मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 20 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

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मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 20

भाग 20
निकाह को पूरा एक महीना गुजर गया था। अब जाके फिज़ा को वहाँ के तौर-तरीके, रवायतें और माहौल समझ में आया था। हर वक्त मेहमान खाना मेहमानों से भरा रहता। दिन भर दुआयें माँगने वालों का ताँता लगा रहता। आरिज़ के अब्बू जान जब मेहमान खाने से फारिग हो जाते तो दालान में आकर बैठ जाते। कभी-कभी कुछ नजदीकी लोगों की महफिल वहीं तख्त पर जम जाती थी। तब घर की तीनों दुल्हनों को बाहर आने की मनाही होती थी। वैसे अफसाना भाभी साहब जरूरी काम हो तो निबटा लिया करती थीं। उनके सिर से दुपट्टा कभी नही हटा। वह दुपट्टे को बिल्कुल नकाब की तरह ही पहनती थीं। मगर फिज़ा को भी बेपर्दगी की परवाह थी। शबीना ने बताया था- 'कि ससुराल और मायके में बहुत फर्क होता है। वहाँ आपको तमीज और कायदे से रहना होगा। बड़े, बुजुर्गो की बात माननी होगी। उन्हें इज्ज़त बख्शनी होगी। निकाह के बाद लड़कियाँ बड़ी हो जाती हैं। हँसी-ठिठोली वक्त-बेवक्त अच्छी नही होती। इन सभी बातों का ख्याल उसे रखना होगा।"
फिज़ा ने अपनी अम्मीजान की हर राय को तबज्जो दी थी। बस एक बात की तल्खी उसे खलती थी, यहाँ वह खुल कर हँस नही पाती थी। फिर भी ख्यावों के महल खड़े होने लगे थे। उसने दिल-ही-दिल में तय कर लिया था कि अपने जानिब से वह सब उनकी मर्जी का ही करेगी।
नई नवेली दुल्हन होने के नाते फिज़ा को कोई खास तबज्जो नही मिली थी। न ही नुसरत फूफी ही दिखाई दीं थीं। कभी-कभार बच्चे जरुर कमरें में आकर बैठ जाते थे। एक बार फिज़ा ने उनसे घर के लोगों के बारें में जानने की कोशिश भी की थी, मगर उसे कोई खास सफलता हासिल नही हुई।
उस रात अटैची वाली बात को लेकर फिज़ा ने कई मर्तवा सोचा कि आरिज़ से इसका जिक्र करे, फिर माहौल को देख कर उसकी हिम्मत जवाब दे गई। न जाने वह उसके बारें में क्या सोचे, फिर खामखाहँ बात का बतंगड बनेगा। अगर दुबारा कुछ ऐसा हुआ तो वह जरुर आरिज़ से बात करेगी।
अम्मी जान की शख्सियत भी अजीबोग़रीब थी। उनका रुझान घर में कम ही रहता था। मगर भाभीयाँ उनके इस व्यवहार से खुश रहती थीं। कम से कम वो उनकी दखलअंदाजी से बच जाती थीं। मगर फिज़ा को ये सब बड़ा अटपटा सा लगता था। उसने हमेशा अपनी अम्मी जान को भरपूर इज्जत बख्शी थी। और यही उम्मीद और चाह उसे यहाँ भी थी। बावजूद इसके आरिफ़ की अम्मी जान गोश्त पकानें में माहिर थीं। जब वह दिल से किचन में काम करती थीं उस दिन सब किचन से बाहर ही रहते थे। ये उनका हुक्म था। वैसे घर का पूरा काम नौकरों के हवाले था। इसलिये अफसाना, फरहा और फिज़ा तीनों दुल्हनों का काम सिर्फ नौकरों देख -रेख करना ही होता था। फिज़ा को अभी कोई खास काम नही सौंपा गया था। इस बात से वह खुश थी उसके सी. ए. के इम्तिहान करीब थे और उसे शिद्दत से मुतालाह करने का मौका मिल जायेगा।
जब तक आरिज़ घर में रहते यानि देर रात तक जागते तो फिज़ा किताब उठा भी नही पाती थी। आरिज़ को फिज़ा का किताबों से उलझे रहना बकवास काम लगता था। हो सकता है उसकी खुद की तालीम इतनी नही थी जो वह उसकी कीमत समझ सकता। कई बार उसने इस पर नाराजगी भी जताई। फिज़ा ने रिश्तों का तालमेल बैठाते हुये, अपने मुतालाह का वो वक्त चुना जब किसी को कोई एतराज न हो। सुबह के वक्त बेहतर मौका होता था पढ़ाई का। सो उसने इस मौके को कभी हाथ से नही जाने दिया। बगैर कोचिंग के उसने डट कर पढ़ाई की।
दो दिन बाद उसका पहला पेपर था। जी जान से तैयारी करने के बाद भी उसे लग रहा था कि कुछ छूट गया है। मगर यहाँ कोई भी इन्सान ऐसा नही था जो उसे तसल्ली दे पाता। ऐसे वक्त में उसे अपनी अम्मी की बहुत याद सता रही थी। मगर मुमताज खान ने सख्त हिदायत दे रखी थी 'कोई जरूरत नही है बेटी के घर रोज-रोज फोन करने की या दखल अन्दाजी करने की, उसे अपनी जिन्दगी जीने दें।' यही सोच कर शबीना दिल मार कर रह जाती थी। हाँ अमान जरुर, जब तक फिज़ा से बात नही कर लेता उसे चैन नही आता था। अब उनके बीच झगड़ा नही होता था। न जाने क्यों शादी होते ही हर रिश्ते में कुछ-न-कुछ बदलाव आ ही जाता है। फिज़ा के दिल में अमान के वास्ते घड़ो प्यार उमड़ने लगा था। उसकी याद में आँखें भर आतीं। ये शादी के बाद परायेपन के अहसास का नतीजा था।
आज दोपहर दो बजे उसे इम्तिहान के लिये जाना था। सुबह जल्दी उठ कर उसने फ़ज्र की नमाज़ अदा की। उसके बाद किताबें लेकर बैठ गयी। उसने आरिज़ की तरफ देखा वह गहरी नींद सोने में मसरुफ थे। उसने दिल ही दिल में सोचा- "काश ! कितना बेहतर होता? अगर आरिज़ भी उसको तबज्जो देते।
किचन से फरहा भाभी जान और अम्मी जान की आवाज़ें आ रही थीं। जिसकी बजह से पढ़ाई में ध्यान लगा पाना मुश्किल हो रहा था। उसे लगा शायद नुसरत फूफी जान भी वहाँ थीं। चूकिं उसके कमरें से किचन दूर था इसलिये उसने सुनने की कोशिश की। उसी के बारे में बातचीत हो रही थी। ये तो समझ में आ रहा था। अम्मीजान के कान के झुमके का एक घुँघरु निकल गया था। उसी बात पर वह बिगड़ रही थीं- "पत्तर के माफिक जे़वर देने की क्या जरुरत थी? अपनी लड़की को तो हर वालदेन देते ही हैं इसमें नया क्या है? नुसरत तुमने जैसा बोला था वैसा कुछ भी नही निकला। जरा कमरें में जाकर देखो किताबों से दीदे जोडे़ पड़ी होगी।" अम्मी जान अपनी नाराजगी जाहिर कर रहीं थीं।
फिज़ा समझ गयी उसी की बात हो रही है। वह सन्न रह गयी। उसकी हिम्मत नही पड़ रही थी कि किचन में जाये, मगर नुसरत फूफी को वहाँ देख कर कुछ हिम्मत मिली थी। जब वह वहाँ गयी तो नुसरत फूफी का चेहरा झक सफेद हो गया। उन्होने कहा- "फिज़ा आप अन्दर जाइये।" फरहा भाभी जान भी वहीँ थी। वह मुस्कुरा रही थीं। उनके चेहरे से लग रहा था वह वहाँ खड़ी मजे ले रही थीं। फिज़ा को समझ नही आया वह क्या करे। इम्तहान का वक्त भी हो रहा था। वह बगैर कुछ कहे अपने कमरें में आ गई। चुपचाप तैयार होकर बुर्का ओढ़ लिया और नकाब पहन कर तैयार हो गयी।
