मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 39 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 39

भाग 39

इस बार दोनों ही ठहाका लगा कर हँस दी थी। फिज़ा की अम्मी कभी चेतना तो कभी फिज़ा की बात को अपनी रजामंदी की मोहर लगा रही थीं। वहाँ का माहौल बड़ा ही खुशगवार था। जरा भी नही लग रहा था कि वो दोनों एक गंभीर मुद्दे पर बात कर रहीं थीं। लगभग एक घण्टें से ऊपर हो चुका था। चेतना ने अपनी कहानी का खाका खींच लिया था। अभी कुछ सवाल और बाकी थे। शायद बीच में एक ब्रेक जरुरी था। चाय एक बार फिर से आ गयी थी। चेतना अपनी कहानी के हर किरदार के साथ आदिल रहना चाहती थी। जिसके लिये अभी बहुत कुछ जानना बाकी था।
नीचें से एक पुलिस कर्मी ऊपर उनके पास आ गया था। बिल्कुल उनके नजदीक ही बैठ गया था। जिसे देख कर चेतना को थोड़ा अटपटा सा लगा था और बात करने में भी नामुतमईन हो गयी थी। लगातार उसका उन दोनों की बातें सुनना इस बात की गवाही था कि वह फिज़ा की हिफ़ाजत के अस्बाब से वहाँ आया होगा? ये उसकी ड्यूटी थी। किसी अजनबी का फिज़ा के पास ज्यादा देर रुकना शक के दायरे में आ गया था। फिर उनकी जिम्मेदारी थी उसकी हिफ़ाज़त करना।
चेतना ने उसे नजरअंदाज कर बात को जारी किया- "फिज़ा, अगर तुम्हारा शौहर तुमसे दुबारा निकाह करना चाहे तो जाना चाहोगी क्या?" इस बात को सुन कर वो थोड़ा सा नाराज़ दिखी। फिर उसने जल्दी ही अपने माथे की सिलवटों को समेट लिया- "नही, कभी नही....कयामत आ जाये फिर भी नही"
"क्या तुम्हारे शौहर ने तुमसे कभी महोब्बत नही की?"
"हाँ, की है। बहुत की है। पर तब की है जब उनकी मर्जी हो। वैसे उनके लिये महोब्बत का मतलब सिर्फ जिस्म ही था। इसके अलावा वो कुछ नही जानते थे। कैसे साथ बैठ कर बातें की जाती हैं? कैसे एक-दूसरे को समझा जाता है? कैसे ख्बाइशों को पूरा किया जाता है? ये सब उनके लिये बेमानी था। कोई कीमत नही थी इसकी? इसे वो वक्त की बर्बादी कहते थे। हाँ शुरुआत में हमें लगा था कि वो हमें बहुत महोब्बत करते हैं। दिल खोल कर प्यार लुटाते हैं। लेकिन ये हमारी भूल थी और कुछ नही। आहिस्ता-आहिस्ता सब हमारी समझ में आने लगा था।"
"तुम्हारी कहानी बहुत ही खराब दौर से गुजरी है। जहाँ तुम्हे ज़हनी और जिस्मानी दोनोंं तरह से पीड़ा झेलनी पड़ी।" चेतना ने अफसोस के साथ कहा।
"कहानी तो बहुत लम्बी है। एकदम सारी बातें याद भी नही आती हैं। रह-रह कर आँखों के आगे घूमती हैं।" फिज़ा के चेहरे पर उदासी छा गयी थी।
"तुम बहादुर हो ईमानदार हो। बस यही चाहिये होता है किसी भी जंग को जीतने के लिये।"
"जानती हूँ मैम, पर ये आसान नही होता।" फिज़ा के लब्ज़ थोड़ा सूखने लगे थे।
उसको मुतमईन करने के अस्बाब से चेतना ने अगला सवाल लीक से हट कर किया था। "फिज़ा, तुम्हारी गैर मुसलमानों के बारे में क्या राय है? इस दौरान कैसा तजुर्बा रहा?"
"जी, वो बात को समझते हैं और सपोर्ट करते हैं।" उसने एक ठंडी साँस भरते हुये कहा।
"एक आखरी सवाल, अब आगे क्या सोचा है? और कोई पैगाम जो तुम देना चाहती हो?" चेतना ने पैन को डायरी पर रखते हुये कहा और सोफे की पुश्त पर पीठ को टिका लिया।
"हमारा मकसद है जुल्म के कारण को खत्म करना। दूसरा एक मैसेज है जिसको हम सभी औरतों से कहना चाहेगें कि- " शोषण या जुल्म के पहले कदम पर ही आवाज़ उठानी चाहिये नही तो वो कोढ़ बन जायेगा।"
इस आखरी जवाब से चेतना की ज़हनी चेतना जागने लगी। जुल्म के पहले ही कदम पर आवाज...? सही तो कह रही है ये, क्यों नही उठाई उसने जुल्म के पहले दौर में अपनी आवाज़? क्यों सहती रही वो सब कुछ? और सहने का नतीजा क्या निकला? आज भी वो खाली हाथ ही खड़ी है। क्या है उसके पास अपना कहने को? कुछ नही, बस यही गुनाह है उसका? जिसने गुनहगार को ताकतवर बना दिया। वह उन सभी अहसासों से घुटने लगी जिसने उसे मरने के लिये एक कमरें में छोड़ दिया था। वह सोचने लगी थी कि इन्ही जुल्मों का शिकार तो वह भी हुई थी बस तलाक नही दी गयी। तलाक से बद्तर जिन्दगी जी रही थी वो। इससे तो तलाक दे दी जाती तो वह आजाद जिन्दगी जी रही होती। या फिर वह भी तो तलाक देने की पहल कर सकती थी? क्यों नही की उसने पहल? क्यों वह डरती रही वह अकेले जीने से? आखिर क्यों नही उठा पाई वो कोई ठोस कदम? औरतें ऐसा कदम उठाने से डरती क्यों हैं? कैसी मुशकिलात हैं ये?
