(5) रमता मन
अपनी मंत्रमुग्ध कर देने वाली वाणी में श्री कृष्ण स्थिर बुद्धि के लक्षण को स्पष्ट करते हुए आगे एक उदाहरण दे रहे हैं:-
"जिस तरह कछुआ सब ओर से अपने अंगों को समेट लेता है उसी तरह से स्थिर बुद्धि मनुष्य भी इंद्रियों के विषयों से अपने मन को सभी प्रकार से हटा लेता है। "
अर्जुन ने श्री कृष्ण से कहा, "ऐसा करने का मुझे अभ्यास है भगवन! लेकिन मन है कि विषयों से ध्यान हटा लेने के बाद भी कभी-कभी उन्हीं विषयों का चिंतन करने लगता है। "
श्री कृष्ण, "ऐसा स्वाभाविक ही है अर्जुन! जब साधक अपनी आत्मा के परमात्मा से साक्षात्कार की दिशा में आगे बढ़ जाएगा, तो विषयों से निवृत्ति के बाद उन विषयों की ओर ध्यान भी नहीं जाने देगा। अन्यथा मन से आसक्ति का नाश नहीं होने के कारण भटकाव स्वभाव वाली ये इंद्रियां बुद्धिमान व्यक्ति के मन को भी अपनी ओर खींच लेती हैं। "
अर्जुन, "मन को भटकने से रोकने का उपाय क्या है प्रभु?"
श्री कृष्ण, "इसका उपाय है- ध्यान में बैठना, पूरी ईमानदारी के साथ बैठना। इंद्रियों को वश में करने का प्रयत्न करते हुए और परमात्मा के अभिमुख होते हुए ध्यान का अभ्यास आवश्यक है। ऐसा करने से साधक अंतःकरण की प्रसन्नता को प्राप्त होता है। "
अर्जुन, "आप ठीक कहते हैं प्रभु! बिना अभ्यास के सफलता संभव नहीं है। "
श्री कृष्ण, "और सबसे पहले विषयों से आसक्ति छोड़ने का अभ्यास जरूरी है अन्यथा अगर साधना पथ पर रहते हुए मन उन विषयों की कामना करने लगे और कामना की पूर्ति न हो तो क्रोध उत्पन्न होता है। क्रोध से मूर्खता जन्म लेती है जो हमारी स्मृति और विवेक में भ्रम उत्पन्न करता है, इसके कारण हमारी बुद्धि और ज्ञान का नाश होता है। "
अर्जुन, "हे श्री कृष्ण! क्या ऐसा है कि इंद्रियों के विषयों में से कोई विषय अधिक हानिकर और कोई विषय कम हानिकर है?"
श्री कृष्ण ने हंसते हुए कहा, "अब इसमें भी मोल भाव की सोचने लगे अर्जुन? भटकाव के लिए तो एक ही इंद्रिय के विषय की ओर मन का मुड़ जाना विनाशक है। प्रलोभन कोई एक नहीं होता और सारे प्रलोभन मनुष्य के लिए घातक ही होते हैं। याद रखो हवा का कोई भी झोंका जल में चलने वाली नाव की दिशा को बदल सकता है। वही हालत प्रलोभनों के सामने हमारी इंद्रियों की भी है। "
अर्जुन के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई। उसने कहा, "मन को जीतने की साधना में मुझे समस्या इसलिए नहीं आएगी प्रभु क्योंकि मेरे आराध्य आप हैं और यह मेरा सौभाग्य है कि मुझे आपका सानिध्य प्राप्त होता है। "
श्री कृष्ण भी मुस्कुरा उठे।
अर्जुन आगे कहते जा रहे हैं, "आप परमात्मा हैं। सभी तरह के ज्ञान विज्ञान के स्रोत हैं। आप पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। आप मानवता के आदर्श हैं। जिस तरह से अविचलित रहने वाले समुद्र में विभिन्न नदियों के जल समाहित हो जाते हैं, वैसे ही हे प्रभु! समस्त भोग और उन्हें प्रेरित करने वाले प्रलोभन आपके स्मरण मात्र से शांत हो जाते हैं। "
श्री कृष्ण ने परमात्मा की प्राप्ति के अन्य उपायों की विवेचना थी और ध्यान से प्रारंभ होकर विषयों अनुरूप आचरण करने वाली इंद्रियों को अपने नियंत्रण में रखने का अभ्यास करने के लिए कहा। अर्जुन थोड़ा सोच में पड़ गए। एक ओर तो वासुदेव शस्त्र उठाकर कर्म करने की बात करते हैं और यह कहते हैं कर्म में ही तुम्हारा अधिकार है और दूसरी तरफ वे ध्यान और योग की उन विधियों की चर्चा करते हैं, जिनके माध्यम से परमात्मा के स्वरूप को जानने में सफलता मिलती है। अर्जुन श्री कृष्ण से अपने सभी प्रश्नों का समाधान चाहते हैं ताकि उनके चित्त की भ्रांति सदा के लिए मिट जाए। श्री कृष्ण इस कार्य में उनकी पूरी सहायता कर रहे हैं।