शाकुनपाॅंखी - 32 - वह समाधिस्थ हो जाती Dr. Suryapal Singh द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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शाकुनपाॅंखी - 32 - वह समाधिस्थ हो जाती

46. वह समाधिस्थ हो जाती

कान्यकुब्ज पतन के बाद राजकुमार हरिश्चन्द्र मुदई छोड़कर गोमती तट स्थित गढ़ी की ओर प्रस्थान कर गए। कारु दुःखी थी। शुभा ने प्राण छोड़ दिया था । संरक्षिका के बिना राजकुमार के साथ जाना उसने उचित नहीं समझा । शुभा ने जो सम्मान दिया था उसे अब गहड़वाल परिवेश में पाना कठिन था। वह मुदई में ही रुक गई। दो सप्ताह एक खंडहर में किसी प्रकार बिताया । वंशीधर कृष्ण की आराधना करती और चौबीस घण्टे में एक बार भोजन कर पड़ी रहती। तुरुष्कों का आतंक कम हुआ तो लोग इधर-उधर आने जाने लगे। एक वणिक दल के साथ कारु भी चल पड़ी। बिठूर तक साथ आई । यहाँ से एक दूसरे दल के साथ कालिंजर की ओर चल पड़ी। चन्देल महादेवी मृणालदे के बारे में वह बहुत कुछ सुन चुकी थी। वे गुणज्ञ हैं। कला की परख करना जानती हैं। उदारमना हैं। चाहमानों से मिली पराजय के कारण महोत्सव नगर और खर्जूरवाहक उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर हो गया था। पर चाहमान भी शहाबुद्दीन से पराजित हो अपना अधिकार खो बैठे थे। चन्देल महाराज परमर्दिदेव अब कालिंजर से ही शासन कर रहे थे। कालिंजर दुर्ग को लोग अभेद्य मानते थे। उनके दो बेटे ब्रह्मजीत और समरजीत चाहमान युद्ध में काम आ गए थे। कुछ समय पश्चात् एक पुत्र और पैदा हुआ। नाम रखा गया त्रैलोक्यवर्मन । अभी वह बालक ही है । मृणालदे प्रसन्न हैं कि वंश का ध्वजवाहक तो है। राजपरिवारों में कुशल सेवक सेविकाओं की भी चर्चा होती रहती थी। इसीलिए जब वह महारानी के सामने उपस्थित हुई, वे प्रभावित हुई, और अपनी निजी संरक्षा में रख लिया।
दिन कटने लगे पर कारु कभी कभी उदास हो उठती। वह सोचती, 'इसी तरह कब तक भटकती रहूँगी? हाथ पैर किसी दिन शिथिल होंगे ही। तब ?" सोचकर दुःखी हो उठती। अपनी कुशलता और स्वामिभक्ति से वह मृणालदे की प्रिय सेविका बन गई। मन लगाकर महादेवी की सेवा करती और बचा हुआ समय कृष्ण की आराधना में लगा देती। नृत्य और संगीत कला को उसने प्रकट नहीं किया। कभी कभी मन करता तो कृष्ण के स्वयं बनाए चित्र के सामने नाच उठती। अपने ही बनाए छन्दों को गाती और मग्न हो उठती। पर घुंघरुओं की झंकार कब तक छिपती? मृणालदे को सूचना मिली। उन्होंने कारु से पूछा, 'नृत्य-गान में भी रुचि है?" कारू ने सिर झुका कर उत्तर दिया, 'हाँ महादेवी ।' फिर तो एक परम्परा सी हो गई। वह महादेवी के सम्मुख अपने बनाए छन्दों को गाती और नृत्य करती। कभी कभी गाते गाते वह समाधिस्थ हो जाती । घुंघरुओं की झंकार थम जाती। महारानी ने इसे देखा। वे अब कारु का विशेष ध्यान रखने लगीं। कारु का मन भी आराधना में अधिक लगने लगा । एक दिन आराधना में मग्न हो गई। महारानी की सेवा में एक घटी का विलम्ब उसे खल गया। वह स्वयं महादेवी के सम्मुख उपस्थित हो बोल पड़ी, 'अपराध हुआ स्वामिनी ।' 'कैसा अपराध कारु? तेरी आराधना मेरे लिए काम्य हो गई है। मैं तुझे मुक्त करती हूँ | तू गिरधरनागर की साधना कर।' महादेवी ने दम्म से भरी कुछ थैलियाँ मंगवाई। उसे कारु को देकर बोल पड़ीं, 'तुझे जहाँ सुख लगे वहीं रह । कभी कभी दर्शन दे दिया करना।' कारु की आँखों से आँसू झरते रहे। उसे भी लगा कि सेविका धर्म कठिन है। अब भलीभांति निभाना कठिनतर होता जा रहा है। उसने गिरधर गोपाल को स्मरण किया । 'मैं तुझसे प्रसन्न हूँ। तू निश्चिन्त हो आराधना कर।' कारू सुबक उठी। 'कहा न तू स्वतंत्र है जहाँ इच्छा हो वहीं निवास कर।' महारानी की भी आँखें भर आईं।



47. हिन्द में भी काम न मिलेगा क्या?