'आरिज़ तो अभी भी सो ही रहे थे। स्कूटी भी नही थी यहाँ उसकी। वह कैसे जायेगी? नई दुल्हन का इस तरह अकेले बाहर निकलना क्या ये लोग मंजूर कर पायेंगे?' इस तरह के कई सवाल उसके जहन में उथल- पुथल मचा रहे थे। मगर वह हिम्मती हमेशा से थी। सोचा कोई-न-कोई रास्ता निकल ही आयेगा। इस वक्त सिर्फ और सिर्फ इम्तिहान के बारें में सोचना है।
"अम्मी जान! क्या ड्राइवर चाचा हमें हमारे सैण्टर तक छोड़ आयेंगे?" फिज़ा ने झिझकते हुये पूछा था। जवाब में फरहा भाभी जान हँस दीं। उनकी हँसी बड़ी ही फूहड़ थी। उनकी हँसी से तिलमिलाई अम्मी जान तुनक कर बोली- " दुल्हन आप बगैर इजाजत के फैसले खुद ले लेतीं है? क्या आपके वालदेन ने यही तालीम दी है आपको?" फिज़ा बुझ सी गयी। नुसरत फूफी को इस तरह का बर्ताव बुरा लगा और वह सिर नीचा किये वहाँ से चली गयीं। वहाँ का माहौल बेहद घुटन भरा था। वह कुछ कहती इससे पहले ही अफसाना के शौहर और आरिज़ के बड़े भाई जान बीच में ही बोल दिये। उस वक्त वह आइने के सामने खड़े बाल संवार रहे थे- "अम्मी जान मैं दरगाह ही जा रहा हूँ। रास्तें में दुल्हन को छोड़ दूँगा।"
अम्मी जान ने बगैर कुछ कहे चेहरा घुमा लिया था। फरहा ने तिरछी नजर से उन दोंनों को देखा। उसकी आँखों ने बगैर कहे बहुत कुछ कह डाला।
फिज़ा कार की पिछली सीट पर बैठी हुई थी। बेशक यह मैनर्स के खिलाफ था मगर रिश्ते के वकार को देखते हुये उसे ऐसा करना पड़ा।
उसने देखा भाई जान ने अपने सामने लगे शीशे को कुछ इस तरह तिरछा कर लिया था जिससे उन्हें फिज़ा का चेहरा साफ दिखाई देता रहे। उनकी इस जुम्बिश से उसने खुद को नामुतमईन महसूस किया और ध्यान किताब पर लगाने की कोशिश करने लगी।
"ज़हे नसीब!" वह गाड़ी ड्राइव करते -करते ठंडी साँस लेते हुये बुदबुदाये। इस बीच उन्होंने कई बार अपने बालों को, अपने हाथों की कंघी से संभाला था। फिज़ा को ये भी महसूस हुआ जैसे वह दिल ही दिल में कोई गाना गुनगुना रहे हैं।
"भाई जान आपने कुछ कहा क्या?" फिज़ा ने पीछे से पूछा।
"नही तो,, नही कुछ नही" वह सकपका कर बोले।
इम्तिहान के बीच में इन सब बातों का आना एक रुकावट जैसा था, जिसे वह हरगिज़ नही चाहती थी। लेकिन उसके अब्सार के आगे फरज़ाना भाभी साहब का जिम्मेदराना चेहरा घूम गया। कितनी अच्छी औरत को या खुदा! कैसा शौहर दिया है तूने? वह इसके आगे कुछ और सोच पाती इससे पहले उसका इग्सामनेशन सैंटर आ गया था।
वह बगैर उनकी तरफ निगाह डाले कार से उतरी और - "शुक्रिया भाई जान" कह कर जल्दी से अन्दर दाखिल हो गई। उसके लिये आज का तज़ुर्बा बड़ा ही तकलीफ़देह था। खासकर अफसाना भाभी जान के लिये।