Mujahida - Hakk ki Jung - 34 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 34

भाग 34

तारीखें पड़ने लगीं थी। हर दफ़ा कोर्ट में आरिज़ मिलता और हर दफा वो फिज़ा को डराने की कोशिश करता। वह, वो सारे पैतरे आजमाता था जिससे वह अपना केस वापस ले लें। मगर फिज़ा ने भी ठान लिया था। वह हारेगी नही अपने ह़क की लड़ाई मरते दम तक लड़ेगी। जीत और हार का फैसला तो खुदा के हाथ में है। मगर जो हमारे हाथ में है वह हमें करने से कोई नही रोक सकता।
समाज से बेदखली के बाद अकेलेपन की मार झेल रहे उस खान परिवार के पास अपना कोई नही था। मीडिया ने इस केस को खूब उछाल दिया था। जिसे देख कर दबी- कुची औरतों की आह निकलने लगी थी। देश के अलग-अलग हिस्सों में फिज़ा अपने नाम से पहचानी जाने लगी थी। इस बात का गुरुर उसे होने लगा था। अब वह खुश रहने लगी थी।
उसकी खुशी में फिर से सेंध लग गयी थी। आरिज़ के अब्बू का एक मुरीद जो पागलों की हद तक उनका मुरीद था। चूकिं उसके कई बडे़ पेचीदा काम आरिज़ के अब्बू की दुआ से बने थे। इसलिये वह उनके लिये कुछ भी करने को तैयार रहता था। उससे फिज़ा की खुशी नही देखी गयी। दूसरे उसे अपनी मुरीदी का सबूत भी देना था। सो उसने सरे आम फिज़ा की चोटी काटने की पेश कश रख दी थी। जिसका ईनाम ग्यारह हजार सात सौ छिआस्सी रुपये रखा गया था।
उसने ऐलान कर दिया था फिज़ा को औरत कहलाने का कोई ह़क नही है। वह औरत के नाम पर कलंक है। उसने पूरी दुनिया के सामने इस्लाम को बदनाम किया है। शरआ के कायदों को नही माना है। वह इस्लाम को कोर्ट तक घसीट कर ले गई है। ऐसी औरत को इज्जत से रहने का कोई ह़क नही है। उसको इसकी सज़ा मिलनी चाहिये। वह एक रसूख वाले खानदान, जिसके रहमोकरम से न जाने कितने लोगों को सहारा मिला है उनकी मुरादें पूरी हुईं हैं और उसने उसी को बदनाम करने की कोशिश की है, अपनी बेहयाई का सुबूत दिया है इसलिये मैं ये ऐलान करता हूँ- ' जो भी उसकी चोटी को काटेगा उसे ग्यारह हजार सात सौ छिआस्सी का नगद ईनाम मिलेगा।'
फिज़ा की जिन्दगी में गमों का जैसे सैलाब सा आ गया था। एक जाता नही कि दूसरा आ जाता था। जब-जब उसने मुस्कुराने के लिये होठों को फैलाया उसे रोना पड़ा था। लड़ते -लड़ते कभी -कभी जब वह लड़खड़ाने लगती, या बेइज्जती और गम से टूटने लगती तब-तब शबीना उसे भरपूर हौसला देती रही। यही बजह थी वह लगातार आगे बढ़ती रही। गिरती, रुकती फिर चल पड़ती। दुबारा फिर दुगने यकीन और हौसले से।
जब भी टूटी, चटखी उसे अपने सिर पर हमेशा अपनी अम्मी जान का हाथ नजर आया। अपने हाथ में उनका हाथ और दिल में उनका प्यार नजर आया। साथ ही उन औरतों का ख्याल भी उसे रहता था जो उसके एन.जी.ओ. का हिस्सा थी। जो फिज़ा को बहुत चाहती थीं। कोई बेटी की तरहा, तो कोई बहन की तरहा। उन सब से ही उसका कोई-न-कोई रिश्ता बन चुका था। अगर वह उनकी उम्मीदों पर खरी न उतरी तो वह सब टूट जायेंगी। बहुत सारी उम्मीदें पल रही थी उनके दिल में।
ऐसा नही था कि शबीना, सिर्फ फिज़ा की ही ढ़ाल बनी थी बल्कि उसने हमेशा मज़लूम औरतौं का पूरे दिल से साथ दिया। वह भी उनके लिये कुछ करने का हौसला रखती थी। एन.जी.ओ. से जुड़ी ज्यादातर औरतें शबीना को भी जानती थी।
ये फिज़ा लिये एक पोषक आहार की तरह था। जो उसके दिमाग की ताकत को बरकरार रख रहा था। जिसे ज़हनी तकलीफ हो उसके लिये अपनों की महौब्बत दवा का काम करती है। दुनिया ने भले ही साथ छोड़ दिया हो मगर उसके वालदेन हमेशा उसके साथ थे। ना तो वह कभी थके और न ही कभी हारे थे।
मगर इन्सान होने के नाते तकलीफ होना लाज़मी था। किसी भी चोट या जख्म का दर्द उन्हे भी होता था। तकलीफ होती थी। खुद से ज्यादा अपनी बेटी के लिये। फिर भी उन्हे सही वक्त का इन्तजार था।