चेतना खुद को वहाँ से कहीँ दूर ले गयी थी। उस अतीत के गोते खाने लगी जहाँ सिर्फ जलजले ही थे और उस तूफान में वो अपनी नाव को आज भी हिचकोले खाता हुआ महसूस कर रही थी। कितने थपेड़े झेले थे उसकी नाव ने? और वो भी अकेले, जहाँ दूर-दूर तक कोई दिखाई नही दे रहा था। चारों तरफ वीरानियत पसरी थी। लोग तभी तक सहारा देते हैं जब तक उन्हें लगे ये धकेलने से चलने लगेगी। जब वो समझ जाते हैं इसमें कुछ नही बचा ये जर्जर हो चुकी है तो तन्हा छोड़ कर निकल जाते हैं वहाँ, जहाँ वो खुद को महान साबित कर सकें।
"लीजिये, बिस्किट लीजिये" उसने प्लेट आगे बढ़ाई तो चेतना जैसे नींद से जाग पड़ी।
"नही फिज़ा, बहुत खा लिया अब मैं चलती हूँ। जल्दी ही फिर मिलेगें।" कह कर चेतना उठ खड़ी हुई।
"इतनी जल्दी..? कुछ देर और बैठिये।" उसने आग्रह किया।
"न, अब रहने दो, आज के लिये बहुत हुआ। हम फिर जल्दी ही मिलेंगे। हमारे पास एक दूसरे के फोन नम्बर तो है ही, बात करते रहेंगे।"
फिज़ा का दिल अभी भरा नही था । वह चाहती थी अभी थोड़ी देर और साथ में बैठें। वैसे भी उसने लम्बे वक्त से किसी के साथ इस तरह बैठ कर बात नही की थी। काफी लोगों ने तो फ़तवें के डर से उनके घर आना-जाना ही छोड़ दिया था। और जो आते भी थे उनकी निगाहें और कान तो बस भेद जानने में ही लगे रहते थे।
दोनों के लिये ही ये एक यादगार मुलाकात थी। दोनों ही एक ही दौर से गुजरीं थी। दोनों की ज़हनी हालत भी एक ही थी, मगर फर्क था तो इतना फिज़ा ने आवाज़ को बुलन्द किया था। बेखौफ़ शेरनी के माफ़िक दहाड़ी थी। हारी नही थी। वहीँ दूसरी तरफ चेतना ने अपनी स्तिथी से तालमेल बिठाने की कोशिश की और लगातार करती रही। वह कमजोर थी लेकिन ज़ुल्म के खिलाफ़ लड़ना भी चाहती थी तो उसने अपनी कलम को अपनी ताकत बना लिया था। खुद को एक कमरें के अन्दर समेट लिया था। जब उसका कलेजा फटता तो वह कागज का सीना फाड़ देती उसे यकीन था हौले ही सही एक-न-एक दिन उसकी कलम उसे और उसी की तरह तमाम मज़लूम औरतों को जरुर जीना सिखायेगी।
चलते-चलते दोनों एक बार फिर से गले मिलीं थी। जिस तरह गर्मजोशी से मिलीं थीं उसी तरह जोशीले अन्दाज़ में विदाई भी हुई, इस वायदे के साथ कि जल्दी ही दोबारा फिर मिलेंगे। दोबारा ही नही बल्कि बार-बार मिलेगें। हमें जब भी आपकी याद आयेगी या जरुरत महसूस होगी हम मिलेंगे।
फिज़ा ने उसे अन्जानें में जो मुतालाह करवा दिया था उससे वह सोचने को मजबूर हो गयी थी और फिज़ा भी खुद को और ज्यादा ताकतवर समझ रही थी। यानि कि दो औरतों की ताकत इतनी जबरदस्त हो सकती है तो पूरे मुल्क़ की औरतों की ताकत क्या नही कर सकती? बशर्तें वो एक हो जायें। दो बिल्लियों की लड़ाई में बंदर ही फायदा उठाता है ये तो सब जानते हैं। काश! औरते आपस में लड़ना छोड़ दें।
चेतना ई रिक्शा में अपने घर वापस लौट रही थी। उसके ज़हन में आने वाले दिन और नतीजे एक चलचित्र के माफिक दौड़ रहे थे। वो जान गयी थी आज की मुलाकात जरुर सुनहरे अल्फ़ाजो़ं को जन्म देगी।