मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 40 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 40

भाग 40
उस मुलाकात के करीब चार माह के बाद उन्नीस सितम्बर दो हजार अटठाहरह को केन्द्र सरकार ने एक अध्यादेश जारी किया जिस पर राष्ट्रपति के हस्ताक्षर भी थे। जिसमें साफ-साफ कहा गया था- 'आज के बाद एक साथ तीन तलाक प्रतिबन्धित होगा। एक साथ तीन तलाक देने पर तीन साल की जेल हो सकती है। अत: इसे अब अपराध की श्रेणी में रखा जायेगा। साथ ही ये भी यकीन दिलाया गया कि जल्दी ही ये अध्यादेश संसद में पारित किया जायेगा।'
इस अध्यादेश के पारित होते ही पूरे मुल्क़ में खुशी की लहर दौड़ गयी थी। चर्चाओं ने एक बार फिर से जोर पकड़ लिया था। अखबारों ने इस खबर को हैड लाइन बनाया था। फिज़ा के इन्टर व्यूज अखबारों में छपने लगे थे। मुसलमान औरतों के साथ अन्य समुदायों की औरतें भी खुशियाँ मना रहीं थीं। उन्हें भी उम्मीद की लौ जगी थी। अगर समाज का ध्यान औरतों के अहज़ान पर गया है तो इसका फायदा सभी को मिलेगा। पूरे मुल्क़ से मतलब उन लोगों से नही है जो औरतों की आजादी के खिलाफ़ हैं। तमाम मौलानाओं ने इसका जबरदस्त विरोध किया। उन्हें डर था अगर ये बिधेयक संसद में पारित हो गया तो उनकी दुकानें बंद हो जायेंगी। औरतों पर जुल्मों -सितम के अधिकार खत्म हो जायेंगे। जिन्हें औरतों की चमड़ी के जूतों की आदत हो गयी थी, अब वो कहाँ से आयेंगे?
इस्लाम को बदनाम करने वाले सभी ठेकेदार बुरी तरह बौखला गये। जिसे वो अपने ईशारों पर नचा रहे थे। अपने फायदे के लिये शरआ के नियमों को तोड़ मरोड़ कर पेश कर रहे थे। तमाम तरह की मुश्किलें खड़ी करने लगे थे। कभी झूठी और बेबुनियादी अफवाहें फैला कर और कभी लोगों को डरा कर।
कुरान में कहीँ नही लिखा है कि औरतों को बेइज्जत किया जाये। उन पर जुल्म किये जायें या उनकी तालीम गुनाह है। ये सब मन गडंत कहानियाँ बनाते रहे ताकि उनका बर्चस्व बना रहे। उनकी हुक़ूमत चलती रहे। और क़ौम को चलाने की ताकत उनके हाथ में रहे। पंडितों ने हिन्दुओं को, मौलविओं ने मुसलमानों को, इस तरह हर क़ौम के ठेकेदार धार्मिक जनता को गुमराह कर अपनी दुकान चलाते रहे।
फिज़ा सहित सभी औरतों ने इस जंग की पहली फ़तह हासिल की थी। जिससे उनका जोशो-खरोश बढ़ गया था। ज़हनी तौर पर भी मजबूती आई थी। तलाक के बाद इन दो बरसों में फिज़ा ने दिन रात एक कर दिया था। न ही रात में नींद आती थी और न ही दिन में चैन। आज सुकून का दिन था। जश्न का दिन था। जिसे वह खुल कर जीना चाहती थी। मगर वह ये भी जानती थी ये उसकी मंजिल नही है। ये तो पहली सीढ़ी है जो उसने पार की है। अभी तो उसे लम्बी लड़ाई लड़नी है। जिसने उसके साथ जुल्म किये हैं, उसका बच्चा उससे छीना है, उसे लम्हा-लम्हा सताया है, मारपीट की है, उसका ये हाल बना दिया। उसे जब तक जेल नही हो जाती वह चुप नही बैठेगी। इस जीत की खुशी में उसे अपनी ताकत को कम नही करना है।
आज उसने फिर से उन खामोश तस्वीरों को देखा जो इन्साफ़ के लिये तड़प रही थीं। जिसमें उसके दर्द की कहानी साफ दिखाई दे रही थी। फिज़ा ने टेबुल पर तस्वीरों को फैला लिया था और ध्यान से उन्हें देखने लगी। जैसे ही उसने उस तस्वीर को उठाया जिसमें उसकी आँख सूजी हुई थी। समूची आँख नीली पड़ी थी। जिसने उसकी शक्ल को भयानक बना दिया था। उसे देख कर उसकी आँख में आसूँ नही आये थे बल्कि उनमें सूखापन था।
उसने अपनी ऊँगलियों से अपनी तस्वीर को छुआ तो उसका दिल नफरत से भर उठा ये याद कर, जब आरिज़ ने उस पर हाथ उठाया था और उसका तेजी से पड़ा हुआ मुक्का उसकी आँख पर लगा था। वह दर्द से बिलबिला गयी थी। उसके बाद कुछ लम्हें तो बड़े खौफनाक बीते थे। आँख के आगे रंग-बिरंगे तारे ही नाचँते रहे थे और कुछ भी दिखाई देना बंद हो गया था। चारों तरफ अंधेरा ही अंधेरा था। उसे लगा था कि वह हमेशा के लिये अन्धी हो गयी है। अब उसे कभी दिखाई नही पड़ेगा।
