44. मुक्ति कहाँ ?
हरिश्चन्द्र मुदई से चलकर गोमती तट पर आ गया, कान्यकुब्ज छूटने की कसक मन में लिए हुए। तुर्क, दुर्गों, पण्यशालाओं पर काबिज तो हो रहे थे पर बहुत सा क्षेत्र अब भी उनकी पहुँच से बाहर था । वनों, बीहड़ों में कौन जाता ? हरिश्चन्द्र पिता के विशाल साम्राज्य को बचा तो नहीं सका पर उसके कुछ भू भाग अभी उसी के कब्जे में थे। गोमती और गंगा के तटवर्ती क्षेत्रों में अनेक विषय अभी भी उसके अधिकार में थे। उस समय जनपद स्तरीय क्षेत्र को 'विषय' कहा जाता था जो विषयपति के अधीन होते थे। उनकी नियुक्ति राजा स्वयं करता था।
गोमती तट पर गढ़ी में उसने अपना आवास बनाया। काशी और प्रयाग दोनों उसकी पहुँच में थे। अब भी पुण्यकार्य काशी में ही होते। विरुद बखानने वालों, दान प्राप्त करने वाले ब्राह्मणों का आना जाना लगा रहता। राज्य का बहुत सा अंश शाह के अधीन हो चुका था पर जिन्हें कुछ पाना होता वे हरिश्चन्द्र को भी 'परम भट्टारक', ‘परम माहेश्वर’, ‘महाराजाधिराज' ही कहते। नवयुवक हरिश्चन्द्र बाईस पूरा कर चुके थे । चारणों तथा पंडितों ने काशी स्नान का प्रस्ताव रखा।
पर्वों पर राजाओं द्वारा निरन्तर दान करने की परम्परा रही है । कान्यकुब्ज नरेश के लिए तो काशी दूसरा घर था। अपनी कठिनाइयों के बीच जन की अपेक्षाएँ पूरी ही करनी पड़तीं। पौषमास आया। गंगा स्नान और प्रयाग में कल्पवास के लिए लोग तैयारी करने लगे। छप्परों की छोटी छोटी कुटिया बनाकर लोग बैलगाड़ी पर लाद लेते । कल्पवासी आटा, दाल, चावल, ईधन आदि लादकर गाड़ी में बैठ जाते। प्रयाग के लिए गाड़ियाँ छमछमाती हुई चल पड़तीं, कई कई साथ में। प्रयाग में महीनों का कल्पवास कर लोगों का मन प्रसन्न हो उठता। जो कल्पवास के लिए न जाते वे पर्वों पर जाकर स्नान करते और पुण्यलाभ प्राप्त करते। आतंक और भय के बीच भी पर्वों पर भीड़ जुटती । आस्था का एक प्रसन्नतादायक परिवेश उमड़ पड़ता। महाराज हरिश्चन्द्र भी काशी स्नान की तैयारी कर रहे हैं। महिलाओं के लिए शिविकाएं तैयार हुई। हाथी और घोड़ों पर महाराज, उनके पुरोहित और दण्डनायक, साथ में सेवकों का समूह । पौषमास की पूर्णिमा, दिन रविवार को च्यवनेश्वर घाट पर महाराज और उनके सहयोगियों ने स्नान किया। सेवकों ने उद्घोष किया 'कान्यकुब्जेश्वर महाराज की 'जय' याचकों के दल के दल आ गए। सब ने पुनः उद्घोष किया 'महाराज की जय ।' राज्य का अधिकांश छिन जाने पर भी 'परम भट्टारक' 'महाराज' की उपाधियों से मुक्ति कहाँ ? चारण ले उड़े। महाराज गोविन्दचन्द्र, जयचन्द्र सभी की प्रशस्तियों का गान करते हरिश्चन्द्र को भी उन्हीं उपाधियों से विभूषित करते पर हरिश्चन्द्र चाहकर भी गोविन्द और जयचन्द्र की भांति दान करने की स्थिति में नहीं थे। उन्हें आख़िर ग्राम दान करना ही है। पारिवारिक परम्परा से मुक्ति नहीं मिल पाती । कुलगुरु ने भी प्रोत्साहित किया । ब्राह्मण रहीहियक को पमही ग्राम दान में दिया। चारणों को यथायोग्य पुरस्कार दे सम्मानित किया । याचकों को भी द्रव्य एवं वस्तुओं से संतुष्ट किया जाने लगा। बार बार उद्घोष होता रहा, 'कान्यकुब्जेश्वर महाराज की जय ।'
