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बालिपुत्र अंगद



वनवासके समय भगवती जानकीका अन्वेषण करते हुए मर्यादापुरुषोत्तम ऋष्यमूकपर पहुँचे। वहाँ उन्होंने सुग्रीव से मित्रता की। सुग्रीव का पक्ष लेकर उन्होंने वानरराज बालि को मारा। मरते समय बालि ने अपने पुत्र अंगदको उन सर्वेश्वरके चरणोंमें अर्पित किया। बालि ने कहा:
यह तनय मम सम बिनय बल कल्यानप्रद प्रभु लीजिए।
गहि बाँह सुर नर नाह आपन दास अंगद कीजिए।
–(रा०च०मा० ४।१०। २ छं० )


प्रभुने अंगद को स्वीकार किया। सुग्रीव को किष्किन्धा का राज्य मिला, किंतु युवराजपद बालिकुमार अंगदजी का ही रहा। अंगदने भगवान्की इस कृपा को हृदय से ग्रहण किया। श्रीसीताजी को ढूँढ़ते हुए जब वानर-वीरों का दल दक्षिण समुद्रतटपर पहुँचा और गृध्रराज सम्पातिसे यह पता चल गया कि जानकी जी लंकामें हैं, उस समय यह प्रश्न सामने आया कि सौ योजन समुद्र पार करके लंकामें कौन जाय, इस पर युवराज राम-काज के लिये लंका जानेको उद्यत हो गये थे। परंतु जाम्बवन्तजी ने उन्हें नहीं जाने दिया। हनुमान्जी लंका गये और वहाँ के समाचार ले आये। भगवान्की कृपा से समुद्र पर सेतु बाँधा गया। असंख्य वानरी सेना लंका के त्रिकूटपर्वत पर उतर गयी। अब प्रभु ने अंगद को दूत बनाकर रावण के पास भेजा। श्रीराम ने अंगद के विषयमें वहाँ कहा है
बहुत बुझाइ तुम्हहि का कहऊँ ।
परम चतुर मैं जानत अहऊँ॥ –(रा०च०मा० ६। १७ । ७)

अंगदजी के इस दौत्यकर्म को ठीक-ठीक समझना चाहिये। श्रीहनुमान्जी रावण से मिल चुके थे। उसे सामनीति से समझाने का जो प्रयत्न उन्होंने किया, वह असफल हो चुका था। उसी को फिर दुहराना बुद्धिमानी नहीं थी। रावण अहंकारी है, वह शिक्षा सुनना ही नहीं चाहता, प्रलोभन का उस पर कोई प्रभाव ही नहीं पड़ता—यह पता लग चुका था। अब तो हनुमान्जी के कार्य को आगे बढ़ाना था। डाँटकर, भय दिखाकर ही बुद्धिहीन अहंकारी लोगों को रास्ते पर लाया जा सकता है। यदि रावण न भी माने तो उसके साहस को तोड़ देना, उसके अनुचरों को भयभीत कर देना आने वाले युद्ध की दृष्टि से आवश्यक था। अंगदजी ने यही किया। रावण की राजसभा में उनकी तेजस्विता, उनका शौर्य अद्वितीय रहा। श्रीराम सर्वेश्वर हैं। उनके सेवक की प्रतिज्ञा त्रिलोकी में कोई भंग नहीं कर सकता —यह अविचल विश्वास अंगदमें था; इसी से उन्होंने रावणकी सभामें प्रतिज्ञा की:
जौं मम चरन सकसि सठ टारी ।
फिरहिं रामु सीता मैं हारी॥ –(रा०च०मा० ६॥ ३४ ॥ ९)

इस प्रतिज्ञा का दूसरा कोई अर्थ करना अंगद के दृढ़ विश्वास को न समझना है। रावण नीतिज्ञ था। उसने अनेक प्रकार की भेदनीति से काम लिया। उसने सुझाया—‘बालि मेरा मित्र था। वे राम-लक्ष्मण तो बालि को तुम्हारे पिता को मारने वाले हैं। यह तो बड़ी लज्जा की बात है कि तुम अपने पितृघाती का पक्ष ले रहे हो।' अंगद ने रावणको स्पष्ट फटकार दिया:
सुनु सठ भेद होइ मन ताकें।
श्रीरघुबीर हृदय नहिं जाकें ॥ –(रा०च०मा० ६॥ २१।१०)


