एनिमल - फिल्म समीक्षा Dr Sandip Awasthi द्वारा फिल्म समीक्षा में हिंदी पीडीएफ

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एनिमल - फिल्म समीक्षा

लेख :_ विकृत मानसिकता या कॉन्टेंट की कंगाली?

(एनिमल फिल्म के संदर्भ में) ______________________________

हर इंसान के अंदर आदिम प्रवृत्ति, एक राक्षस या जानवर छुपा होता है।जो कभी कभी बाहर आता है। परंतु परिवार के संस्कार, शिक्षा और अच्छा माहौल के साथ वह धीरे धीरे डायल्यूट होकर बहुत ही कम इंपैक्ट रह जाता है। और किसी किसी की आदिम हिंसक प्रवृत्ति नही जाती, लगातार, तो उसका इलाज दिमाग के डॉक्टर, पागलखाने में होता है।और साथ ही हिंसा करने पर कानून सजा देता है। जिससे वह बेहतर बन सके। इसी एनिमल की बात उठाते हुए उसे ग्लोरीफाई और उसकी हिंसा को जस्टिफाई करने का वीभत्स प्रयास है निर्देशक वांगा की फिल्में। " देखे हुए एक दृश्य का टू प्रभाव चेतन और अवचेतन पर लंबे समय तक रहता है। और कहीं न कहीं वह हमारे व्यवहार में उतर ही आता है। भला कम और बुरा ज्यादा ।"। क्या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी अनर्गल, बेसिर पैर का दिखाना जायज है? क्या विरोधाभासों को बिना तर्क के बस पर्दे पर उतार देना उचित है? और नए के नाम पर हर सामान्य स्त्री पुरुष के प्रणय की बातों को खुले में कह देना जायज है? अतिरेक हिंसा की तो बात ही नही की अभी तक ।क्योंकि वह तो फायर में खून के रंग और आंखों के रंग को एक कर देती है। आने वाले वक्त में कितनी जानें जाएंगी समाज में और कितने लोग महिला को पांव की जूती समझेंगे और विरोध करने पर उसके साथ हिंसा करेगे, यह सामने आने भी लगा है।भारतीय घरों के कोई भी माता पिता अपने बच्चों को कभी भी अपराध करने को नहीं कहते। बल्कि वह तो अपना अपमान या अन्य बात को भी दबा जाते हैं की परिवार में बिना बात के क्लेश होगा। इस फिल्म में अनेक छोटे छोटे बहानों, कारणों से अपराध, हिंसक व्यवहार हैं जिनकी कोई गिनती नहीं है। बात हो रही है फिल्म "एनिमल" की और उसके विकृत मानसिकता के निर्देशक, जिसे तुरंत मनोचिकित्सक की लंबी निगरानी की जरूरत है, संदीप रेड्डी वांगा की। संवाद, कहानी तो आजकल जैसी निर्देशक चाहता है वैसी ही लिखी जाती है और यहां तो खुद वांगा, निर्देशक, ने ही कहानी लिखी है। लिखी क्या और कैसे तोड़ मरोड़ की है, यह एक कहानीकार होने के नाते आगे बताएंगे। और इन जैसे नए निर्देशक जो बना रहे जवान, पुष्पा केजीएफ आदि फिल्म, क्या करें अपने को हिट बनाने के लिए? क्योंकि दक्षिण, सभी प्रमुख पांच राज्यों का फिल्म मध्यम एक बड़ा उद्योग है और निर्देशक शंकर, राजामोली, मणिरत्नम, कमलहसन, लॉरेंस आदि जो पुराने और जमे जमाए हैं सभी सक्रिय हैं। तो इन नए लोग जो असिस्टेंट डायरेक्टर, जिसका कार्य