समस्या या समाघान
श्रीनिवास माथुर जी का घर आज एक नये उत्साह से सरोबार नजर आ रहा था। मानो चारों और का सन्नाटा कहीं और जा दुबका हो , सौंघे पकवानों की गंघ से सुवासित चंदा की रसोई और बाजार की भागम भाग के साथ घर के रख रखाव में व्यस्त चंदा का पति रमेश, आज दौड दौड कर काम निमटा रहा था , उसे आज पल भर की भी फुरसत नहीं थी| बच्चों को तो चंदा ने आज सुबह बहला फुसला कर ही स्कूल भेजा था। वह नादान तो बस चाचा के नाम की ही रट लगाये हुये थे। गाँव का सीधा सरल माहौल...... जिसमें सब एक दुसरे के सुख दुख मे शामिल होते हैं । बाहर बरामदे में माथुर साहब अपने कुछ हम उम्र बुजुगों के साथ बातों में मन लगाने का प्रयत्न कर रहे थे| मन ही मन जिसका इन्तजार कर रहे थे उसके लिए अब उनके मन में किसी प्रकार का भाव बाकी नहीं रह गया था|
सामने दरवाजे पर आ खड़ी हुयी बडी सी टैक्सी को देख कर माथुर साहब के चेहरे पर आई बेबस चमक को स्पष्ट देखा जा सकता था। उनका पुत्र जो आया था। माथुर साहब कितने कुशल अभिनेता थे, इससे गाँव के सरल लोग अंन्जान थे।
गाँव में जैसे सबका स्वागत बाहें पसारे होता है वैसा ही श्रीनिवास जी के पुत्र का भी हुआ। पिता के साथ बैठे पड़ोस के चाचा, ताऊ सभी को माथुर साहब के पुत्र ने प्रणाम किया। पुत्र हाल चाल भी किसका पूछता वर्षों से घर से दूर जो था| प्रणाम व आशीर्वचनों के बाद पिता पुत्र को अकेला छोड देने का आशय से सभी ने अपने अपने घर की राह ली। पिता ने अपने मन का दुख, आक्रोश, अपमान सभी की कटु स्मृतियों का एक बडा सा धूंट गले के नीचे उतार कर बेटे को भरपूर नजरों से निहारा, बेटा अपने ही नये सुसज्जित घर को देखते हुये खुश नजर आ रहा था। यात्रा की थकान भी स्वभाविक ही थी । नये कलेवर ओढे बाथरूम में से हाथ मुंह धो कर आने के बाद बैठने के इशारे ने पिता को पुत्र के संभावित प्रश्नों से बचा लिया था औेर तब तक चंदा भी चाय लेकर कमरे में आ गयी थी। अन्जान ,प्रश्न वाचक नजरों से पुत्र ने चंदा विषय में जानना चाहा | माथुर साहब ने बेटे को कंधे पर हाथ रख प्यार से निकट रखी कुर्सी पर बैठाया , चंदा को चाय नाश्ता पकडाने का इशारा किया ।
पिता पुत्र के बीच का मौन कमरे में पुनः पसर गया था। चंदा जब खाली बर्तनों के लिये आयी तब जिज्ञासा ने पुनः सिर उढाया| इस बार शांत भाव से पिता ने परिचय कराया था| “यह चंदा है, रमेश की पत्नि अपने आंगन वाले दो कमरों में यह परिवार रहता है, इनके दो बच्चें हैं वह स्कूल गये हैं। बेटा, चंदा खाना बहुत ही स्वादिष्ट बनाती है। अभी तुम खाओगे तो चटखारे लेते रह जाओगे, पढी लिखी नहीं है पर घर काम में कुशल है। सारी व्यवस्था साक्षी है”। माथुर साहब के घ्यान दिलाने पर पुत्र ने ध्यान से देखा की सचमुच घर न केवल साफ सुथरा था बल्कि एकदम व्यवस्थित, करीने से जचाया हुआ था। पुत्र को याद आया माँ भी अपनी व्यस्तता के रहते घर को ऐसा व्यवस्थित नहीं रख पाई थी। पिता की आँखों में सुखद, संतोष भरे पलों की चमक देख बेटा अचंभित था।
अचानक विचार तंद्रा तोड माथुर साहब खडे हुये।“ बेटा तुम थोडा आराम करो, थके होगें, मैँ गॉव में चक्कर लगा कर आता हूँ” माथुर साहब इतना कह कर पुत्र को अकेला छोड टहलने निकल गये। भावनाओं के वेग को लगाम लगाने का यह सबसे आसान तरीका नजर आया माथुर साहब को । बाहर जाने के बदले उन्होने चौक में अपनी आराम कुर्सी पर बैठकर सुस्ताना ज्यादा उचित समझा और न चाहते हुये भी, बीते हुए दिनों की सारी धटनायें फिल्म की तरह उनके जहन में घूमने लगीं |
पत्नि के देहॉतं के कुछ ही दिन हुए थे जब दोनों संतानों नें उन पर बहुत जोर डाला था कि ‘अब यहाँ अकेले रहने से अच्छा है हमारे साथ शहर में रहो’। दोनों संतानों की खुशी भी और
सुविधा भी तो इसी में है| माथुर साहब ने बच्चों से अपने आप को मानसिक रूप से तैयार होने की थोडी मोहलत माँगी और आश्वासन भी दिया, जल्दि ही इस घर को ठीक तरह से बंन्द कर उन्हीं के साथ आकर रहनें लगेंगे।
भाग्य की विडम्बना ये थी कि माथुर साहब ने अपने कार्यकाल के दौरान आफिस , घर, परिवार के अलावा जीवन का कोई अन्य रूप देखा ही कहाँ था। जितना सरलता से उन्होने अपना जीवन निकाला था| उसमें समाज के बदलते मुल्यों से वह अनभिज्ञ थे , समय के साथ बदलते अपनों के ही चेहरों, नवयुवानों की सीमित सोच व समाज के आधारस्तंभ माने जाने वाले माता पिता के लिये अपने ही परिवार में स्थान, संम्मान की कमी, इन सभी से अंजान माथुर साहब ने सिमित सामान के साथ पुत्र के घर में प्रवेश किया| आशा तो थी ही कि किसी चीज की आवश्यक्ता होने पर बच्चे सब व्यवस्था कर देंगे ।
बेटा बड़ी सी गाड़ी में ड्राइवर के साथ उन्हें लेने स्टेशन आया| बडे बेटे के शानदार सोफे पर बैठ कर अपने निर्णय का आंकलन करने जैसा कुछ नज़र में भी नहीं आया था। अपने अपने स्कूल कालेज से आकर पोते पोतियों ने दादा जी को प्रणाम भर किया, औपचारिक बातचीत के बाद खाना का आदेश नोकर को देकर अपने अपने कमरे में चल गये| जो बेटा उन्हें स्टेशन से घर तक लाया था वह बाहर से ही आफिस चला गया। बहू भी खाना खा कर सोने की तैयारी में थी सो नोकर को खाना गरम करके टेबल पर लगा देने का आदेश देकर सोने चली गई। माथुर साहब ने आराम से भोजन किया| अखबार, पढा शाम होने का इन्तजार करने लगे। बेटे के आने के साथ ही सारा परिवार एक साथ एक जगह जमा था। पति पत्नि व बच्चों की आपसी बातो का विषय उनके लिये नया था| भाग लेने का प्रश्न ही नहीं था। रात का खाना सारे परिवार ने साथ खाया, सोने की जब बारी आयी. उनकी व्यवस्था उनके पोते के कमरे में की गया थी| जिससे शायद युवा पोता असहमत था| उन्हीं के सामने बेटा अपने पिता से इस व्यवस्था के खिलाफ झगडा करने पर उतारू था।
प्रतिदिन का अकेला पन, पोते_पोती, बेटे, बहु की बेरुखी और उनका बदला हुआ रवैया, देख कर अब उन्हें कुछ कुछ समझ भी आने लगा था| यह सब बातें उनके घैर्य की परीक्षा लेने के लिये काफी थीं । एक दिन अपने बेटे को इससे अवगत कराने के अंदाज से जब बात भर करनी चाही तो उनके अति संपन्न बेटे ने उन्हें जमाने के बदलाव की दुहाई देते हुये समझाया कि “आपको इन सब की आदत डालनी होगी” |
कुछ ही दिन बीते होगें की उनकी पुत्री आयी थी भाई को हो रही असुविधा का जिक्र भी बहन तक न जाने किस रूप में पहुंचा था कि भतीजे की परीक्षा पुर्ण होने तक बेटी भी बहला फुसला कर पिता को अपने साथ अपने घर ले आने में सफल हुयी। दिन हफ्ते महिने बीते|
माथुर साहब सब कुछ जानते समझते हुये भी जैसे स्वयं को समय के हाथों में सोंप कर युवा पीढी के साथ अपने ताल मेल की परीक्षा कर रहे थे| स्वयं को सब के अनुरूप ढालते ढालते जब माथुर साहब का सब्र जवाब दे गया। एक दिन उन्होंने सदा उखडे उखडे से रहने वाले अपने दामाद से पूछ ही डाला़ “ क्या बच्चों की परीक्षाएं अभी तक भी चल रही हैं ? ....दामाद तो शायद अवसर ही तलाश रहे थे। सो तपाक से ससुर को सारा माजरा बता कर तेजी से प्रतिक्रिया देखे बिना दरवाजे से बाहर निकल गये।
माथुर साहब को कोई भी तरह का झटका या आघात नहीं लगा । उन्होने अपने आत्म विश्वास को मजबूत सहारा दिया| स्वय को संयत रखते हुये दो तीन दिन के बाद उचित समय देख कर दामाद को अपने गॉव जाने की टिकिट बना देने को कहा औेर बिना कोई प्रतिक्रिया दिखाये अपना सामान पूरे आत्मविश्वास के साथ बांघने लगे। आखिर था ही कितना किसी संतान ने कुछ भी तो नया नहीं दिलाया नहीं था। उस पर बेटे नाती पोतों के लिये जो भेट सौगात गाँव से लाये थे वह एक थैला खाली था| उसे समेट कर बैग में रखा, दिल जब रीता हो तब कुछ भी भरा होने का अहसास भी कहाँ होने देता है। इधर उधर बिखरे अपने सामान को अपनी यादें मिटा कर चले जाने के आशय से रखते चले गये । अंदर के झंझावतों से लडते , सामना करते माथुर साहब गॉव पहुंचे ।
सारे रास्ते मन ही मन कुछ निर्णय करते आये थे| उस पर कायम भी रहे। सारा गॉंव जानता था कि माथुर साहब को अपने नाती, पोते, बेटे, बेटी का परिवार कितना प्रिय था| बस उसी छवि को कायम रहने देंगे। माथुर साहब का मानना था कि “रहिमन पर घर जाय के दुख ना कहिये कोय, लाज गवाये लाख की हासिल कछु ना होय“ सो उन्होने किसी को कुछ भी नहीं बताया| बस वहाँ मन ना लगने की दुहाई के साथ अपने उजडे नीड के तिनको को बटोरना शुरू कर दिया |
आगंन में जो किरायेदार छोड़ गए थे, वह न जाने क्या समझा| पर दौनो के बीच एक मूक समझोता हो गया। दौनो ही एक अद्रष्य स्वार्थ, प्रेम की डोर से बंघे रहने लगे। दोनो परिवारों का खर्च मिलकर भी माथुर साहब के लिये इतना भारी नहीं था| जितना अपनी ही संतान द्वारा डाला गया तिरस्कार का बोझ था।
बेटे की चप्पल की आवाज से विचार तंद्रा टूटी। चलो भोजन करते हैं | चंदा बेटा ,खाना तो ले आ..... चंदा दो थाली में भोजन परोस लाई ,लजीज दही बडें खस्ता कचोरी, बिल्कुल उसकी पंसंद की दाल चॉवल रायता सभी कुछ ढीक वैसा ही जैसा उसे पसंद था या जैसा माँ बनाती थी| पिता के साथ बैठा पुत्र हक्का बक्का सा खाना खाता रहा| कभी चंदा को निहारता, कभी घर को, पिता को देखता| एक प्रश्न जो चेहरे पर आकर चिपक गया था, उसे वो लाख छुपान के प्रयास में भी असफल था।
भोजन के बाद रमेश ने हाथ धुलाये पान पकडाते हुए कहा “भैया आपके शहर में अच्छे पान नहीं मिलते, शायद ईसीलिये बाबुजी ने मुझे रात को ही बता दिया था। भोजन सारा आपकी पसंद का था ना भैया जी , बाबुजी ने चंदा को सब समझा दिया था, कि भैया को कैसा भोजन पसंद है| सब वैसा ही था ना भैया”? निरूतर सा देखता रहा वह, पर रमेश कुछ भी नहीं समझ पाया “भैया आप आराम करे, शाम ढले हम चौपाल पर जायेंग” बोलता रमेश अपने परिवार के साथ आराम से भोजन करने बैठ गया| तब तक बच्चे भी स्कूल से आ गये थे| दादाजी दादाजी करते हुये दौड कर आये, नये आये अतिथि को देखकर सकुचा कर वापस चले गये। पुत्र ने अवसर देखा कमरे में बाबुजी को लेटे देखा तो सिरहाने बैठ गया, संभवतः प्रश्नों की रूप रेखा बना रहा हो। “यह परिवार तो अच्छा है यह अस्थाई व्यवस्था ढीक है और बाबुजी आपने घर भी अच्छा सुविघाजनक बना दिया है”
अब बोलने की बारी बाबुजी की थी| “यह स्थाई व्यवस्था है बेटा यह मेरा घ्यान रखते है मै इनका....” पर बाबुजी इन लोगों को आप जानते ही कितना है,?........हॉ यह सही है .पर मै जितना भी जान पाया वह उन लोगों से ज्यादा शुभ चितंक है जो मेरे अपने हैं। अतः तुम जब तक चाहो आराम से रह सकते हो तुम्हे कोई कष्ट नहीं होगा”... “पर बाबुजी” ,”पर ..क्या.? क्या ? “इन लोगों ने घर खाली नहीं किया तब” .....”.मै भी कहॉ चाहता हुॅ कि ये घर खाली करें, मेरी समस्याओं का समाधान है यह लोग” .... “पर बाबुजी आपके जाने के बाद यदि इन लोगों ने कब्जा.....”. इतना ही बोल पाया था कि गरज पडे माथुर साहब...... “कहा ना समाघान है ये मेरा”........ “यदि आगे जाकर यह तुम्हारी समस्या है तो मै अभी कुछ नहीं कर सकता उससे तुम निबट लेना “।
रात की गाडी में पुत्र को ट्रेन में बिठा कर जब रमेश वापस आया तो माथुर साहब शांत मुद्रा में बैठे रमेश के बच्चों के साथ खेल रहे थे.....|
प्रभा पारीक भरूच गुजरात