जब रावण भगवान्की निन्दा करने लगा, तब युवराज उसे सह नहीं सके। क्रोध करके उन्होंने मुट्ठी बाँधकर दोनों भुजाएँ भूमिपर बड़े जोर से दे मारीं। भूमि हिल गयी। रावण गिरते-गिरते बचा। उसके मुकुट पृथ्वी पर गिर पड़े। उनमें से चार मुकुट अंगदने उठाकर भगवान्के पास उछाल दिये। इतना शौर्य दिखाकर, इतना पराक्रम प्रकट करके जब वे प्रभुके पास आये और जब उन दयामयने पूछा:
रावनु जातुधान कुल टीका।
भुज बल अतुल जासु जग लीका ॥
तासु मुकुट तुम्ह चारि चलाए ।
कहहु तात कवनी बिधि पाए॥ –(रा०च०मा० ६।३८ । ६–७)


परंतु जिनपर प्रभु की कृपा है, जो भगवान्‌ के चरणों के अनन्य भक्त हैं, उनमें कभी किसी प्रकार भी अहंकार नहीं आता। उस समय अंगदजीने बड़ी सरलता से उत्तर दिया:
सुनु सर्बग्य प्रत सुखकारी ।
मुकुट न होहिं भूप गुन चारी ॥
साम दान अरु दंड बिभेदा।
नृप उर बसहिं नाथ कह बेदा ॥
नीति धर्म के चरन सुहाए।
अस जियँ जानि नाथ पहिं आए ॥ –(रा०च०मा० ६।३८ । ८–१०)


– जैसे अंगद ने कुछ किया हो, इसका उन्हें बोधतक नहीं। वे सर्वथा निरभिमान हैं। इसके पश्चात् युद्ध हुआ। रावण मारा गया। उस युद्धमें युवराज अंगद का पराक्रम वर्णनातीत है। लंका-विजय करके श्रीराम अयोध्या पधारे। राज्याभिषेक हुआ। अन्तमें कपिनायकों को विदा करनेका अवसर आया। भगवान् एक–एक को वस्त्राभरण देकर विदा करने लगे। अंगद का हृदय धक् धक् करने लगा। वे एक कोनेमें सबसे पीछे दुबककर बैठ गये। कहीं प्रभु मुझे भी जाने को न कह दें—इस आशंका से। श्रीरामके चरणों से पृथक् होना होगा, इस कल्पना से ही वे व्याकुल हो गये। जब सभी वानर- यूथपतियों एवं रीछ-नायकों को भगवान् अपने उपहार दे चुके, जब सब आज्ञा पाकर उठ खड़े हुए, तब अन्तमें प्रभुने अंगदजी की ओर देखा। अंगद का शरीर काँपने लगा। उनके नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वे हाथ जोड़कर खड़े हो गये और कहने लगे:
सुनु सर्बग्य कृपा सुख सिंधो।
दीन दयाकर आरत बंधो ॥
मरती बेर नाथ मोहि बाली ।
गयउ तुम्हारेहि कोंछे घाली ॥
असरन सरन बिरदु संभारी ।
मोहि जनि तजहु भगत हितकारी ॥
मोरे तुम्ह प्रभु गुर पितु माता ।
जाउँ कहाँ तजि पद जलजाता ॥
तुम्हहि बिचारि कहहु नरनाहा ।
प्रभु तजि भवन काज मम काहा ॥
बालक ग्यान बुद्धि बल हीना।
राखहु सरन नाथ जन दीना ॥
नीचि टहल गृह कै सब करिहउँ ।
पद पंकज बिलोकि भव तरिहउँ॥ –(रा०च०मा० ७।१८।१–७)

‘नाथ! मेरे पिता ने मरते समय मुझे आपके चरणों में डाला है, अब आप मेरा त्याग न करें। मुझे जिस किसी भी प्रकार अपने चरणों में ही पड़ा रहने दें!' यह कहकर अंगद श्रीरघुनाथजी के चरणोंपर गिर पड़े। करुणासागर प्रभु ने उठाकर उन्हें हृदय से लगा लिया। अपने निजी वस्त्र, अपने आभरण और अपने कण्ठकी माला श्रीराघव ने अंगद को पहनायी और स्वयं अंगदको पहुँचाने चले। अंगद बार-बार प्रभु को दण्डवत्–प्रणाम करते हैं। बार- बार उस कमलमुख की ओर देखते हैं। बार-बार सोचते हैं— ‘अब तो मुझे प्रभु कह दें कि ‘अच्छा, तुम यहीं रहो।’

दूरतक दयाधाम ने अंगद को पहुँचाया। जब हनुमान्जी सुग्रीव से अनुमति लेकर श्रीराम के पास लौटने लगे, तब अंगदजी ने उनसे कहा:

कहेहु दंडवत प्रभु मैं तुम्हहि कहउँ कर जोरि।
बार बार रघुनायकहि सुरति कराएहु मोरि॥ –( रा०च०मा० ७॥ १९ क)

महाभाग ! मैं आपसे हाथ जोड़कर कहता हूँ, प्रभु से मेरी दण्डवत् कहना और श्रीरघुनाथजी को बार-बार मेरी याद कराते रहना।

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