स्पॉट ब्वॉय से थोड़ा ही बेहतर होता है, बने रहते ही दस दस साल निकाल देंगे तो फिल्म कब बनाएंगे? ऊपर से सफल होने और फेम जल्दी । फिल्म मेकिंग, कहानी, पटकथा और सबसे बढ़कर आलवार संतो और भक्ति आंदोलन की भूमि दक्षिण भारत से सब नही तो कुछ तो सीखना समाज, मानव और एक सकारात्मक मनोरंजन के लिए। पर नही जल्दी जल्दी, अर्थात मुश्किल से दो चार सालों की रगड़ाई और उसमें भी जोड़ तोड़ बैठाना सीखते हुए जो कुछ अधकचरा मिला समझा उसे लेकर फिल्म मेकिंग कर दी। एक भी किताब और अच्छी कहानियों, भाषा जानी न सीखी। सीखा यह की किसी भी तरह सक्सेस मिल जाए। हिंसा का अतिरेक, उन्मुक्त यौन दृश्य, संवाद और हर चीज को ग्लोरिफाई करके दिखाओ।भले ही स्त्री पुरुष के संबंध हो, भाइयों मे तकरार हो या अपराध हो। दरअसल यह दक्षिण, जहां इतने अच्छे अच्छे कथाकार, विद्वान हुए वहां की वह पीढ़ी है जो बाजारवाद और भूमंडलीकरण में ही पली, बड़ी हुई।जिसके लिए वैल्यूज, मानवीयता, प्यार, अपनापन आदि कोई मायने नहीं रखते। और असफल होने से डरते हैं, घबराते हैं। यह इनके मन की हालत है। मनोविकार और सोच है जहां निरंतर और बिना रुके इतनी फिल्में बनती हैं की मौलिक विषय, दृश्य और संवादों का अकाल हो गया है। तो अधिकतर उनकी फिल्मों और निर्देशकों के मन में विकृति घर कर गई है। चाहे कंटारा हो, केजीएफ 1, 2 पुष्पा, एनिमल आदि हो सभी में आपको जो दृश्य या हरकतें नई लगी वह दरअसल विकृत थीं।अत्यधिक हिंसा, बिना कोई तर्क के ।यह नायक हैं या मनोरोगी? और बेहद चौकाने वाली बात यह भी है की महिलाओं, लड़कियों की बेहद अपमानजनक स्थिति। मानसिक विकलांग नायक और निर्देशक मिलकर ऐसा वितान, नेरेटिव रच रहे कोई भी दृश्य हो। एनिमल फिल्म में ही चार महिला पात्र मुख्य हैं।नायक की मां, जो पति से लेकर पुत्र तक को कभी भी रोकती, समझाती नही दिखती बल्कि एक निर्जीव वस्तु की तरह पड़ी हुई है घर में। उसकी दो बहनें, जिन्हे सिर्फ खिलौने, पैसा देकर इस तरह पाला की वह गुड़िया सी बन गई । विकृत मानसिकता का वांगा का नायक अपनी बहन के पति की भी हत्या कर देता है और बहन को दूसरा विवाह की सलाह इस अश्लील संवाद, " तू अभी तीस की है, अच्छी जवान दिखती है, दूसरी शादी कर लेना" कहकर देता है। ऐसे भाई बहन जिस फिल्म मेकर की सोच में है उसे आप क्या कहेंगे? तीसरी नायिका है, यह बड़ा दिलचस्प पहलू है निर्देशक का।या कहो दुखती रग है। वह भी सजावटी गुड़िया है जो नायक पति के हिंसक व्यवहार पर चुप ही नही रहती उसे अबाध सैक्स की आपूर्ति भी हर वक्त बिना उसके करती है। वह तो आखिर में की कैसा बेसिर पैर का मैं दिखा रहा हूं, तो वह थोड़ा विरोध करती है दूसरी औरत के साथ दस पन्द्रह दिन रहने पर। फिर कमजोर कारण, की घर के भले के लिए दूसरी औरत के साथ हूं, से वह मान भी जाती है। चौथी