समीक्षा- गूंगा गांव लेखक रामगोपाल भावुक
अत्याचारों के विरुद्ध क्रांतिकारी चेतावनी
श्याम त्रिपाठी संपादक हिंदी चेतना कैनेडा
कुछ अस्वस्थ होने के कारण पत्र व्यवहार और लेखन कार्य को सुचारू रूप से संचालित न कर पाया ।इसके लिए आपसे क्षमा मांगता हूं। आपकी कृति गूंगा गांव देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे मुंशी प्रेमचंद जी ने फिर पुनः जन्म ले लिया है और वह भावुक जी के नाम से जाने जाते हैं ।कुछ वर्ष हुये जब आपने रत्नावली को जन्म दिया था । इसकी प्रतिया बनवाकर मैंने अनेक मित्रों तक रत्नावली पहुंचाई थी और कई लोगों ने इसके विषय में अपनी प्रतिक्रियाएं हिंदी चेतना में प्रकाशित करवाई थी।
खेद है कि इस बारे में गूंगा गांव के साथ पूरा न्याय नहीं कर सका। यद्यपि मैंने आपके इस उपन्यास को कई बार पढ़ा ,उसकी जुगाली की और उसे पचाया भी, किंतु स्थानीय भाषा में अनविज्ञ होने के कारण कुछ असमर्थता का अनुभव करता रहा। यहां तक मैं इसे समझ सका हूं मेरे विचार से यह उपन्यास राजनीति की एक चिंगारी है। समाज की दुर्बलता, मानवी शोषण] अमानवीय व्यवहार, जाति-पांति ,छुआछूत ,वर्ग संघर्ष अत्याचारों के विरुद्ध एक क्रांतिकारी चेतावनी है । आप जैसे क्रांतिकारी सकारात्मक लेखन की आज भारत में बहुत आवश्यकता है ।अंग्रेज तो 1947 से हमारे देश से चले गए किंतु वे अपना भूत तो यही छोड़ गए और इस भूत को केवल आप जैसे कलम के सैनिक ही भाग सकते हैं। गांधी जी ने स्वतंत्रता संग्राम की लड़ाई भारत के बाहर दक्षिणी अफ्रीका से प्रारंभ की थी ।यह एक विचारधारा थी, जिसको लेकर गांधी जी ने विशाल ताकत को देश से निकाल दिया।
शब्दों में बहुत ही शक्ति होती है फिर भी आप जैसे लेखक जिनके पास कवि का हृदय हो। भाषा पर अधिकार हो। जीवन का अनुभव हो। मानव की परख हो, लेखनी स्वयं ही चल पड़ती है। आपको देश की प्रसिद्ध लेखिका पद्मश्री मेहरूनिसा द्वारा ग्वालियर की धरती पर 2005 का अखिल भारतीय समर साहित्य पुरस्कार आपकी अनमोल कृति गूंगा गांव के लिए प्रस्तुत किया गया और 11000 रुपए साल एवं स्मृति चिन्ह से भी विभूषित किया गया। हिंदी जगत के सुप्रसिद्ध साहित्यकार समर लोक पत्रिका के संपादक की उपस्थिति में इस सम्मान को प्राप्त करने वाला अन्य कोई व्यक्ति नहीं केवल हिंदी चेतना का प्रेमी रामगोपाल तिवारी भावुक के सिवा और कोई नहीं हो सकता। सम्मान समारोह में नीरज जी जैसे अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त पद्मश्री कवि ने अपनी रसिक वाणी से आपके मनोबल को संबोधित किया। यह महान गौरव की बात है, जहां नीरज जी पहुंच जाते हैं, कुम्हलाये हुए पुष्प खिल जाते हैं ।गूंगा गांव रामगोपाल तिवारी भावुक का एक ऐतिहासिक स्मरणीय उपन्यास है ।इस पुस्तक में मध्य प्रदेश के छोटे से गांव की कहानी को लेकर उसे अमर कर दिया। इसमें जनजीवन की एक सच्ची झलक मिलती है और सारे भारत का चित्रण सामने आ जाता है। उपन्यास का प्रारंभ पक्षियों के कलरव से शुरू होता है ऐसा लगता है कि जैसे अंग्रेजी के महान कवि लैंगलैड अपनी पुस्तक पियर्स प्लाउमैन की भूमिका में पक्षियों को पार्लियामेंट से संबोधित करते हैं। ये पक्षी समस्या के रूपक का काम करते हैं। गूंगा गांव भी एक रुपात्मक एवं संदेशात्मक उपन्यास है, जिसमें पुराने ग्रामीण ढांचे को बदलने का प्रयास है ।आज यदि राम मनोहर लोहिया वह बाबू जय प्रकाश नारायण जीवित होते तो इस उपन्यास को पढ़कर अत्यंत ही प्रसन्न होते और कहते कि मेरा स्वप्न पूरा हो रहा है ।जिन समस्याओं का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है वे भारत के गांव की समस्या न होकर बल्कि सारे देश की है ।आज ग्राम जीवन को शहरों की तरह बनाया जा रहा है ।गांव की निर्मलता सादगी और शिष्टाचार को एक नकली और बनावटी चोला पहनाने का प्रयास गांव के साथ बहुत बड़ा अन्याय है। गांधी जी का सपना क्या था? लोग उसके साथ खिलवाड़ कर रहे हैं गांव के समाज में आज भी मजदूर का सम्मान नहीं है ।पिछड़ी जातियों के साथ आज भी शोषण होता है ।ऊंची जाति के लोग नीचे जाति के लोगों को गरीबी से मुक्त नहीं करना चाहते हैं। उनके पास में न जमीन है ,ना बैल ,न शिक्षा न घर, न सम्मान ।आए दिन उनकी बहू बेटियों की इज्जत लूट ली जाती है। जमींदारी समाप्त हो गई, राजे महाराजे आज भी ऐश कर रहे हैं । देश की स्वतंत्रता को आये आधी शताब्दी से अधिक समय बीत चुका है किंतु देश के गांव में अभी अज्ञानता के बादल छाए हुए हैं । पंचायत राज की हंसी बनाई जा रही है जो बातें मुंशी प्रेमचंद ने अपने उपन्यासों में सालों पहले प्रस्तुत की थी, वे आज भी वही की वहीं पर विद्यमान है। शहर से दरोगा पुलिस से सेवक आज भी गांव के भोले भाले लोगों के साथ मारपीट करते हैं और उनसे रिश्वत लेकर उन्हें छोड़ देते हैं। शिक्षा के केंद्र में वही पुरानी और गलत बातें पाठ्यक्रम में चल रही है जो तथ्यहीन है और जिसे हमारे आत्म सम्मान को ठेस लगती है आज भी हमें वही पुराना इतिहास पढ़ाया जाता है जिसमें हमारे अतीत का सच्चा प्रदर्शन नहीं है ।ग्राम जीवन के साथ वहां के ऐतिहासिक स्मारकों व दुर्गों के विषय में न जाने कितनी रोचक कथाएं जुड़ी रहती हैं यदि उनके विषय में बच्चों को शिक्षक लोग रुचिकर बनाकर सिखाएं और उनकी पूरी जानकारी दें तो यही बच्चे अपने गांव और देश के इतिहास पर गर्व करेंगे, साथ ही उन्हें अपने जीवन का अंग भी महसूस करेंगे।
उपन्यास की भाषा बड़ी ही मार्मिक और प्रभावपूर्ण है हर शब्द सार गर्भित है पाठक की रुचि को उत्साहित करती है। प्रत्येक घटनाक्रम को बड़ी सजीवता से और ईमानदारी से प्रस्तुत किया गया है। गांव की भाषा जो कि वहां की आत्मा है जिसकी अपनी पहचान है, जिसमें पूर्वजों की सभ्यता और संस्कृति के पद चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। इसे भावुक जी ने सच्चे हृदय से अपनाया है और इसके साथ पूरा न्याय किया है ।
जहां तक हो सका लेखक ने पंचमहली बोली बोली को भी अपनाया है । इस प्रकार से इस उपन्यास में भारत के सभी गांव की एक झलक मिलती है । चीन और रूस के साम्यवाद की ओर भी संकेत है, वर्ण व्यवस्था जो कि भारतीय समाज के लिए एक कोढ़ है इसके प्रति लेखक ने बहुत आक्रोश दिखाई है । अंत में श्री राम गोपाल भावुक जी को साधुवाद देना चाहूंगा, जिन्होंने गूंगा गांव को लेकर हिंदी उपन्यास की श्रृंखला में एक नई दिशा प्रदान की है साहित्य जगत में एक नया पदार्पण है।
उपन्यास का भविष्य उज्जवल है। हिंदी चेतना को ऐसे कर्मठ विद्वानों पर बहुत गर्व है ।
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