शुकदेवजी महर्षि वेदव्यासके पुत्र हैं। इनकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें अनेकों प्रकारकी कथाएँ मिलती हैं। महर्षि वेदव्यासने यह संकल्प करके कि पृथ्वी, जल, वायु और आकाशकी भाँति धैर्यशाली तथा तेजस्वी पुत्र प्राप्त हो, गौरी-शंकरकी विहारस्थली सुमेरुश्रृंगपर घोर तपस्या की। उनकी तपस्यासे प्रसन्न होकर शिवजीने वैसा ही पुत्र होनेका वर दिया। यद्यपि भगवान्के अवतार श्रीकृष्णद्वैपायनकी इच्छा और दृष्टिमात्रसे कई महापुरुषों का जन्म हो सकता था और हुआ है तथापि अपने ज्ञान तथा सदाचारके धारण करनेयोग्य संतान उत्पन्न करनेके लिये और संसारमें किस प्रकारसे संतानकी सृष्टि करनी चाहिये—यह बात बतानेके लिये ही उन्होंने तपस्या की होगी। शुकदेवकी महिमाका वर्णन करते समय इतना स्मरण हो जाना कि वे वेदव्यासके तपस्याजनित पुत्र हैं, उनके महत्त्वकी असीमता सामने ला देता है।
एक दिन वे अरणिमन्थन कर रहे थे। उसी समय घृताची अप्सरा वहाँ आ गयी। संयोग ही ऐसा था, या यों कहें कि यही बात होनेवाली थी, उनका वीर्य अरणिमें ही गिर पड़ा। उसीसे शुकदेवका जन्म हुआ। उनके शरीरसे निर्धूम अग्निकी भाँति निर्मल ज्योति फैल रही थी। वे उस समय बारह वर्षके बालककी भाँति थे। स्त्रीरूप धारण करके गंगाजी वहाँ आयीं, बालकको उन्होंने स्नान कराया। आकाशसे काला मृगचर्म और दण्ड आया। गन्धर्व, अप्सरा, विद्याधर आदि गाने, बजाने और नाचने लगे। देवताओंने पुष्पवर्षा की। सारा संसार आनन्दमग्न हो गया। भगवान् शंकर और पार्वतीने स्वयं पधारकर उसी समय उनका उपनयनसंस्कार कराया। उसी समय सारे वेद, उपनिषद्, इतिहास आदि मूर्तिमान् होकर उनकी सेवामें उपस्थित हुए। अब वे ब्रह्मचारी होकर तपस्या करने लगे। उनकी प्रवृत्ति धर्म, अर्थ और कामकी ओर न थी; वे केवल मोक्षका ही विचार करते रहते थे।
उन्होंने एक दिन अपने पिता व्यासदेवके पास आकर बड़ी नम्रताके साथ मोक्षके सम्बन्धमें बहुत-से प्रश्न किये। उत्तरमें व्यासदेवने बड़े ही वैराग्यपूर्ण उपदेश दिये। यथा—
‘बेटा! धर्मका सेवन करो। यम-नियम तथा दैवी सम्पत्तियोंका आश्रय लो। यह शरीर पानीके बुलबुलेके समान है। आज है तो कल नहीं। क्या पता किस समय इसका नाश हो जाय। इसमें आसक्त होकर अपने कर्तव्यको नहीं भूलना चाहिये। दिन बीते जा रहे हैं। क्षण-क्षण आयु छीज रही है। एक-एक पलकी गिनती की जा रही है। तुम्हारे शत्रु सावधान हैं। तुम्हें नष्ट कर डालनेका मौका हूँढ़ रहे हैं। अभी-अभी इस संसारकी ओरसे अपना मुँह मोड़ लो। अपने जीवनकी गति उस ओर कर दो, जहाँ इनकी पहुँच नहीं है।'
'संसारमें वे ही महात्मा सुखी हैं, जिन्होंने वैदिकमार्गपर चलकर धर्मका सेवन करके परमतत्त्वकी उपलब्धि की है। उनकी सेवा करो और वास्तविक शान्ति प्राप्त करनेका उपाय जानकर उसपर आरूढ़ हो जाओ। दुष्टोंकी संगति कभी मत करो। वे पतनके गड्डेमें ढकेल देते हैं। वीरताके साथ काम-क्रोधादि शत्रुओंसे बचो और धीरताके साथ आगे बढ़ो। तुम्हें कोई तुम्हारे मार्गसे विचलित नहीं कर सकता। परमात्मा तुम्हारा सहायक है। वह तुम्हारी शुभेच्छा और सचाईको जानता है।’
‘बेटा! मैं तुम्हारा अधिकार जानता हूँ। तुम तत्त्वज्ञान प्राप्त करनेके लिये मिथिलाके नरपति जनकके पास जाओ। वे तुम्हारे सन्देहको दूरकर स्वरूपबोध करा देंगे। तुम जिज्ञासु हो, बड़ी नम्रताके साथ उनके पास जाना। परीक्षाका भाव मत रखना। घमण्ड मत करना। उनकी आज्ञाका पालन करना । मानुषमार्गसे पैदल तितिक्षा करते हुए ही जाना उचित है।'
पिताकी आज्ञा शिरोधार्य करके शुकदेवजी महाराज कई वर्षमें अनेकों प्रकारके कष्ट सहन करते हुए मिथिलामें पहुँचे। द्वारपालोंने इन्हें अन्दर जानेसे रोक दिया। परंतु उनकी जाज्वल्यमान ज्योतिको देखकर और तिरस्कारकी दशामें भी पूर्ववत् प्रसन्न देखकर एकने उनके पास आकर बड़ी अभ्यर्थना की। वह उन्हें बड़े सत्कारसे अन्दर ले गया। मन्त्रीने उन्हें एक ऐसे स्थानपर ठहराया, जहाँ भोगकी अनेकों वस्तुएँ थीं। उनकी सेवामें बहुत-सी सुन्दर स्त्रियाँ लगा दीं, परंतु वे विचलित नहीं हुए। सुख-दुःख, शीत-उष्णमें एक-से रहनेवाले शुकको यह सब देखकर कुछ भी हर्ष-शोक नहीं हुआ। ब्रह्मचिन्तनमें संलग्न रहकर उन्होंने इसी प्रकार वह दिन और रात्रि बिता दी।
दूसरे दिन प्रात:काल जनकने आकर उनकी विधिवत् पूजा-अर्चा की। कुशल-मंगलके पश्चात् शुकदेवने अपने आनेका प्रयोजन बतलाया और प्रश्न किया। जनकने उनके अधिकारकी प्रशंसा करके कहा— 'बिना ज्ञानके मोक्ष नहीं होता और बिना गुरुसम्बन्धके ज्ञान नहीं होता। इस भवसागरसे पार करनेके लिये गुरु ही कर्णधार है। ज्ञानसे ही कृतकृत्यता प्राप्त होती है। फिर तो सभी मार्ग स्वयं समाप्त हो जाते हैं। लोकमर्यादा और कर्ममर्यादाका उच्छेद न हो, इसीके लिये वर्णाश्रमधर्मका सेवन आवश्यक कहा गया है। इनके आश्रयसे क्रमशः आगे बढ़ते चलें तो अन्तमें पाप-पुण्यसे परेकी गति प्राप्त हो जाती है। अन्त:करणकी शुद्धिके लिये वर्णाश्रमधर्मकी बड़ी आवश्यकता है। जिसे ब्रह्मचर्य-आश्रममें ही तत्त्वकी उपलब्धि हो जाय उसे और आश्रमोंका कोई प्रयोजन नहीं है। तामसिकता और राजसिकता छोड़कर सात्त्विकताका आश्रय लेना चाहिये। धीरे-धीरे बहिर्मुखताका त्याग करके अन्तर्मुखताका सम्पादन करना ही साधनाका सच्चा स्वरूप है। जो पुरुष सब प्राणियोंमें अपने आत्मा और अपने आत्मामें समस्त प्राणियोंका दर्शन करते हैं, वे पाप-पुण्यसे निर्लेप हो जाते हैं।’
‘जिसे किसीका भय नहीं है, जो किसीको भय नहीं पहुँचाता, जिसे न राग है और न द्वेष है, वही ब्रह्मसम्पन्न होता है। जब जीव मन, वाणी और कर्मसे किसीका अनिष्ट नहीं करता; काम, क्रोध, ईष्र्या, असूया आदि मनोमलोंको त्याग देता है; दुःख-सुख, हानि-लाभ, जीवन-मरण, शीत-उष्ण, निन्दा-स्तुति आदि द्वन्द्वोंमें समान दृष्टि रखने लगता है, तब ब्रह्मसम्पन्न हो जाता है।
‘शुकदेव! ये सभी बातें तथा अन्यान्य समस्त सद्गुण तुममें प्रत्यक्ष दीख रहे हैं। मैं जानता हूँ कि तुम्हें समस्त ज्ञातव्य बातोंका ज्ञान है। तुम विषयोंके पर पहुँच चुके हो। तुम्हें विज्ञान प्राप्त है। तुम्हारी बुद्धि स्थिर है। तुम ब्रह्ममें स्थित हो, तुम स्वयं ब्रह्म हो। और क्या कहूँ?’
जनकका उपदेश सुनकर शुकदेवको बड़ा आनन्द हुआ। उनसे विदा होकर वे हिमालयपर अपने पिता व्यासजीके आश्रमपर लौट आये।
इनकी उत्पत्तिकी एक ऐसी कथा भी है कि व्यासकी एक वटिका नामकी पत्नी थीं। उन्होंने व्यासदेवकी अनुमतिसे पुत्रप्राप्तिके लिये बड़ी तपस्या की। उससे प्रसन्न होकर भगवान् शंकरने वर दिया कि तुम्हें एक बड़ा तेजस्वी पुत्र प्राप्त होगा। समयपर गर्भस्थिति हुई, परंतु बारह वर्ष हो गये प्रसव नहीं हुआ। वह गर्भस्थ शिशु बातचीत भी करता था। इतना ही नहीं, उसने गर्भमें ही वेद, उपनिषद्, दर्शन, इतिहास, पुराण आदिका सम्यक् ज्ञान भी प्राप्त कर लिया। अब व्यासदेवने बालकसे बड़ी प्रार्थना की कि गर्भसे बाहर निकल आओ, परंतु उसने यह कहकर गर्भसे बाहर आना अस्वीकार कर दिया कि मैंने अबतक अनेक योनियोंमें जन्म ग्रहण किया है। बहुत भटक चुका हूँ। अब बाहर न निकलकर यहीं भजन करनेका विचार है।’ व्यासदेवने कहा—‘तुम नरकरूप इस गर्भसे बाहर आ जाओ। तुम मायाके चक्करमें न पड़ोगे। योगका आश्रय लो। भगवान्का भजन करो। तुम्हारा मुख देखकर मैं भी पितृऋणसे मुक्त हो जाऊँगा। अन्यथा तुम्हारी माँ मर जायगी।’ माँके मरनेकी बात सुनकर शुकदेवको दया आ गयी। उनका कोमल हृदय पिघल उठा। उन्होंने कहा—‘यदि श्रीकृष्ण आकर आपकी बातोंका समर्थन करें तो मैं निकल सकता हूँ।’ इसी बहाने उन्होंने जन्मके समय ही अपने पास श्रीकृष्णको बुला लिया। व्यासकी प्रार्थनासे श्रीकृष्णने आकर कहा कि 'गर्भसे निकल आओ। मैं इस बातका साक्षी हूँ कि माया तुमपर प्रभावी नहीं होगी। वे गर्भसे निकल आये। उस समय उनकी अवस्था बारह वर्षकी थी। जन्मते ही श्रीकृष्ण, माँ और पिताको नमस्कार करके उन्होंने जंगलकी यात्रा की। उनके श्यामवर्णके सुगठित, सुकुमार और सुन्दर शरीरको देखकर व्यासदेव मोहित हो गये। उन्होंने बड़ी चेष्टा की, बहुत समझाया कि तुम मेरे पास ही रहो, परंतु शुकदेवने एक न मानी। उस समयका पिता-पुत्र-संवाद स्कन्दपुराणकी एक अमूल्य वस्तु है। प्रत्येक विरक्तको उसका मनन करना चाहिये। अन्ततः वे विरक्त होकर चले ही गये।