प्रमुख औरत खल पात्र है तो उसका कितना अधिक शोषण, यौन और मानसिक हुआ होगा, यह आप सोच सकते हैं। तो यह बेहद अपमानजनक, रीढ़विहीन महिलाओं का चित्रण कर फिल्मकार अपनी सोच स्त्रियों के प्रति दिखा देता है। इसी में नही बल्कि वांगा की पहली दो फिल्मों में भी महिला पात्र, दयनीय ही हैं। असफलता हम सभी को मिलती है और हम उससे हिम्मत लेकर आगे बढ़ते हैं, परंतु इतने अधिक नेगेटिव ही हो जाएं, वह गलत है। एक सामान्य आदमी से लेकर राजकुमार हिरानी, ( अभी अभी डंकी अच्छी नहीं गई), आमिर, लालसिंह चड्डा, सभी होते हैं पर उसका अर्थ यह नेराटिव बनाना तो नही। आम आदमी तक हिम्मत दिखाता है और अच्छाई, मूल्यों का रास्ता नहीं छोड़ता।पर यह फिल्मकार, अतिरेक हिंसा आदि से असुरक्षित और मानसिक बीमार दिखते हैं। अभी इस चक्कर में कितना नुकसान सामाजिक ताने बाने और खासकर स्त्रियों के प्रति सोच का हुआ है, उसकी गिनती ही नहीं है l हर फिल्म नायक लार्जर than लाइफ है।भले ही वह अनाथ, राह चलता, अशिक्षित और अनपढ़ है। उसके अनुभव सीमित से भी कम हैं। लेकिन हमारे यह नई पीढ़ी के साउथ के निर्देशक, इतनी जल्दी में हैं की कुछ भी एडवांस फिल्म तकनीक से ग्लोरीफाई करके, मीडिया से एक हाइप बनाकर फिल्म को पहले तीन दिनों में ही हिट, सुपरहिट बना लेते हैं।पर क्या कामयाब होने का दिखावा करने के लिए अतिरेक, उन्माद और महिलाओं से दोयम से भी नीचे दर्जे का व्यवहार दिखाना जायज है? यह कैसे फिल्मकार और क्या इनकी सोच :_ ________________________ जल्द सफलता, बेशुमार पैसा और फेम इस सबके लिए एक फॉर्मूला बन गया है। अतिरेक हिंसा परिवार का बहाना + महिलाओं का उपयोग, कठपुतली जैसे+विकृत यौन व्यवहार। एनिमल में, बताते हुए सिर पकड़ लो, पुरुष अंडर गारमेंट्स पर चार दृश्य, फूहड़ यौन विकृति के दस दृश्य जो इतने वीभत्स ढंग से फिल्माए हैं की उबकाई आती है और अनगिनत कसाई खाने जैसे दृश्य।इतनी कमजोर पटकथा है की पूछो मत। जो पिता बचपन में हर गलती पर बेटे को टोकता, सजा देता, मारता है उसी बेटे को दिनदहाड़े गर्ल्स स्कूल में रायफल ले जाने पर कुछ नही कहता? मां का पात्र, तक इसमें निर्देशक ने कमजोर दिखाया।फिर चूक पटकथा की ।यह को मां सब जानती हैं।बेटी बताती होंगी पर वह बेटे को समझाना तो दूर पिता से भी नही कहती। वांगा जी, ऐसे घर कहां देखे आपने? महिला पात्र से जूते चटवाने बात कहने की पराकाष्ठा को तो जावेद अख्तर तक शर्मनाक और लताड़ लगा चुके ।पर इसके अलावा भी दूसरी महिला पात्र के साथ कैद रखके अनगिनत सेक्स वह भी हीरो (?) द्वारा? शर्मनाक है। पटकथा बताया न जानकर ऐसी बनाई है। अन्यथा दुश्मन से मिली महिला से राज निकलवाने के लिए महीना भर उसके ऊपर फिदा होना दिखाना जरूरी नहीं!! ऊपर से पिता की सुरक्षा की आड़ लेकर भयावह हिंसा को जायज करना।उसी पिता के बार बार मना करने पर भी अनगिनत खून करते जाना।वह भी एक तथाकथित हाई क्लास घर में थर्ड क्लास से भी बदतर सोच और व्यवहार रखना।यह ऐसा व्यक्ति है जिसका बचपन में ही, जब वह बहन के स्कूल में छेड़ने वाले लड़कों को गन लाकर डराता है, तभी इलाज करवाना चाहिए था। और उसी वक्त हिंसा के जुर्म में थाने में । पर वांगा जैसे निर्देशक अमूर्त रूप से कहना चाहते हैं बेहद अमीर पिता के पुत्र होने से उसे इन सबकी छूट मिली है। पर ऐसा नहीं होता। जब तक पिता या घर में अन्य कोई भी हिंसक और गैंग वाला हो। पिता, अनिल कपूर, एक अच्छे अभिनेता ने खूब निभाया और बेबसी, क्रोध लाचारी प्रकट की परंतु एक्शन नहीं लिया ।यह निर्देशक, जो कहानीकार(??)भी है की कमजोरी या काहिली कहो पूरी फिल्म में अपराधी मानसिकता के पुत्र को सुधारने, इलाज कराने की नही सोचता। सोचता तो फिल्म ही खत्म हो जाती। लॉ एंड ऑर्डर, कानून, पुलिस का कहीं कोई नामों निशान नहीं । यह वह चंद फिल्मकार हैं जो बाहर से पढ़कर आए हैं। हॉलीवुड के थर्ड क्लास, हिंसक, विकार युक्त, खलल वाले सिनेमा को भारतीय माहौल में ढालकर परोस रहे हैं।कहां होता है यह सब? फिल्मकार यह भी नहीं कह सकते अब तो की यह समाज में है हम उसे ही दिखा रहे। तो फिर? फिर यह की विकृति निर्देशक के दिमाग में है जो सफल होने के लिए किसी भी हद तक जाता है । विकृत सोच परदे पर विकृति दिखाती है _____________________________निर्देशक का अप्रोच प्रारंभ से ही विकृत रहा।चाहे वह अर्जुन रेड्डी, 2016, फिर उसका हिंदी रीमेक कबीर सिंह, 2018, और अब एनिमल तीनों (पर दूसरी पहले वाली की कार्बन कॉपी थी, तो दो ही फिल्म मूल रूप से ) बताती हैं 1.स्त्रियों की बेहद लाचार, कमजोर और भोग्या दशा। 2.मातापिता की कोई भूमिका नहीं। 3.समाज, नैतिक मूल्य और धवलता की कोई जिम्मेदारी नहीं। 4.स्टोरी लाइन और संवाद कोई भी प्रभावशाली या आज तक याद रखने लायक नही। यह खुद निर्देशक वांगा ने लिखे हैं। 5.हिंसा, यौन विकृति के पात्रों को बढ़ा चढ़ाकर बताना। पहली दोनो फिल्मों में पुरुष पात्र, इसे नायक कहां भी शर्मनाक है, लड़की को बिना उसकी सहमति के जबरन हासिल करता है।छोड़ता है और जब मर्जी हो लौटकर उसे विवाहित होने पर भी पुनः ले जाता है। कबीर सिंह, अर्जुन रेड्डी यही सी ग्रेड की कहानी कहती है। बेहद चतुराई और शातिर तरीके से निर्देशक वांगा पुरुष को मेडिकल जैसे व्यवसाय में दिखाकर बचने की असफल कोशिश करते हैं। पिता माता, भाई यहां भी न होने के बराबर हैं। फिल्में हिट हुई पर आज पोर्न साइट्स इंटरनेट पर सबसे अधिक देखी जाती हैं तो क्या उसे हम सिनेमा, क्लासिक फिल्म या सफल हैं तो सब देखें, मान सकते हैं क्या? नही! और न ही यह होना चाहिए। और जिस वर्ग की स्त्री की वांगा बात करते हैं जो मेडिकल पढ़ रही या उच्च शिक्षित परिवार, एनिमल की है वहां ऐसी बिना दिमाग की, हर गलत बात, थर्ड क्लास व्यवहार, यौन हिंसा को खुद के साथ होते देख भी चुप रहने वाली तो कोई नही होती।