हालात जैसे भी हों मगर अकेला पन एक ऐसी बीमारी है जो घुन की तरह घुस कर अन्दर-ही-अन्दर खोखला करती रहती है। बहुत हो गया था। अकेले घर लौट कर खाली दीवारों को देखना। उसके वालदेन और वो, न रिश्तेदारों का आना न पड़ोसियों का। सबने साथ छोड़ दिया था। ऐसे में हिम्मत रखते हुये भी दिल का टूटना लाज़मी था।
मगर अब फिज़ा अकेली नही थी। सुबह-सुबह ये खबर उसे अखबार में पढ़ने को मिली थी। बहुत सहारा मिला था उसे इस खबर से, खास कर ज़हनी तौर पर। आज ही एक जानी मानी एक्ट्रैस ने ट्यूटर पर ट्यूट किया था- "हम फिज़ा के साथ हैं। जब भी उसे हमारी जरूरत होगी हम जरुर साथ देगें। हमें नाज़ है ऐसी औरतों पर जो अपने ह़क के लिये दूसरों का सहारा नही लेतीं खुद कफन बाँध कर निकलती हैं।"
इस बात से फिज़ा समेत उसके वालदेन भी गदगद हो उठे थे। उन्हे लगने लगा था वो अकेले नही हैं। कोई तो है जो उनके साथ है। और जल्दी ही बाकि लोग भी आगे आयेंगे। उन्हे समझेंगे, कि हम इस्लाम को बदनाम नही कर रहे हैं बल्कि वो मज़लूम मुसलमान औरतों को इन्साफ दिला रहे हैं। जिन लोगों ने इस्लामेंपाक को अपनी रवायतों में ढ़ालने की कोशिश की है अल्लाह की नज़र से बचा हुआ नही है। उन्हें कभी माफ नही किया जायेगा।
औरतों को भी इज्जत से रहने का ह़क है। फिर चाहे वह किसी भी जाति या मजहब की हों। हिन्दू हों या मुसलमान, सिख हो या ईसाई, इससे फर्क नही पड़ता। फर्क पड़ता है उनके अहज़ान से। वह खुश है या नही। अपनी जिन्दगी को जी रही है या फिर काट रही है। कहीँ ऐसा तो नही उसके साथ जाने-अनजाने कोई नाइन्साफी हो रही हो, जो हमें पता ही न हो?
फिज़ा कुछ दिन के लिये अपने ननिहाल चली गयी थी और साथ में शबीना भी। शबीना के भाई उन लोगों को जबरदस्ती अपने साथ ले गये थे, ये कह कर कि कुछ दिन वहाँ रहोगी तो माहौल बदलेगा दिल और हो जायेगा। बेशक शबीना ने मना किया था मगर उन्होनें एक नही सुनी थी।
मुमताज खान अपने ड्राइंग रूम में बैठे थे। तभी एक पत्थर आकर उनके खिड़कियों की काँच से टकराया। दरदरा कर पूरा-पूरा काँच चूरा-चूरा हो गया। उन्होने उठ कर देखा। वहाँ कोई भी नजर नही आया। वापस लौट कर जमीन पर देखा। वहाँ पर एक पत्थर पड़ा हुआ था और उस पत्थर के साथ कागज़ का एक पुरजा बँधा था। उन्होने झट से उसे उठा कर खोला। उस पर बड़ा-बड़ा लिखा था- "नामुराद इन्सानों! अल्लाह पाक से डरो, उसके फैसले की तौहीन मत करो। अभी भी वक्त है, सुधर जाओ। नही तो अन्जाम भुगतने को तैयार रहो।"
कागज़ को पढ़ते ही मुमताज खान सकते में आ गये। उनको समझते देर नही लगी ये किसने करवाया होगा? एक तरफ उनका खून भी खौल रहा था तो दूसरी तरफ वह तर्सजद़ा भी थे। उन्हे डर था तो बस फिज़ा के लिये। उसकी जान को खतरा था जो लगातार बढ़ रहा था। आखिर वह लोग इतनी नीचता पर उतर आयेंगे उन्होने सोचा भी नही था? उनकी हिमाकत को देख कर एक बारगी तो वह काँप गये थे। फिज़ा के लिये उनकी चिन्ता बढ़ने लगी थी। कैसे वह अकेली निकल पायेगी सड़क पर? जब कोई इन्सान घर पर हमला करवा सकता है तो बाहर क्या चीज है?
मुमताज खान सारी रात सो नही पाये। करवटे बदलते रहे और सोचते रहे। उन्होनें कई बार सोचा अमान को फोन लगा लें फिर यह सोच कर खामोश हो गये खामखाहँ उसकी पढ़ाई में रूकावट आ जायेगी। जो वह हरगिज नही चाहते थे।्
पता नही कौन सी मनहूस घड़ी थी। जब से फिज़ा का निकाह हुआ था तभी से कोई- न- कोई बात को लेकर उन सब की जिन्दगी नासूर बन गयी थी। अब उसके तलाक के बाद तो जैसे उनकी जिन्दगी ही किसी ने लील ली हो। वैसे भी आज रात वह घर पर अकेले थे। फिज़ा तो अपनी अम्मी के साथ ननीहाल गयी हुई थी। कई बार शबीना के भाईजान ने बुलवाया था ये कह कर कि दो-चार दिन को आ जाओ, दिल और हो जायेगा। मगर ऐसे हालात के चलते ऐसा करना मुमकिन नही हो पाया था। उनकी परेशानियों को देखते हुये फिज़ा के मामू जान खुद ही आ गये थे उनको अपने साथ ले जाने और फिर वह मना नही कर पाये थे।
क्रमश:



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