सबा - 20 Prabodh Kumar Govil द्वारा मनोविज्ञान में हिंदी पीडीएफ

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सबा - 20

नहीं, उन्हें टकलू कहना ठीक नहीं। टकलू तो हिंदी जगत में गंजे आदमी को कहते हैं। वो भी सम्मान से नहीं, बल्कि निरादर के भाव से!
उनका नाम तो टकासालूलू था। वो सर पर गंजे ज़रूर थे लेकिन शरीर के और किसी भी हिस्से में गंजे नहीं थे। वनमानुष सा बदन था उनका। राजा ये सब अच्छी तरह देख चुका था, रात के अंधेरे में भी, और अब दिन के उजाले में भी। उसने वाशरूम में उनका मोबाइल ले जाकर दिया था।
अकेले बैठे - बैठे राजा को एक शरारत भरा ख्याल आया कि उसे उनको टकलू नहीं बल्कि सालू कहना चाहिए। यदि कभी कहीं उसके मुंह से किसी हिंदी जानने वाले व्यक्ति के सामने "टकलू" जैसा चलताऊ शब्द निकल गया तो वह राजा को कृतघ्न समझेगा। जो आदमी उसे जीवन की पहली विदेश यात्रा पर लाया भला उसका नाम इतने निरादर से लिया जाता है? ये तो सरासर बदतमीज़ी हुई। राजा को हैरानी इस बात की थी कि म्यांमार का ये निवासी भारत से भी अच्छा खासा परिचित था और वहां के अनेक शहरों में अक्सर आता जाता रहता था।
सालू दोपहर बाद लौटा और आते ही बिस्तर पर पसर गया। वह खाना बाहर से ही खा कर आया था।
उसने आते ही राजा के लिए ये ऐलान भी कर दिया कि उसे आज रात को सालू के साथ किसी और जगह चलना है। वह चाहे तो अभी कुछ घंटे आराम से सोता रह सकता है। ये कह कर सालू ख़ुद भी कंबल तान कर सो गया। थोड़ी ही देर में उसकी नाक कीर्तन करने लगी जिसकी मधुर घंटियां राजा के कानों में बजने लगीं।
राजा तो दिन भर से कमरे में ही था और आराम ही कर रहा था इसलिए उसे इस समय बिल्कुल भी नींद नहीं आ रही थी लेकिन वह चुपचाप लेटा हुआ था।
सालू के खर्राटों में उसे मज़ेदार ताल का आनंद आ रहा था। वह लेटे- लेटे ही अपने मोबाइल को उलटने पलटने में लगा हुआ था।
रात का खाना होटल में ही खाकर वो दोनों चाचा- भतीजे जैसे जोड़ीदार एक टैक्सी से गंतव्य की ओर निकल पड़े। शहर से लगभग बाहर की ओर एक अपेक्षाकृत कम भीड़ भाड़ भरे इलाके में ये दोनों इमारतें पास- पास ही बनी हुई थीं।
दोनों पर ही भरपूर रोशनी की जगमगाहट थी और ये किसी नाइट क्लब की तरह गुलज़ार दिखाई दे रही थीं। दोनों पर भव्य तरीके से सजावटी बोर्ड चस्पां थे जो रंग बिरंगी रोशनियों में नहाए हुए थे। इन्हीं पर लिखे इनके नाम भी नज़र आ रहे थे।
इन्हीं में से एक के रिसेप्शन के सामने पड़े सोफे पर जब राजा सालू के साथ आकर बैठा तब तक उसका चित्त काफ़ी स्थिर हो चुका था। वह सालू के साथ काफ़ी खुल चुका था और अब वो सालू से कुछ भी पूछ लेने में अपने आप को सक्षम पा रहा था। वैसे भी परदेस में आकर आदमी इतना उदार और चौकन्ना हो जाता है कि अपनी सहायता करने वाले को अपना आत्मीय स्वजन मानने लगता है। राजा का तो यहां सालू के अलावा और कोई था भी नहीं।
पिछली रात ने राजा को वैसे भी बहुत मजबूत और स्वाधीन बना डाला था। वह अब वो नहीं रहा था जो उस रात से पहले हुआ करता था। उसके सामने रंग भरी दुनियां के कई मादक झरोखे खुल गए थे।
वो दिन हवा हुए जब महीने भर तक नियम से अपनी नौकरी पर जाने के बाद मुश्किल से चार पैसे हाथ में आया करते थे। अब तो कभी भी कुछ भी हो सकता था। हां, उसे यही तो बताया गया था।
सालू ने उसे ये भी बता दिया था कि इस जगह में अक्सर विदेशी पर्यटक ही आते हैं। इसका नाम "फीनिक्स" था। यहां भीतर बहुत छोटे - छोटे कोठरीनुमा कमरे बने हुए थे। इन कमरों की दीवारें खुरदरे रंगीन पत्थरों से बनी हुई थीं। इन कक्षों में सजावट के नाम पर कुछ नहीं होता था। फर्नीचर के नाम पर केवल एक पत्थर की बेंच और एक किनारे पर एक छोटा स्टूल जिस पर कुछ छोटा - मोटा सामान रखा जा सके। इन कक्षों में मद्धिम रोशनी थी और केवल भारी सा पर्दा पड़ा हुआ था जो इनकी गोपनीयता की रखवाली करता था। वैसे भी वहां तीसरा आता ही कौन था। पत्थर की दीवार पर कुछ रंगीन खूंटियां जिन पर कपड़े टांगे जा सकें। दो सुंदर से कलात्मक शीशे के गिलास और ज़बरदस्त मीनाकारी से सजा पानी से भरा जग!
दुनियां भर का कोई भी ब्रांड वहां उपलब्ध होता।
राजा और उसके कौतूहल के बीच बस चंद घंटों का फासला था!