सिवाय निर्देशक के खाली दिमाग की कोठरी के। यह अपमानजनक, बकवास, फूहड़ और नारी की छवि को तार तार करती फिल्में नहीं बल्कि रचनात्मकता की कंगाली का प्रतीक हैं।सदियों पहले भी नारी ऐसी नही थी। चूंकि दोनो एक ही कहानी का तमिल और हिंदी रीमेक हैं तो उनके बिंदु एक ही हैं। देखें और सोचें यह क्या है नही बल्कि क्यों है? यह सब हो क्यों रहा है? इसके पीछे सोच क्या है? और धन कौन लगा रहा है इन फिल्मों में? इनका विश्लेषण करते ही बात साफ हो जाती है। सोच तो है किसी भी तरह सफलता प्राप्त करना भले ही शॉर्टकट के चक्कर में मानसिक दिवालियापन दिखे।क्योंकि दक्षिण में वांगा जैसे औसत निर्देशक से कही बेहतर निर्माता निर्देशक आज अनेक हैं। मणिरत्नम, शंकर, कमल हासन, केटी राजू, बाहुबली 1, 2 आदि तक।तो ऐसे में इन कल के आए लोगों चाहे एटली, जवान फिल्म, हो या वांगा क्यों पूछेंगे? तो इन्हे यह लगा शॉर्ट कट ।भले ही इस चक्कर में फिल्म माध्यम का दुरुपयोग हो जाए। इन फिल्मों में कलात्मक, याद रखने वाले दृश्य, इमोशंस, कहानी, संवाद, मजबूत पटकथा, मेलोडी कुछ भी नही। बस वीएफएक्स (बनावटी दृश्य जो अवास्तविक हैं की ही भरमार है) । बाजार पैसा लगा रहा है क्योंकि वह भावना शून्य है। चाहता भी यही है की भावी, वर्तमान पीढ़ी मनमानी करे, किसी बड़े की न सुने, खुलकर यौन गतिविधियां करके उसके गिल्ट, अपराधबोध से मुक्त होने के लिए उसके बाजार के कब्जे में आ जाए। और जैसा बाजार कहता जाए वैसे ही वह करती चले। कोई मूल्य, संस्कार, संस्कृति और अपनेपन भावनाओं से बाजार को कोई लेना देना नही। भले ही ऐसी फिल्में उत्तरी अमेरिका के थर्ड क्लास सिनेमाओं में वर्षों पहले लगती हो पर भारत जैसे खुली अर्थव्यवस्था के देश में यह अब आ रहीं हैं। रणवीर कपूर जैसे नायक क्या सोचकर ऐसे पात्र चुनते हैं यह समझ के बाहर है। आखिर में एक ब्रिटेन के फिल्म क्रिटिक्स की बात याद आती है, " फिल्म खराब होती है तो निर्देशक की विकृति परंतु खराब फिल्म चल जाती है तो यह बाजारवाद के बढ़ते दखल को बताती है।" अब हमें यह देखना है की हम अपने घर से इस बाजार और उसके दखल को कितनी जल्दी और कैसे दूर करते हैं। किताबें, विचार और सेमिनार के साथ स्त्रियों का सम्मान भी प्रभावशाली जरिया है। स्त्री को सम्मान, साथी और बराबरी का दर्जा, वास्तव में देने वाला पुरुष चाहिए और यह नहीं मिलता है तो वह अकेली ही सहजता से जीवन में आगे बढ़ती है मुस्कराती हुई। उसे एनिमल नहीं चाहिए न ही वांगा जैसों के नायक। _________________________

डॉ. संदीप अवस्थी, कथाकार और फिल्म लेखक, संपर्क 7737407061