एक नवयुवक गर्मसीर से नौकरी की तलाश में चला । नाम था मुहम्मद बख्तियार खल्जी । वह ग़ज़नी आ गया। बड़ा शहर था। नवयुवक का अनुमान था कि यहाँ काम अवश्य मिल जाएगा। सेना में भर्ती होकर वह अपनी कुशलता दिखा सकता था, पर जहाँ भी जाता उसकी भद्दी, कुरूप आकृति बाधक बन जाती। एक नज़र कोई देख लेता तो इन्कार ही कर देता । सुन्दर शारीरिक आकृति फलदायी है, इसका पाठ उसे पढ़ने को मिला। पर अपनी आकृति का क्या करता? जो उसे प्रकृति ने दिया था, उसे बदल पाना संभव न था। खुदा के दरबार में अपनी शिकायत दर्ज कराई। 'ऐ खुदा, तूने मुझे ऐसा क्यों बना दिया? क्या गुनाह था मेरा?" पर ख़ुदा केवल मुस्करा सकता था, यही वह जान सका।
छोटे मोटे काम के अलावा वह कोई मन का काम न पा सका। शहाबुद्दीन गोरी के यहाँ भी प्रयास किया। कुछ काम उसे मिला। पर यहाँ भी उसकी आकृति बाधक बनी। वह तगड़ा था। आजानुबाहु था पर इससे क्या हुआ? अपोलो जैसा दिखना उसके भाग्य में कहाँ ? उसे हिन्द की ओर जाना चाहिए उसने सोचा । बहुत से लोग हिन्द में काम कर अमीर बन गए हैं। अल्लाह रहम करेगा। वह रहमाने रहीम है । कुछ लोग हिन्द की ओर कूच कर रहे थे। वह भी उन्हीं के साथ चल पड़ा। पेशावर आया। सीस्तान निवासी मुईनुद्दीन चिश्ती सूफियों के रहनुमा बन कर उभरे थे। उसे खुशी हुई पड़ोसी से भेंट हुई। सीस्तान और गर्मसीर एक दूसरे से बहुत दूर नहीं है। चिश्ती का सान्निध्य उसे अच्छा लगा। 'तुम्हें हिन्द में काम मिलेगा। अच्छी कामयाबी मिलेगी। खुदा के काम में लगो' चिश्ती ने सहारा दिया ।
एक वर्ष पूर्व ही दिल्लिका पर शहाबुद्दीन का अधिकार हुआ था। वह दिल्लिका आ गया। दीवाने अर्ज़ के सम्मुख उपस्थित हुआ। उन्होंने एक नज़र देखा । आकृति बाधक बननी ही थी। नौकरी देने से इन्कार कर दिया । बख्तियार रुआंसा हो गया। पर इससे क्या हुआ? हताशा उसे पीड़ित करने लगी। हिन्द में भी काम न मिल सकेगा क्या ? वह सोचने लगा। जो कुछ कमाया था, खत्म हो रहा था। बदायूँ का अमीर सेनापति अपने सैनिकों का बड़ा ध्यान रखता है। उसने सुना। वह बदायूँ के लिए चल पड़ा। हिज़बरुद्दीन हसन ने उसे देखा। उसकी तकलीफ सुनी। 'रूप रंग न सही पर अपनी काबलियत तो दिखानी ही होगी', उसने बख्तियार से कहा और सेना में भर्ती कर लिया।
कुछ दिन बीते । बख्तियार महत्त्वाकांक्षी था । वह जिम्मेदारी का पद चाहता था। उसके चाचा अली नागौरी के यहाँ कार्यरत थे। नागौरी ने उन्हें काशमंडी की जागीर दी थी । बख्तियार वहीं चला गया। चाचा के मरने के बाद काशमंडी का काम देखने लगा । उसकी साख बढ़ी। उसने बहादुरी के साथ स्थितियों का सामना किया। अवध क्षेत्र के शासक मलिक हिसामुद्दीन अबुल बक़ से मिलकर अपनी पदोन्नति के लिए प्रार्थना की। बख्तियार के गुणों की जानकारी उन्हें मिल चुकी थी। उन्होंने गंगा और सोन नदियों के बीच में स्थित दो जागीरों भगवत और भिवाली को बख्तियार के हवाले कर दिया। बख्तियार को मुँह माँगी मुराद मिली। अपनी नई जागीरों की देखभाल के लिए चल पड़ा।