ऐसा एक बार नही कई बार हुआ था। उसकी नजऱ दूसरी तस्वीर पर गयी। जिसमें गर्दन पर बड़े-बड़े नील पड़े थे और चेहरा सूजा हुआ था। "ऊफ्फफफ आरिज़, तुम कितने जालिम थे? कैसे और क्यों रहे हम तुम्हारे साथ इतने दिन? तुम्हारी किसी भी बात का विरोध करने पर तुम कितने बहशी हो जाते थे? और तिलमिला कर जो जी में आता था करते थे। उस दिन जब हमने तल्ख़ होकर कह दिया था कि "हमारे अब्बू जान दिन-रात मेहनत करते हैं वो इसलिये नही कि अपनी मेहनत की कमाई का सारा पैसा तुम्हें दे दें।" बस यही बात उसके दिल में गहरी जाकर लगी थी और उसने जवाब में हमारा गला दबाने की कोशिश की थी और कितनी देर गालियाँ देता रहा था? चीखता रहा था। हम सहमें हुये थे। हमारे मुँह से बोल नही निकला। रोज-रोज़ उसे कड़क अन्दाज़ में जताया जाता था कि वह औरत है, दब के रहे। ज्यादा आसमान में उठने की जरुरत नही है।
उसे समझ नही आता था लड़की होना गुनाह है या लड़की होकर मुँह खोलना गुनाह है। और अगर लड़की होना गुनाह था तो शादी से पहले क्यों नही था। शादी के बाद ऐसा क्या हो गया? हम, हम नही रहे। हम वो हो गये जो वो लोग चाहते हैं।
वो तो अच्छा हुआ कि शमायरा के कहने पर उसने अपने मोबाइल से फोटो खींच लिये थे। नही तो सबूत के तौर पर कुछ नही होता। फिज़ा ने एक ठंडी साँस ली और खुद को जहरीली यादों से बाहर निकाला। फिर अपनी ताजी जीत की खुशी को महसूस किया। खुद की पीठ थपथपाई। ऐसा करने से ज़हनी ताकत और जिस्मानी ताकत दोनों ही बढ़ जाती हैं।
फिज़ा का दिल चेतना को याद कर रहा था। उसने झट से उसे फोन मिला लिया। वह जानती थी कि यह वक्त उनके लिखने का है, मगर भूख लगने पर खाना, खाना जरुरी हो जाता है। ये उसकी जहनी जरुरत थी। जिसे सिर्फ़ चेतना ही पूरा कर सकती थी।
लगातार घण्टी जा रही थी। फोन नही उठा तो वह समझ गयी। उसकी कहानी सफर में है, तो रहने दूँ। जाने चेतना मैम कहाँ तक पहुँची होगीं? क्या लिख रही होगीं? उन्होनें हमें किस तरह उतारा होगा अपने दिल के पन्नैं पर? कागज़ तो उसके बाद ही काम आता है। उसे याद आया- 'अरे आज तो चेतना मैम आरिज़ से मिली होगीं? वह उससे मिलना चाहती थीं। अगर मिलीं हैं तो क्या बात हुई होगी? उसने क्या बताया होगा हमारे बारे में? खूब बुरा भला कहा होगा? हमारे खिलाफ़ भड़काया भी होगा? पर हम जानते हैं चेतना मैम का जहनी स्तर इतना छोटा नही है जो वह सही और गलत को न समझ पायें? खुद से ही बातें करती हुई और खुद को समझाती हुई वह बिस्तर पर जाकर लेट गयी।
आज की रात उसे फिर से नींद नही आई थी।
चेतना का उपन्यास तमाम वर्जनाओं को पार करता हुआ आगे बढ़ रहा था। वक्त-वक्त पर उसे फिज़ा की जरुरत पड़ती थी। चेतना ने उसके लिये अपने भगवान से बहुत सारी दुआयें माँगी थीं और फिज़ा की इबादत में चेतना भी शामिल हो गयी थी। फिज़ा और उसके दरमियान एक गहरा रिश्ता बन चुका था। भले ही इस रिश्ते की बुनियाद उनके एक से हालात का होना भी था ये बात अलग है। मगर कहीँ-न-कहीँ दोनों को एक दूसरे से ज़हनी ताकत मिल रही थी और उस ताकत और सोच का आदान-प्रदान होने लगा था।
अब चेतना के उपन्यास का सबसे खास पन्ना लिखा गया था। जिसमें औरतों की जंग और जीत को उसने मोटे लब्जों में लिखा था। आज कलम बेखौफ तेजी से भाग रही थी। जैसे उसमें रफ़्तार आ गयी हो। दिल चाह रहा था आगे की कहानी को भी वो पहले ही पन्नों पर उतार दे, हू-बहू वैसी ही जैसे अन्जाम का तसब्बुर उसने किया था। इसमें फिज़ा की जंग के साथ-साथ उसके तजुर्बे भी शामिल थे। जिसने उसे सामने वाले को समझने का हुनर सिखा दिया था। वो एक बात कहती और चेतना चार समझ लेती।
क्रमश: