भाग 33
माना कि जिस तरह एक बच्चे की परवरिश में लाड- प्यार के साथ-साथ थोड़ी सख्ती की भी जरुरत होती है उसी तरह परिवार को चलाने में भी इन दोनों ही चीजों की जरुरत होती है। मगर अफसोस सिर्फ इस बात का है, यहाँ भी औरत एक कठपुतली की तरह ही रही है। जो औरत खुद को कुर्बान करने से इन्कार कर दे या खुद से महोब्बत करने की सोच ले उसे फौरन औरत जाति से बाहर धकेल दिया जाता है।
आज फिज़ा के मुकदमें की, शहर की निचली अदालत में पहली सुनवाई थी। मुमताज खान, शबीना और फिज़ा वक्त से पहले कोर्ट पहुँच गये थे। वकील साहब कुछ सलाह मशवरें में लगे थे।उन्होनें कहा-
"फिज़ा, आपको कोर्ट में जज के सामने सब कुछ बताना पड़ेगा। शायद वो भी जो आप सहते-सहते भूल गयीं हो? ऐसा करना हमारे केस के लिये फायदेमंद रहेगा।" वकील ने अपनी वकालती नजरिये से राय दी थी।
"नही, वकील साहब उन लोगों ने जो कुछ भी किया है हमारे साथ, सब कुछ बताएंगे हम, मगर सिर्फ सच ही, झूठ हम नही बोल सकते।"
फिज़ा ने एक भी झूठा वयान देने से साफ इंकार कर दिया था। उसने पहले ही कह दिया था कि 'केस के मुताल्लिक कोई भी बात ऐसी नही होनी चाहिये जो तकलीफ देह हो। वह गुनाहगार को सज़ा दिलवाना चाहती है गुनाह करना नही चाहती।'
हलाँकि वकील साहब का भी इरादा झूठ बुलवाना नही था। वह तो बस इतना चाहते थे कि फिज़ा केस जीत जाये और वो भी इतने बड़े केस के जीते हुये वकील कहलायें। वो जानते थे कि वकालत का पेशा हमेशा से बदनाम रहा है। चाहे वह कितना ही ईमानदारी और सच्चाई से लड़ा जाये।
खान साहब उसूलों के एकदम पक्के थे। उनकी इज्ज्त समाज में बहुत थी। वह बेटी के अहज़ान से अहज़ानजदा थे। नही तो उन्होने कभी भी कोर्ट कचहरी के चक्कर नही लगाये थे। ये दूसरा इत्तिफाक था। पहला तो ज़मीन का मुकदमा था जो चल रहा था लेकिन वो सिर्फ उनके लिये एक मुकदमा भर ही था जिसमें उनकी इज्जत दाँव पर नही लगी थी और न ही परिवार अहज़ान जदा था। दूसरा अब ये। जमीन के मुकदमें की तो कोई बात नही थी, मगर इसने उनकी कमर तोड़ दी थी। अगर बेटी की बात नही होती तो वह झेल जाते।
उनकें जानिब से सारी तैयारियाँ मुकम्मल हो चुकी थीं। खान साहब वकील के साथ कार्यवाही में लगे थे, फिज़ा और शबीना हेयरिंग रुम के बाहर बैंच पर बैठे थे।
आरिज़ अपने अब्बू मियाँ और भाईजान के साथ अन्दर दाखिल हुआ। वह फिज़ा को देखते ही तिलमिला गया। तिलमिलाने की अब तक तो बहुत सारे अस्बाब इकटठे हो गये थे। उनमें से एक सबसे बड़ा अस्बाब वो खुद थी जिसने उसके सामने खड़े होने की जुर्रत की थी। आवाज़ इतनी बुलन्द की थी कि उसका खानदान ही नही पूरा शहर सुन रहा था। फिर तो उसकी तिलमिलाहट बिल्कुल जायज थी। जहाँ एक तरफ उनके अनगिनत मुरीद थे वहीँ उन्ही के घर की रही दुल्हन उनको बेइज्जत कर रही थी। ये उनके बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
वह धीरे-धीरे उनके करीब आ गया था। फिज़ा ने अपना दुपट्टा संभाला और थोड़ी नमुतमईन सी हो गयी। शबीना ने उसे देखते ही फिज़ा को अपनी आड़ में कर लिया था। वह उसके चेहरे के तास्सुरात को भाँप गयी थी और उसे लग रहा था उसका इरादा ठीक नही है। वह नही चाहती थी कि वह ऐयाश उसकी बेटी को कोई नुकसान पहुँचा पाये।
उसने बहुत करीब से फिज़ा को देखा और मुस्कुरा दिया। उसकी हँसी बड़ी ही डरावनी और फ़ुहश थी। उसे देख कर ऐसा बिल्कुल नही लगा वह एक रसूखे खानदान से है। अगर उसकी नजर से देखा जाये तो कोई भी किसी को अदालत में घसीटेगा तो बदले में उसका यही रियैक्शन होगा।
फिज़ा ने कभी नही सोचा था वह उसे इस चेहरे में देखेगी। वह अपने जानिब से सही थी और आरिज़ अपनी नज़र में। क्यों कि फिज़ा वैसी दुल्हन नही थी जैसी हर ससुराल वाले चाहते हैं।
शबीना को बहम हुआ जैसे उसने फिज़ा को छूने की कोशिश की है। फिज़ा थोड़ा सा सहम गयी थी, फिर अगले ही पल वह उस डर और मायूसी से बाहर आ गयी थी।
आरिज़ कुछ बुदबुदाता हुआ निकल गया था। फिज़ा को लगा जैसे उसने कहा- "चेहरा बिगाड़ने में मुश्किल से बीस रुपये का खर्च आता हैं।"
फिज़ा पहले तो बुरी तरह डरी फिर सभंली। उसने खुद से कहा- "हमें हिम्मत से काम लेना है। अब ये तो होगा ही, और फिर अभी तो शुरुआत है। आदमी जब कुछ गलत करता है तब उसके अन्जाम के बारे में नही सोचता है। फिर जब उसे अपने किये का जवाब मिलता है तो वह बौखला जाता है। अभी से हम कमजोर पड़ गये तो आगे की लड़ाई कौन लड़ेगा?"
खुद को खुद ही मुतमईन करके वह हल्का महसूस कर रही थी।
वकील साहब और मुमताज खान आ चुके थे। उन्होनें आरिज़ की इस जुम्बिश को देख लिया था। जिसे देख कर खान साहब तैश में आ गये थे। लेकिन वकील ने समझाया- 'मुझ पर छोड़ दें, यकीन रखें और खुद पर संयम रखें।'
सुनवाई के दौरान वकील ने फिज़ा की हिफ़ाजत को लेकर कई सवाल उठाये और उसकी हिफ़ाजत की माँग की। जिसे स्वीकार करते हुये कोर्ट ने एक महिला पुलिसकर्मी को उसकी हिफ़ाजत के लिये मुकररर कर दिया था।
चौबिस घण्टे एक पुलिसकर्मी उसके साथ रहने लगी। जब डियूटी बदलती तो दूसरी आ जाती। बारी-बारी से पुलिस की हिफ़ाजत उसे मिलने लगी थी।
मुमताज खान ने जो एफ.आई.आर. दर्ज कराई थी उस पर कार्यवाही शुरू हो चुकी थी।
जल्दी ही इस घटना के चर्चाएं दूर-दूर तक फैलनें लगी थी। कई न्यूज चैनल ने इसे जोर-शोर से दिखाना शुरु कर दिया था। अब ये एक छोटे से शहर की ही खबर नही थी बल्कि मुल्क स्तरिये बड़ी खबर बन चुकी थी और पूरे मुल्क में ये आग की तरह फैलने लगी थी। हर किसी की जुवान पर बस इसी की चर्चा हो रही थी। ये कोई छोटी-मोटी बात नही थी। एक मुसलमान औरत ने अपने ह़क की आवाज उठाई थी। जमाने से हो रहे औरतों पर जुल्मों के खिलाफ लड़ने की हिम्मत की थी। औरतों की हिम्मत को निचोड़ने के लिये तुरुप के तीन इक्के होते हैं मर्दों के पास। पहला तलाक, दूसरा ज़हेज और तीसरा तालीम से अलैदा रखना।
कुछ शरीफ और आदिल लोगों ने इसकी हिम्मत की तारीफ भी की और इस कोशिश को बढ़-चढ़ कर सराहा भी था। बहुत जल्दी ही फिज़ा की हिम्मत और बेखौफ आवाज़ उठाने का जज्बा अखबारों के पहले पेज की खबर बन गयी थी। फिज़ा रातों रात जैसे स्टार बन गयी थी। फिज़ा को लड़ाई के साथ-साथ मिली हुई शोहरत अच्छी लगने लगी थी। तीन तलाक और घरेलू हिंसा के खिलाफ इतनी हिम्मत से लड़ना हर किसी के बस की बात नही थी।
मजलूम औरतें इसे देख कर फिज़ा की हिम्मत की तारीफ करने लगी थी। उन्हें ऐसा करते देख कर उनके शौहर की रातों की नींदे उड़ने लगी थी। उन्होंने तय किया कि जल्दी ही इस तूफान को न रोका गया तो ये तूफान उनके घरों को भी तहस-नहस कर देगा। इसीलिये उन्होनें सिर उठाने से पहले ही उसे कुचलना शुरू कर दिया था। उनके शौहर नही चाहते थे कि उनकी बीवीयाँ भी आगे चल कर ऐसी हिमाकत करें। इसलिये वो अपनी बीवीओं को डराने लगे थे। बेशक औरतें अपने शौहर के सामने चुप रहती थी मगर अन्दर ही अन्दर उनके अन्दर भी हिम्मत भरने लगी थी। उनके दिल में भी एक उम्मीद की लौ जगी थी।
मगर ये सब ज्यादा दिन नही चल सका। 'शरआ के नियमों के खिलाफ है ये' ऐसी दलीलों ने जोर पकड़ लिया। उस खानदान के हिमायतियों ने बगावत शुरू कर दी। आला अदीबों ने आपस में सलाह मशवरा किया। दरगाह पर लम्बी-लम्बी बैठके हुईं और उन बैठकों में ये तय किया गया कि ये शरआ के नियमों के खिलाफ ही है। इसलिये इसे रोकना होगा। अगर ऐसा नही किया गया तो इस्लामे पाक की तौहीन होगी। फिर सभी की रजामंदी मिलने के बाद ये तय हुआ कि इस पर लगाम कसना कितना जरुरी है?
फिज़ा झूठ बोलती है। उसे तलाक उसकी बदतमीजियों की बजह से दिया गया। उसे जरा भी तमीज़ और बड़ो का लिहाज नही। नकचढ़ी और बदमिज़ाज है। वह हमारे खानदान की दुल्हन बनने के लायक नही थी। उसके अन्दर मर्दाना जोश है। वह घर में रहना ही नही चाहती थी। सड़को पर मर्दों के साथ काम करना चाहती थी जिसे हमारे घर के उसूलों ने गंवारा नही किया। वरना हमारा खानदान औरतों की इज्जत और हिफाज़त करना अच्छी तरह से जानता है।
ऐसी दलीलें दी गयी थी। वहाँ पर तमाम अदीब लोग मौजूद थे। सबने एक साथ एक ही फैसला सुनाया था। जो उनके ज़ानिब से सही था और उसकी इज्जत की जानी चाहिये।
और फिर, उस रात मग़रिब की नमाज़ के बाद इस्लामिक इदारा से एक ऐलान जारी कर दिया गया। जिसमें फिज़ा और उसके वालदेन से उनके बहुत सारे अधिकार छीन लिये गये।
पहला- कौम के अन्दर उनका हुक्का पानी बन्द रहेगा।
दूसरा- कोई भी मुसलमान उनसे सम्बंध नही रखेगा।
तीसरा - इस्लाम से बाहर किया जाता है।
चौथा - कब्रिस्तान में उन्हे जगह नही दी जायेगी।
पाँचवा - उन्हे मस्जिद में नमाज़ पढ़ने की इजाजत नही होगी।
इस ऐलान से खान साहब और परिवार को बहुत बड़ा झटका लगा था। हिम्मत टूट गयी थी और शायद ये हिम्मत तोड़ने के लिये ही किया गया था। इसका अन्जाम और भी बुरा हुआ। इस ऐलान ने तहलका मचा दिया था। पूरा का पूरा मुस्लिम समाज ऐलान की पैरवी करने लगा था। पहले जो लोग उनकी तारीफ कर रहे थे, एकदम गिरगिट की तरह रंग बदलने लग गये थे। सबने ऐलान की इज्जत करते हुये उनके साथ उठना-बैठना, खाना-पीना और बोल-चाल बंद कर दी थी। किसी का कोई नाता नही था उनके साथ। वो लोग बिल्कुल अकेले पड़ गये थे। रिश्तेदार भी अपना दामन बचा कर निकलने लगे थे। ले देके एक फिज़ा की नुसरत फूफी और एक चमन खाला ही थीं। जो कभी कभार आती रहती थीं। जिनके आने से शबीना का भी इज़्तिराब थोड़ा कम हो जाता था।
क्रमश: