ ज्यादतियां शुरू कर दी। हिन्दुओं ने स्त्रियों पर अनेक प्रतिबंधात्मक निर्देशों लगने लगे।
इस काल में नारी की दशा दयनीय हो गई। उसे घर में गुलाम की तरह रखा गया। नारी को घर की चारदीवारी की कैद में रहने के लिए मजबूर किया गया । उस समय पर्दा प्रथा जोरों पर रही ।बाल विवाहों को प्रोत्साहन दिया जाने लगा।
उस समय की नारी को शिक्षा से वंचित रखा गया। मध्यकाल में स्त्रियों की स्वतंत्रता सब प्रकार से छीन ली गई और उन्हें जन्म से लेकर मृत्यु तक पुरूषों पर अधीन कर दिया गया।
इस युग में नारी को सेविका बनाकर शोषण किया जाने लगा। नारी को वेश्यालयों में बेचा भी जाता था।
मुगलों के आक्रमण से हिंदू समाज का ढांचा चरमरा गया था। वे परतंत्र होकर मुगल शासकों का अनुकरण करने लगे थे।
मुगलों और विदेशी आक्रांताओं के लिए नारी भोग विलास तथा वासना पूर्ति मात्र की वस्तु थी। इसी कारण नारी का कार्यक्षेत्र घर की चार दीवारी में सिमट कर रह गया था। जिससे समाज में अशिक्षा, बाल-विवाह तथा सती प्रथा, पर्दा प्रथा का प्रचलन बढ़ा।इस प्रकार नारी मात्र दासी और भोग्या बन कर रह गई।
गोस्वामी तुलसीदास ने इस स्थिति का उल्लेख करते हुए कहा हैं कि -
कत विधि सृजि नारी जग माही.
पराधीन सपनेहुँ सुख नाही
आज के लेख मे भारत मे नारी की स्थिति को मैं तुलसी दास जी की ही रचना के माध्यम से बताने का प्रयास करूँगा।
तुलसीदास जी रचित रामचरित मानस में नारियों को सम्मान जनक रूप में प्रस्तुत किया है।
जिससे ‘यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते, रमन्ते तत्र देवता:’ ही सिद्ध होता है। नारियों के बारे में उनके जो विचार देखने में आते हैं उनमें से कुछ इस प्रकार हैं:-
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी।।
अर्थात धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा अति विपत्ति के समय ही की जा सकती है। इंसान के अच्छे समय में तो उसका हर कोई साथ देता है, जो बुरे समय में आपके साथ रहे वही आपका सच्चा साथी है। उसीके ऊपर आपको सबसे अधिक भरोसा करना चाहिए।
जननी सम जानहिं पर नारी ।
तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।।
अर्थात जो पुरुष अपनी पत्नी के अलावा किसी और स्त्री को अपनी मां सामान समझता है, उसी के ह्रदय में भगवान का निवास स्थान होता है।
जो पुरुष दूसरी नारियों के साथ संबंध बनाते हैं वह पापी होते हैं, उनसे ईश्वर हमेशा दूर रहता है।
इससे समाज मे नारी के लिए सम्मान और उत्कृष्ट आचरण भी सहजता से निर्दिष्ट हो रहा है।
मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना ।
नारी सिखावन करसि काना ।।
अर्थात भगवान राम सुग्रीव के बड़े भाई बाली के सामने स्त्री के सम्मान का आदर करते हुए कहते हैं, दुष्ट बाली तुम अज्ञानी पुरुष तो हो ही लेकिन तुमने अपने घमंड में आकर अपनी विद्वान् पत्नी की बात भी नहीं मानी और
तुम हार गए।
मतलब अगर कोई आपको अच्छी बात कह रहा है तो अपने अभिमान को त्यागकर उसे सुनना चाहिए, क्या पता उससे आपका फायदा ही हो जाए।
यहां भी तुलसीदास जी ने नारी की विद्वता और जीवन मे उनके योगदान को दर्शाता है। इससे स्पष्ट होता है कि हमारी भारतीय सभ्यता मे नारी सदैव से पूज्यनीय रही है, इसी लिए पत्नी को अर्धांगिनी और जीवन संगिनी कहा जाता है।
तुलसी देखि सुबेषु भूलहिं मूढ़ न चतुर न सुन्दर ।
केकिही पेखु बचन सुधा सम असन अहि ।।
अर्थात तुलसीदास जी कहते हैं सुन्दर लोगों को देखकर मुर्ख लोग ही नहीं बल्कि चालाक मनुष्य भी धोखा खा जाता है। सुन्दर मोरों को ही देख लीजिए उनकी बोली तो बहुत मीठी है लेकिन वह सांप का सेवन करते हैं। इसका मतलब सुन्दरता के पीछे नहीं भागना चाहिए।
चाहे कोई भी हो। तमाम सीमाओं और अंतर्विरोधों के बावजूद तुलसी लोकमानस में रमे हुए कवि हैं। उनका सबसे प्रचलित दोहा जिसे सबने अपने तरीके से तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत किया। हमेशा विवादों के घेरे में आ जाता है। कई महिला संगठनों ने तो इसका घोर विरोध भी किया।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं।
मरजादा पुनि तुम्हरी कीन्हीं॥
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी।
सकल ताड़ना के अधिकारी॥
अर्थात प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी (दंड दिया), किंतु मर्यादा (जीवों का स्वभाव) भी आपकी ही बनाई हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और स्त्री ये सब शिक्षा के अधिकारी हैं।
कुछ लोग इस चौपाई का अपनी बुद्धि और अतिज्ञान के कारण विपरीत अर्थ निकालकर तुलसी दास जी और रामचरित मानस पर आक्षेप लगाते हुए अक्सर दिख जाते हैं। सामान्य समझ की बात है कि अगर तुलसीदास जी स्त्रियों से द्वेष या घृणा करते तो रामचरित मानस में उन्होंने स्त्री को देवी समान क्यों बताया? आपkh पूर्व की पंक्तियों मे इसे सहजता से समझ गए होंगे।
और तो और- तुलसीदास जी ने तो-
एक नारिब्रतरत सब झारी।
ते मन बच क्रम पतिहितकारी।
अर्थात, पुरुष के विशेषाधिकारों को न मानकर दोनों को समान रूप से एक ही व्रत पालने का आदेश दिया है। साथ ही सीता जी की परम आदर्शवादी महिला एवं उनकी नैतिकता का चित्रण, उर्मिला के विरह और त्याग का चित्रण यहां तक कि लंका से मंदोदरी और त्रिजटा का चित्रण भी सकारात्मक ही है। इससे सिद्ध होता है कि महिलाएं और पुरुष समानांतर थे।
सिर्फ इतना ही नहीं सुरसा जैसी राक्षसी को भी हनुमान द्वारा माता कहना, कैकेई और मंथरा भी तब सहानुभूति का पात्र हो जाती हैं जब उन्हें अपनी गलती का पश्चाताप होता है।
(हालांकि माता कैकयी के व्यक्तित्व को आज हम काफी गलत प्रचलित और प्रचारित करते। माता कैकयी के विषय मे एक रचना लिखने का प्रयास है,- "क्षत्राणी माँ कैकयी" अभी लेखन अधूरा है, इसे पूर्ण करके आपके सामने उपस्थित करूंगा।)
ऐसे में तुलसीदासजी के ताड़ना शब्द का अर्थ स्त्री को पीटना अथवा प्रताड़ित करना है ऐसा तो सहजता से स्वीकार नहीं होता।
इस बात का भी ध्यान रखना आवश्यक है कि तुलसीदास जी शूद्रों के विषय में तो कदापि ऐसा लिख ही नहीं सकते क्योंकि उनके प्रिय राम द्वारा शबरी, निषाद, केवट आदि से मिलन के जो उदाहरण है वो तो और कुछ ही दर्शाते हैं।
शूद्र यहां जाति वर्ग नहीं है, जिसे हमने विचारो मे स्थापित करके जाति विशेष को इंगित कर लिया।
तुलसीदास जी ने यहां शूद्र का संबोधन निकृष्ट प्रवृत्ति, अधर्मी, व्यभिचारी, गलत आचार विचार वाले व्यक्तियों के लिए प्रयोग किया है।
तुलसीदास जी ने मानस की रचना अवधी में की है और प्रचलित शब्द ज्यादा आए हैं, इसलिए 'ताड़न' शब्द को संस्कृत से ही जोड़कर नहीं देखा जा सकता, राजा दशरथ ने स्त्री के वचनों के कारण ही तो अपने प्राण दे दिए थे। श्री राम ने स्त्री की रक्षा के लिए रावण से युद्ध किया, रामायण के प्रत्येक पात्र द्वारा पूरी रामायण में स्त्रियों का सम्मान किया गया और उन्हें देवी बताया गया।
असल में ये चौपाइयां उस समय कही गई है जब समुद्र द्वारा श्रीराम की विनय स्वीकार न करने पर जब श्री राम क्रोधित हो गए और अपने तरकश से बाण निकाला तब समुद्र देव श्रीराम के चरणों मे आए और श्रीराम से क्षमा मांगते हुए अनुनय करते हुए कहने लगे कि-
हे प्रभु आपने अच्छा किया जो मुझे शिक्षा दी और ये ये लोग विशेष ध्यान रखने यानि, शिक्षा देने के योग्य होते हैं।
ताड़ना एक अवधी शब्द है जिसका अर्थ पहचानना, परखना या रेकी करना होता है।
तुलसीदास जी के कहने का मंतव्य यह है कि अगर हम ढोल के व्यवहार (सुर) को नहीं पहचानते तो, उसे बजाते समय उसकी आवाज कर्कश होगी अतः उससे स्वभाव को जानना आवश्यक है।
इसी तरह गंवार का अर्थ किसी का मजाक उड़ाना नहीं बल्कि उनसे है जो अज्ञानी हैं और उनकी प्रकृति या व्यवहार को जाने बिना उसके साथ जीवन सही से नहीं बिताया जा सकता।
इसी तरह पशु और नारी के परिप्रेक्ष में भी वही अर्थ है कि जब तक हम नारी के स्वभाव को नहीं पहचानते उसके साथ जीवन का निर्वाह अच्छी तरह और सुखपूर्वक नहीं हो सकता।
इसका सीधा सा भावार्थ यह है कि ढोल, गंवार, शूद्र, पशु और नारी के व्यवहार को ठीक से समझना चाहिए और उनके किसी भी बात का बुरा नहीं मानना चाहिए।
परन्तु दुर्भाग्य तुलसीदास जी रचित इस चौपाई को लोग अपने जीवन में भी उतारते हैं,और रामचरित मानस को नहीं समझ पाते हैं। अपितु अर्थ को अनर्थ बना कर प्रस्तुत करते है।
नारी सदैव पूज्यनीय थी, है एवं अनावृत रहेगी। आज कुछ सदियों से कुरीतियों ने काफी गहरी जड़ें जमा बैठी है, परिणाम हम आज नारी को भोग्या ही समझते है।
लेखक - संदीप सिंह (ईशू)