जागीरों की देखभाल करते उसने खल्जी सैनिकों की एक सेना खड़ी की और बिहार में धावे मारने लगा। गहड़वालों का पतन होने के कारण बिहार के छोटे मोटे शासक स्वतंत्र हो गए। वह उनसे कर वसूलने लगा। बिहार को हस्तगत करने की इच्छा उसके मन में उठने लगी पर वह दानिशमंद था। पढ़ा लिखा न था पर प्रशासकीय कुशलता में दक्ष । कुतुबुद्दीन चन्देलों पर आक्रमण की योजना बना रहा था। बख्तियार कुतुबुद्दीन से मिला। बिहार विजय की अपनी योजना बताई। कुतुबुद्दीन अब तक जीते हुए क्षेत्र में ही उलझा हुआ था। कहीं न कहीं विद्रोह होता ही रहता और उसे दबाने के लिए उसे भागना पड़ता। बिहार तक उसकी पहुँच न थी। बिहार विजय के लिए जब बख्तियार ने आज्ञा माँगी तो उसे कोई असुविधा न हुई। उसने 'हाँ' कह दिया।
बख्तियार ने अपनी सेना को संगठित किया। अपने भाईयों-निजामुद्दीन और शमसुद्दीन को भी तैयार किया। अश्वारोही लूट की आशा में अश्वों को दौड़ाते चल पड़े, मिथिला की ओर । तुर्क सेनाओं का आतंक दूर दूर तक फैल चुका है। चाहमान, गहड़वाल की पराजय से अन्य राजन्य दबाव में आ गए थे। भारतेश्वर उपाधिधारी तुर्क सेनाओं के सामने नहीं टिक सके, सामन्त कब टिक सकेंगे? बख्तियार को इस मनःस्थिति का लाभ मिला। इमाम मौलवी और रम्माल घूम घूम कर तुर्क सेना एवं इस्लाम के पक्ष में जन समर्थन जुटाने का प्रयास करते ही, रम्माज़ भेदिए का भी काम करते । रम्माज़ कहीं पकड़ जाते तो अपने को रम्माल बताते ।
मिथिलांचल में पहुँचते ही लूटपाट मंदिर ध्वस्त किए जाने लगे। सूचना मिलते ही तिरहुत नरेश नर सिंह देव चिन्तित हो उठे। किसी समय तिरहुत नरेश लक्ष्मण सेन के सामन्त थे । अब वे कुनमुना उठे थे कि बख्तियार का आक्रमण ! क्या उन्हें किसी का करद ही रहना है? उन्होंने अपने आमात्यों से मंत्रणा की । कुलपुरोहित से भी पूछा । 'प्रजा की रक्षा करना राजधर्म है। प्राणों की बलि देकर भी प्रजा की रक्षा करनी चाहिए।' आमात्यों ने सुझाव दिया। सेनापति भी अडिग थे । 'यह मिथिला की आन का प्रश्न है', उन्होंने कहा । तुर्क सैनिकों की शक्ति का अनुमान नरसिंह देव को नहीं था । तरह तरह की किंवदंतियाँ हवा में तैर रही थीं। नरसिंह देव की सेना भी बाहर आई। दोनों सेनाएं आमने सामने हुईं पर शंका दोनों को थी। अभी तक बख्तियार छिटपुट आक्रमण कर रहा था। अब वह एक निश्चित योजना के तहत निकला है। नरसिंह देव भी असमंजस में था। उसने संधि का प्रस्ताव किया जिसे बख्तियार ने तुरन्त मान लिया। तुर्क सैनिक भी प्रसन्न हुए। आसानी से मौत का वरण कौन करना चाहता है?