श्रीसुग्रीव जी न सर्वे भ्रातरस्तात भवन्ति भरतोपमाः।
मद्विधा वा पितुः पुत्राः सुहृदो वा भवद्विधाः॥
श्रीराम जी सुग्रीवसे कहते हैं—‘भैया! सब भाई भरत के समान आदर्श नहीं हो सकते। सब पुत्र हमारी तरह पितृभक्त नहीं हो सकते और सभी सुहृद् तुम्हारी तरह दुःख के साथी नहीं हो सकते।’
सभी सम्बन्धों के एकमात्र स्थान श्रीहरि ही हैं। उनसे जो भी सम्बन्ध जोड़ा जाय, उसे वे पूरा निभाते हैं। सच्ची लगन होनी चाहिये, एकनिष्ठ प्रेम होना चाहिये। प्रेमपाश में बँधकर प्रभु स्वामी बनते हैं। वे सखा, सुहृद्, भाई, पुत्र, सेवक-सभी कुछ बनने को तैयार हैं। उन्हें शिष्टाचार की आवश्यकता नहीं, वे सच्चा स्नेह चाहते हैं।
प्रभु तरु तर कपि डार पर ते किए आपु समान।
तुलसी कहूँ न राम से साहिब सीलनिधान॥
– (रा०च०मा० १। २९क)
सुग्रीव को भगवान्ने स्थान-स्थान पर अपना सखाभक्त माना है। बालि और सुग्रीव—ये दो भाई थे। दोनोंमें ही परस्पर बड़ा स्नेह था। बालि बड़ा था, इसलिये वही वानरों का राजा था। एक बार एक राक्षस रात्रि में किष्किन्धा आया। आकर बड़े जोर से गरजने लगा। बालि उसे मारने के लिये नगरसे अकेला ही निकला। सुग्रीव भी भाई के स्नेहके कारण उसके पीछे-पीछे चला। वह राक्षस एक बड़ी भारी गुफामें घुस गया। बालि अपने छोटे भाईको द्वारपर बैठाकर उस राक्षस को मारने उसके पीछे-पीछे उस गुफामें चला गया। सुग्रीव को बैठे-बैठे एक माह बीत गया, किंतु बालि उस गुफा में से नहीं निकला। एक महीनेके बाद गुफामेंसे रक्तकी धार निकली। सुग्रीवने समझा, मेरा भाई मर गया है, अब वह राक्षस बाहर निकलकर मुझे भी मार डालेगा, अतः उस गुफा को एक बड़ी भारी शिला से ढककर वह किष्किन्धापुरी लौट गया। मन्त्रियों ने जब राजधानी को राजा से हीन देखा, तब उन्होंने सुग्रीव को राजा बना दिया। थोड़े ही दिनोंमें बालि आ गया। सुग्रीव को राजगद्दी पर बैठा देखकर वह बिना ही जाँच-पड़ताल किये क्रोध से आग-बबूला हो गया और उसे मारने को दौड़ा। सुग्रीव भी अपनी प्राणरक्षा के लिये भागा। भागते-भागते वह मतंग ऋषि के आश्रम पर जा पहुँचा। बालि वहाँ शापवश जा नहीं सकता था। अतः वह लौट आया और सुग्रीवका धन-स्त्री आदि सब कुछ उसने छीन लिया। राज्य, स्त्री और धन के हरण होनेपर दुखी सुग्रीव अपने हनुमान् आदि चार मन्त्रियोंके साथ ऋष्यमूकपर्वत पर रहने लगा।
सीताजीका हरण हो जानेपर भगवान् श्रीरामचन्द्रजी अपने भाई लक्ष्मणजीके साथ उन्हें खोजते-खोजते शबरीके बतानेपर ऋष्यमूकपर्वतपर आये। सुग्रीवने दूरसे ही श्रीराम-लक्ष्मणको देखकर हनुमान्जीको भेजा। हनुमान्जी उन्हें आदरपूर्वक ले आये। अग्निके साक्षित्वमें श्रीराम एवं सुग्रीवमें मित्रता हुई। सुग्रीवने अपना सब दु:ख भगवान्को सुनाया। भगवान्ने कहा— मैं बालिको एक ही बाणसे मार दूंगा।’ सुग्रीवने परीक्षाके लिये अस्थिसमूह दिखाया ।........श्रीरामजीने उसे पैरके अँगूठेसे ही गिरा दिया। फिर सात ताड़वृक्षोंको एक ही बाणसे गिरा दिया। सुग्रीवको विश्वास हो गया कि श्रीरामजी बालिको मार देंगे। सुग्रीवको लेकर श्रीरामजी बालिके यहाँ गये। बालि लड़ने आया, दोनों भाइयोंमें बड़ा युद्ध हुआ। अन्तमें श्रीरामचन्द्रजीने तककर एक ऐसा बाण बालिको मारा कि वह मर गया।
बालिके मरनेपर श्रीरामजीकी आज्ञासे सुग्रीव राजा बनाये गये और बालिके पुत्र अंगदको युवराजका पद दिया गया। तदनन्तर सुग्रीवने वानरोंको इधर-उधर श्रीसीताजीकी खोजके लिये भेजा और श्रीहनुमान्जीद्वारा सीताजीका समाचार पाकर वे अपनी असंख्य वानरी सेना लेकर लंकापर चढ़ गये। वहाँ उन्होंने बड़ा पुरुषार्थ दिखलाया। सुग्रीवने संग्राममें रावणतकको इतना छकाया कि वह भी इनके नामसे डरने लगा। लंका-विजय करके ये भी श्रीरामजीके साथ श्रीअवधपुरी आये और वहाँ श्रीरामजीने उनका परिचय कराते हुए गुरु वसिष्ठजीसे कहा—
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे। भए समर सागर कहँ बेरे॥
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे। भरतहु ते मोहि अधिक पिआरे॥ – (रा०च०मा० ७।८। ७-८)
श्रीरामजी ने सुग्रीवजी को स्थान-स्थान पर—‘प्रिय सखा’ कहा है और अपने मुखसे स्पष्ट कहा है कि—‘तुम्हारे समान आदर्श नि:स्वार्थ सखा संसारमें बिरले ही होते हैं। श्रीरामजीने थोड़े दिन इन्हें अवधपुरीमें रखकर विदा कर दिया और ये भगवान्की लीलाओंका स्मरण-कीर्तन करते हुए अपनी पुरीमें रहने लगे। अन्तमें जब भगवान् निजलोक पधारे, तब ये भी आ गये और भगवान्के साथ ही साकेत गये। सुग्रीव जैसे भगवत्कृपाप्राप्त सखा संसारमें बिरले ही होते हैं। उनका समस्त जीवन रामकाज और रामस्मरणमें ही बीता। यही जगमें जीवनका परम लाभ है। भगवान् से प्रार्थना करते हुए सुग्रीवजी कहते हैं— त्वत्पादपद्मार्पितचित्तवृत्तिस्त्वन्नामसंगीतकथासु वाणी। त्वद्भक्तसेवानिरतौ करौ मे त्वदङ्गसङ्गं लभतां मदङ्गम् ॥ त्वन्मूर्तिभक्तान् स्वगुरुं च चक्षुः पश्यत्वजत्रं स शृणोतु कर्णः।।
त्वज्जन्मकर्माणि च पादयुग्मं व्रजत्वजस्रं तव मन्दिराणि॥ अङ्गानि ते पादरजोविमिश्रतीर्थानि बिभ्रत्वहिशत्रुकेतो। शिरस्त्वदीयं भवपद्मजाद्यैर्जुष्टं पदं राम नमत्वजस्रम्॥ – (अ० रा० ४।१।९१-९३)
‘प्रभो ! मेरी चित्तवृत्ति सदा आपके चरण-कमलोंमें लगी रहे, मेरी वाणी सदा आपका नामकीर्तन एवं लीलागान करती रहे, हाथ आपके भक्तों की सेवामें लगे रहें और मेरा शरीर (आपके पाद-स्पर्श आदिके मिससे) सदा आपका अंग-संग करता रहे। मेरे नेत्र सर्वदा आपकी मूर्ति, आपके भक्त और अपने गुरु का दर्शन करते रहें; कान निरन्तर आपके दिव्य जन्म-कर्मो की कथा सुनते रहें और मेरे पैर सदा आपके मन्दिरों की यात्रा करते रहें। हे गरुडध्वज ! मेरा शरीर आपकी चरण-रज से युक्त तीर्थोदक को धारण करे और मेरा सिर निरन्तर आपके उन चरणोंमें प्रणाम किया करे, जिनकी शिव और ब्रह्मादि देवगण भी सदैव सेवा करते हैं।’