एक अन्य कथा इस प्रकार आती है कि एक समय पार्वतीने जिज्ञासा की कि ‘प्रभो! आप मुझे श्रीकृष्णसम्बन्धी कथा सुनायें; क्योंकि आप उन्हींका स्मरण-चिन्तन निरन्तर किया करते हैं।’ महादेवने कहा—‘बड़ी गोपनीय बात है। देख लो, कोई दूसरा तो नहीं है?’ पार्वतीने देखकर कह दिया—‘यहाँ कोई दूसरा नहीं है।’ वहाँ एक तोतेका सड़ा हुआ अण्डा अवश्य पड़ा था; परंतु वह मर गया था, इससे पार्वतीने उसकी चर्चा ही नहीं की। महादेवने कहा—‘अच्छा! हुँकारी भरती जाना।’ वे कहने लगे। दशम स्कन्धतक तो वे सुनती गयीं और स्वीकारोक्ति (ओम्)-का उच्चारण भी करती गयीं। परंतु अन्तमें उन्हें नींद आ गयी। अबतक वह तोतेका अण्डा भागवतकथामृतका पान करके जीवित हो उठा था। पार्वतीको निद्रित देखकर उसने हुँकारी भरनी शुरू की। अन्तमें जब पार्वतीकी नींदका पता चला तब महादेवने उस शुकका पीछा किया। वह भागकर व्यासदेवके आश्रमपर आया और उनके मुखमें घुस गया। महादेवके लौटनेपर फिर यही शुक व्यासदेवके अयोनिज पुत्रके रूपमें प्रकट हुए।
इस प्रकार अनेकों कथाएँ आती हैं। ये सभी सत्य हैं, स्वयं व्यासदेवकी लिखी हैं और कल्पभेदसे सम्भव भी हैं। उनका जीवन विरक्तिमय था। वे निर्गुणमें पूर्णतः परिनिष्ठित थे। व्यासजीसे अलग ही विचरते रहते थे। गाँवोंमें केवल गौ दुहनेके समय जाते और उतने ही समयतक वहाँ रहते। अपनेको सर्वदा गुप्त रखते। व्यासजीकी इच्छा थी कि ये मेरे पास आते और मेरे जीवनकी परमनिधि भागवतसंहिताका अध्ययन करते। परंतु वे मिलते ही न थे। व्यासदेवने भागवतका एक अत्युत्तम श्लोक* अपने विद्यार्थियोंको रटा दिया था। वे उसका गायन करते हुए जंगलोंमें समिधा लाने जाया करते थे। एक दिन उसे शुकदेवने भी सुना। श्रीकृष्णकी लीलाने उन्हें खींच ही लिया। वे निर्गुणनिष्ठ होनेपर भी भगवान्के गुणोंमें रम गये। उन्होंने अठारह हजार श्लोकोंका अध्ययन किया। अब वे मन-ही-मन उन्हें गुनगुनाते हुए विचरने लगे। इसी परमहंससंहिताका सप्ताह उन्होंने महाराज परीक्षितको सुनाया था।
इन भागवतवक्ता परमभागवत शुकदेवके पास प्रायः बड़े-बड़े ऋषि आया करते थे। नारदीयपुराणमें सनत्कुमारके और महाभारतमें नारदके आनेकी चर्चा आयी है। उनके आने पर शुकदेव बड़े प्रेमसे उनकी पूजा करते और उनसे प्रश्न करके तत्त्वकी बात सुनते। एक बार इन्द्रने इनकी तपस्या और त्याग देखकर रम्भा आदि अप्सराओंको विघ्न करनेके लिये भेजा। उस समय शुकदेव इस प्रकार समाधिमग्न हो गये कि उन्हें पता ही न चला कि यहाँ अप्सरा, वसन्त, काम आदि विघ्न करने आये हैं। बहुत समय बाद समाधि खुलने पर रम्भाने बड़ी चेष्टा की, बहुत फुसलाया, परंतु वे विचलित न हुए। वह लजाकर चली गयी। स्थूल शरीरके कारण होनेवाले विक्षेपोंका विचार करके उन्होंने ब्रह्म होकर ही रहनेका निश्चय किया। उस समय त्रिलोकीके सभी प्राणियोंने उनकी पूजा की। व्यासदेव पुत्रका यह विचार सुनकर शोकाकुल हो उनके पीछे-पीछे दौड़े। शुकदेवने पहले ही आज्ञा कर रखी थी, इसलिये वृक्षोंने व्यासदेवको समझानेकी बहुत कुछ चेष्टा की; पर वे आगे बढ़ते ही गये। एक सरोवरमें कुछ अप्सराएँ स्नान कर रही थीं, वे शुकदेवके सामने ज्यों-कीत्यों खड़ी रहीं किंतु व्यासजीको देखकर वस्त्र पहनने लगीं। इसपर व्यासजीने पूछा कि शुकदेवको देखकर तो तुम स्नान करती ही रह गयीं, मुझे देखकर क्यों निकल आयीं? अप्सराओंने बताया कि—‘अभी तुम्हारी दृष्टिमें स्त्री-पुरुषका भेद है, परंतु तुम्हारे पुत्र शुकदेवको नहीं है।’ यह सुनकर व्यासजी पुत्रकी महिमासे प्रसन्न और अपनी कमजोरीसे लज्जित हो गये। उनके शोकको देखकर स्वयं महादेवजीने पधारकर उन्हें समझाया कि—‘मैंने प्रसन्न होकर तुम्हें ऐसा महत्त्वशाली पुत्र दिया। उसे परमगति प्राप्त हुई है। उसकी कीर्ति अक्षय होगी।’ यह कहकर महादेवने उन्हें एक छायाशुक दिया। व्यासदेवने उन्हीं छायाशुकको लेकर सन्तोष किया और अब भी वे निरन्तर अपने पुत्रको देखा करते हैं।
शुकदेव ब्रह्मभूत हो गये हों या छायाशुकके रूपमें विद्यमान हों, कम-से-कम यह बात अधिकारके साथ कही जा सकती है कि वे अब भी हैं और अधिकारी पुरुषोंको दर्शन देकर उपदेश भी करते हैं।
(गोपिकाएँ मन-ही-मन देखने लगीं कि) श्रीकृष्ण ग्वालबालोंके साथ वृन्दावनमें प्रवेश कर रहे हैं। उनके सिरपर मयूरपिच्छ है और कानों पर कनेरके पीले-पीले पुष्प; शरीरपर सुनहला पीताम्बर और गलेमें पाँच प्रकारके सुगन्धित पुष्पोंकी बनी वैजयन्ती माला है। रंगमंचपर अभिनय करते हुए श्रेष्ठ नटका-सा क्या ही सुन्दर वेष है। बाँसुरीके छिद्रोंको वे अपने अधरामृतसे भर रहे हैं। उनके पीछे-पीछे ग्वालबाल उनकी लोकपावन कीर्तिका गान कर रहे हैं। इस प्रकार वैकुण्ठसे भी श्रेष्ठ वह वृन्दावनधाम उनके चरणचिह्नोंसे और भी रमणीय बन गया है।
कहीं-कहीं इनकी एक पीवरी नामकी स्त्री और कृष्ण, गौरप्रभ आदि संतानोंका भी वर्णन आता है।
* बहपीडं नटवरवपुः कर्णयोः कर्णिकारं बिभ्रद् वासः कनककपिशं वैजयन्तीं च मालाम्।। रन्ध्रान् वेणोरधरसुधया पूरयन् गोपवृन्दैर्वृन्दारण्यं स्वपदरमणं प्राविशद् गीतकीर्तिः ॥ (श्रीमद्भा० १०।२१।५)