एक ने प्रश्न किया, 'कान्यकुब्ज महाराज हैं न?" "पता नहीं', दूसरे ने उत्तर दिया। महाराज कान्यकुब्ज छोड़कर यहाँ से सोलह कोस गोमती तट पर आ गए हैं। उनका आगमन यहीं से हुआ हैं।' एक जानकार ने बताया एक वृद्ध ने सुना । उसकी आस्था बौद्ध धर्म में थी । श्रमण तो नहीं था वह, पर गृहस्थ जीवन में भी अत्यन्त सादगी से रहता था। वह सारनाथ जाया करता था। जानता था कि कान्यकुब्ज नरेश के अधिकार क्षेत्र में ही सारनाथ भी है। उसने जनसमूह को बताया, 'कान्यकुब्जेश्वर महाराज गोविन्दचन्द्र अत्यन्त उदार थे। उनकी दो पत्नियाँ- कुमारदेवी और भीम देवी बौद्ध अनुयायी थीं । महारानी कुमार देवी के संरक्षण में ही 'धर्मचक्र जिन बिहार' बना उसमें वसुन्धरा देवी की प्रतिमा को प्रतिष्ठित किया गया। सारनाथ के अनेक प्रासादों का जीर्णोद्धार भी महारानी ने कराया था।' बताते हुए वह व्यक्ति भाव विहल हो उठा।
तब तक दान से निवृत्त हो महाराज हरिश्चन्द्र 'विश्वनाथ' दर्शन के लिए निकले। उसने युवा महाराज को देखा और आह्लाद से भर उठा।
45. समरसता कैसे उगेगी? चंचुक गंगा के किनारे किनारे अपना अश्व दौड़ाता जा रहा था। एक आश्रम देखकर वह रुक गया। वह कच्चे बाबा का आश्रम था। दोपहर का समय। बच्चे खेल रहे थे। उनके मुख मण्डल की प्रसन्नता देखकर वह भी प्रसन्न हो उठा। जनता में अब ऐसी प्रसन्नता काफूर हो चुकी है। दिन रात असुरक्षा का दंश चारों ओर आतंक की छाया । हर व्यक्ति असुरक्षित । तुर्क सेनाएँ कब कहाँ आक्रमण कर दें ? इस्लाम कबूल न करने पर मौत के घाट उतार दें। वह सोचने लगा। इतने में एक बालक खेलना बंद कर अश्वारोही के पास आ गया।
‘आप थक गए हो तो विश्राम कर सकते हैं। इस आश्रम में आपका स्वागत है', बालक ने कहा। चंचुक घोड़े से उतर पड़ा। घोड़े को एक पेड़ में बाँधकर बालक के साथ चल पड़ा।
छप्पर की छाजन वाली कुटी में एक आसन पर उसे बिठाकर बालक अन्दर चला गया। गुड़ और एक पात्र में जल लेकर लौटा। चंचुक ने जल ग्रहण किया। बच्चों का खेल चलता रहा। बच्चों की खिलखिलाहट से चंचुक का चेहरा भी खिल उठा। कच्चे बाबा भी अन्दर से आ गए। चंचुक ने प्रणाम किया। 'कहो भट, किधर से आना हुआ ?' कच्चे बाबा ने पूछा।
'महात्मन्, अजयमेरु की ओर से।'
'क्या अजयमेरु से?"
‘हाँ महात्मन् । महाराज चाहमान का गुप्तचर था मैं।'
'पर अब?"
'अब तो यायावर हो गया हूँ। परिवार को तुर्कों ने मौत के घाट उतार दिया।' चंचुक की आँखों से अश्रु ढरक पड़े।
'कठिन समय है', बाबा के मुख से निकला। चंचुक के मुख से शब्द नहीं फूटे । 'सुना था कि चाहमान, चालुक्य और मेढ़ों ने मिलकर चौथी बार अजयमेरु को घेर लिया था।'
'हाँ महात्मन, चाहमान नरेश हरिराज के आत्मदाह के बाद घर घर आग जलाकर लोगों ने सैनिकों को तैयार किया। कुतुबुद्दीन को छः घाव लगे थे। अजयमेरु पर संयुक्त सेना का अधिकार हो गया।
कुतुबुद्दीन की सेना खप गई। वह दुर्ग के अन्दर बन्द हो गया । संयुक्त सेनाएँ प्रसन्नता से नाच उठीं। अजयमेरु का दुर्ग घेर लिया। घेरा पड़ा रहा। राजपूत समझ रहे थे कि अब तुर्कों का शासन उखाड़ कर फेंक दिया जाएगा। घेरे से तंग आकर कुतुबुद्दीन ने चुपके से अपना दूत गज़नी भेजा। अजयमेरु में बैठे हुए सूफी फकीर मुईनुद्दीन चिश्ती ने भी ख़बर दी। राजपूत मग्न थे। कुतुबुद्दीन दिन गिनता रहा। राजपूतों ने अपना दबाव बनाना प्रारंभ किया। कुतुबुद्दीन के लिए यह संकट का समय था । जाड़ा प्रारंभ हो रहा था। मुहम्मद गोरी ने भी सूचना पाते ही अपने अमीरों- जहाँ पहलवान, असादुद्दीन, नसीरुद्दीन हुसैन, इजुद्दीन तथा शरीफुद्दीन के नेतृत्व में एक बड़ी सेना भेजी। इसके आने से सब कुछ उलट गया महात्मन् । संयुक्त सेना के पाँव उखड़ गए। जीतते जीतते वह हार गई। छोटे छोटे बच्चे कत्ल कर दिए गए।
गज़नी की सहायता पाकर कुतुबुद्दीन अन्हिलवाड़ नरेश को सबक सिखाने निकल पड़ा। चालुक्यों ने आबू की पहाड़ियों के बीच अपना मोर्चा लगाया। ठीक उसी जगह जहां महारानी नायकी देवी ने सुल्तान शहाबुद्दीन गोरी को हराया था। कुतुबुद्दीन उस मोर्चे से बचता रहा । चालुक्य अपना धैर्य खो बैठे। जैसे ही वे आबू छोड़कर मैदान में आए, वह बाज़ की भांति झपट पड़ा। चालुक्य भी परास्त हुए। बयाना, गोपाद्रि पहले ही तुर्कों के अधिकार में आ गया था। अब केवल चन्देल बचे हैं।' 'चन्देल भी क्या कर सकेंगे जब चाहमान और गहड़वाल....?' कहते कहते बाबा चुप हो गए। कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा।
'प्रजा का कष्ट देखा नहीं जाता भट।' बाबा के मुख से निकल पड़ा।
'हमारी भाषा, संस्कृति, धर्म सब कुछ दाँव पर है।' भट ने कहा । 'किसी नए पंथ का संसर्ग घातक नहीं होता यदि उसके साथ बलात् परिवर्तन की बात न जुड़ी हो । अपने देश में विभिन्न पंथ चल रहे हैं।
स्वेच्छा से किसी पंथ का वरण अनुचित नहीं है भट, पर बलात् .....।'
‘यही बलात् तो लोगों में विद्रोह, घृणा, जुगुप्सा को जन्म दे रहा है।'
'बलात् पंथ परिवर्तन कराने से समरसता कैसे उगेगी? पर बाहुबली सब कुछ कर लेने में अपने को सक्षम मान लेते हैं। कुतुबशाह के सलाहकारों में कुछ पढ़े लिखे व्यक्ति भी हैं?"
'हाँ है महात्मन् । पर वे सभी अरबी-फारसी के विद्वान हैं। उनके दरबार में फखरुद्दीन, मुबारक शाह, हिसामुद्दीन अहमद अली तथा हसन निजामी बराबर उपस्थित रहते हैं।'
'हूँ। बाबा के मुख से निकला। 'क्या उनसे कोई बात की जा सकती है?"
'असंभव नहीं है महात्मन् ।' चंचुक ने कहा ।
'पर वे अपने पंथ को ही सही और अंतिम मानकर चलेंगे तब ?' 'यही तो बड़ा संकट है। एक पंथ की संकीर्णता दूसरे पंथों को भी संकीर्ण बनाने में सहायक होती है। अपने पंथ को सही समझना तो ठीक है। पर दूसरे पंथों का निरादर, अपमान उचित नहीं हैं। कल को हिन्दू समाज भी अपने लिए सुरक्षा के ऐसे यत्न कर सकता है जिससे कट्टरता को बढ़ावा मिले।'
'प्रयत्न शुरु हो गया है महात्मन् । मैं गंगा के कछार से होता हुआ आया हूँ ।
गाँव गाँव में अखाड़े बन रहे हैं। फूल सी कोमल बालिकाओं को अपने ही सामने अपहृत होते कौन देख सकेगा? गाँव के लोग संगठित हो रहे हैं। मंदिरों की सुरक्षा के लिए साधु आगे आ रहे हैं। तुकों ने जिस धर्मान्धता का रास्ता अपनाया है उससे हिन्दू समाज भी प्रतिरक्षात्मक कार्यवाही में संलग्न हो रहा है। साधना केन्द्र अखाड़े और छावनी में बदल रहे हैं।' 'किसी एक वर्ग की धर्मान्धता अपने पीछे धार्मिक उन्माद की शृंखलाएँ पैदा कर देती है चंचुक । फिर उससे पिण्ड छूटना कठिन हो जाता है। हिन्दू समाज में भी उथल-पुथल तो होनी ही है। पंथ का उन्माद हम पहले भी झेल चुके हैं। पर इस समय यह नया रूप हमें कहाँ ले जाएगा?"
'बाबा, जब कोई कहे कि हम ही सच हैं हमारा ही धर्म रहेंगा, तो संकट तो पैदा होगा ही।'
'ठीक कहते हो चंचुक। समाज को सर्वहित की राह चलाने के लिए मैं भी हाथ पाँव मारता रहा। पर इस नवीन परिदृश्य में?' बाबा की आँखें बहुत कुछ कह गईं।