Mujahida - Hakk ki Jung - 19 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 19

भाग 19
पलंग के चारों तरफ गोलाई में गुलाब और सफेद चम्पा के फूलों की लड़ियाँ लगाई गयी थीं। उसके झरोखों में सेे पलंग पर पड़ी हल्की गुलाबी चादर थोड़ी-थोड़ी ही दिख रही थी, क्यों कि पलंग पर भी बहुत सारे गुलाब बिखरे हुये थे। कमरें की दीवारों पर भी बड़े-बड़े फूलों के गुच्छे लगाये गये थे। वह कमरा न होकर पूरा गुलशन था जो अपनी ही नही बल्कि महोब्बत की महक से भी महक रहा था। लेकिन आज खुद को ही वहाँ पर देख कर लाज से गढ़ गयी। लाज से ज्यादा आने वाले लम्हों का दीदार था जो वस खड़ी-खड़ी अन्जाने में या जान बूझ कर कर रही थी। धौकनी की तरह चल रही साँसों में गुदगुदी सी घबराहट थी। जिसे वह महसूस कर खुद से ही छुपा रही थी। फिर वह धड़कते दिल से अपने शौहर का इन्तजार करने लगी।
उसके जहेज़ का काफी सामान वहाँ था। उसके कपड़े-लत्तों की अटैची जिसे उसकी अम्मी जान ने बड़ी चाहत और दिल से भरा था, ढ़ूढने लगी। जिसमें उसके मायके का सारा जेवर भी था। उसे कहीँ दिखाई नही दी। वैसे उसे जेवर की कोई खास जरूरत नही थी मगर अम्मी जान ने हिदायत दी थी कि ससुराल में जाते ही ज़ेवर घर के किसी भी जिम्मेदार इन्सान को सौंप दे। बस वह सोच ही रही थी कि किसी ने दरवाजा खटकाया। उसने अन्दर से ही कहा - "कौन है? अन्दर आ जाइये।"
उसने देखा, कोई था जो दरवाजे पर ही उसकी अटैची रख कर चला गया था। उसने देखने की कोशिश की तो कोई नज़र नही आया। उसने अटैची को अन्दर सरका लिया चूंकि वह बड़ी और भारी थी तो उठा पाना संभव नही था। लेकिन किसी का बगैर कुछ कहे चले जाना कुछ अजीब सा था।
गुलाबी रंग का प्योर जारजैट का शरारा कुर्ता और भारी जेवर वह अभी भी पहने हुई थी। जिसे पहना कर उसे सुहागरात के लिये तैयार किया गया था। वैसे तो किसी ने भी तैयार होने में उसकी मदद नही की थी, सिर्फ फरहा भाभी जान उसे सलाह देकर चली गयीं थी कि उसे क्या पहनना है?
सुबह से वह अकेली ही तो बैठी थी। सिर्फ रस्मों को छोड़ कर, बाकि वक्त किसी से उसकी कोई खास बात नही हुई थी। आरिज़ की अम्मी जान बहुत थकी हुई थीं शायद इसीलिए उन्होने भी फिज़ा से कुछ खास बातचीत नही की थी।
यहाँ का माहौल उसके घर जैसा बिल्कुल नही था। उसे अकेलेपन की आदत नही थी।
उसका दिल चाह रहा था जल्दी से आरिज़ कमरे में आये। उसे प्यार करे। उसे देख कर खुश होये। उसकी तारीफ़ करे। उसे अपने शौहर का बेतावी से इन्तजार था। उसने कई बार अहसासों में आरिज़ को अपने बिल्कुल करीब महसूस किया और लाज से दोहरी हो गयी।
सुहाग की सेज पर एक दुल्हन का अपने शौहर का इन्तजार करना लाजमी था। एक अजीब सी धुक-धुकी उसके दिल में हो रही थी। जरा सी आहट पर उसका दिल थर्रा जाता और कल्पनाओं की रूमानियत से वह सुर्ख हो जाती।
आधी से ज्यादा रात बीत चुकी थी। अभी तक आरिज़ नही आये थे। वह सारी रात सोफे पर अकेले बैठी रही और उसका इन्तजार करती रही। उसे बैठे-बैठे झपकी आ गयी थी। फ़ज्र की नमाज़ के साथ ही उसकी आँख खुली तो वह हड़बड़ा कर उठ बैठी- "आरिज़ कहाँ हैं? वह क्यों नही आये? सोच कर वह घबरा उठी। वह सोच ही रही थी कि आरिज़ कमरें में दाखिल हुआ। चूकिं इन्तार करते-करते फिज़ा सोफे पर ही सो गयी थी। उसकी आहट से सकपका सी गयी। आते ही आरिज़ ने कमरे का जायजा लिया और उसे सोफे पर सोता हुआ देख कर अपनी बाहों में भर लिया। आते ही उसने, उसके होठों पर अपने प्यार की मुहर लगा दी। फिज़ा लाज से दोहरी हो गयी। वह खुद में ही सिमटने लगी। अपने शौहर से वह कोई भी सवाल नही कर पाई। वो रात भर कहाँ रहा? क्यों उसने अपनी बीवी के बारे में नही सोचा? बगैहरा..बगैहरा।
सुहाग की रात में एक शौहर का अपनी बीवी पर महोब्बत लुटाना कोई नई बात नही थी। फिर आरिज़ तो उस पर पहले से ही बुरी तरह फिदा था। बावजूद इसके वह देर रात तक कहाँ रहा? ये एक सवाल था जो उसे बेचैन कर रहा था। कहीँ न कहीँ उसका दिल उन्ही सवालों में अटका हुआ था। आरिज़ ही नही उस घर के हर इन्सान का व्यवहार कुछ अजीब सा था। मगर आरिज़ के आते ही वह सब भूल गयी। उसे नही पता था यह उसकी सबसे बड़ी भूल है। उसे ह़क था पूछने का मगर उसने लज्जावश नही पूछा। औरत का दिल न जाने खुदा ने कैसा बनाया है? कि उसमें नश्तर भी चुभो दो और फिर महोब्बत जता कर माफी माँग लो तो वह सब भूल जाती है।
आरिज़ ने कमरें में आते ही धीमी-धीमी आवाज़ में म्यूजिक चला दिया। ये पुराने दिल को छू लेने वाले कालजयी गीत थे। जो बेहद रोमांटिक थे। उसके बाद उसने जेब से एक रूम फ्रैशनर निकाला और पूरे कमरें में स्प्रे कर दिया। पूरा कमरा महक से खिल उठा। जिससे कमरें का माहौल बेहद रोमांटिक हो गया था। उसने फिज़ा का हाथ पकड़ कर बैड़ पर बिठाया और फिर से एक बार उसके माथे को चूम लिया। उसने फिज़ा से कहा कि- " आप ये भारी-भरकम जेवर उतार दे और आराम से बैठ जाये। तब तक मैं भी चेन्ज करता हूँ।" फिज़ा को उसकी बात से कुछ राहत महसूस हुई। रात भर जिन सवालों का तूफान उसके ज़हन में हलचल मचा रहा था बेसाख़्ता शान्त हो गया था। आरिज़ के लिये उसके दिल में जो तस्वीर बनी थी आहिस्ता-आहिस्ता रंग छोड़ने लगी थी। बेशक फिज़ा का दिल एक फिल्मी सीन का तलवगार था जहाँ दुल्हन सुहाग की सेज पर अपने शौहर का इन्तजार करती है और उसका शौहर आकर उसके पास बैठता है। उसके हाथ में गुलाब का फूल होता है फिर वो अपनी जेब से तोहफा बतौर कुछ निकाल कर देता है। वह धीरे-धीरे एक-एक कर अपनी बीवी का जेवर उतारता है
आरिज़ ने भी बाथरुम में जाकर नाइट सूट पहन लिया था। फानूस की झीनी-झीनी रोशनी में फिज़ा किसी हूर की तरह दमक रही थी। आरिज़ धीरे से उसके पास आकर बैठ गया। फिज़ा का दिल धड़क उठा। जिसे देख कर आरिज़ मुस्कुरा उठा। उसने धीरे से फिज़ा का चेहरा अपनी ऊँगलियों से उठा लिया और यूँ ही देखता रहा।
उस रोज आरिज़ ने उस पर टूट कर मोहब्बत लुटाई थी, फिज़ा भी सब भूल कर जैसे किसी नदी का तरह समुन्दर में समा गयी हो। फिज़ा सब भूल कर उसके आगोश में समाती चली गयी।
इंशा की नमाज़ की आवाज़ कानों में पड़ते ही फिज़ा की आँख खुली वह हड़बड़ा कर उठ बैठी- " उफफफ, साढ़े आठ बज गया? अम्मीजान ने बताया था ससुराल में नई दुल्हन को हमेशा जल्दी उठना चाहिये।" उसने देखा आरिज़ बेसुध सोये हुये हैं। 'क्या वह सोते रहेगें? उसे जल्दी उठने की कोई जरुरत नही है।' दिल मे ही उसने सोचा।
फिज़ा धीरे से उठी, उसे लगा आरिज़ उसे उठने से रोकेगें मगर वह तो होश में ही नही थे। वह चुपचाप नहाने के लिये बाशरूम में चली गयी।
ससुराल में आठ दिन गुज़र गये थे। इस बीच वह एक बार अपने मायके भी हो आई थी, पगफेरे की रस्म के लिये।
उस घर का माहोल कुछ अजीब सा था। फिज़ा के घर जैसा नही था। उसके घर में सभी लोग इंशा की नमाज़ के बाद बाहर दालान में एक साथ ही बैठते थे और सुबह की चाय भी एक साथ ही पीते थे। हँसी-मजाक का दौर चलता तो थमता ही नही था। उसी से दिन की शुरुआत होती थी। मगर यहाँ तो घर के सभी लोग अपने-अपने कमरों में बन्द रहते हैं। अखबार भी वहीँ पढ़ते हैं और सुबह की चाय भी वहीँ पी जाती है। तभी बात होती जब जरुरी होता। एक बात थी जो हमेशा फिज़ा को नागबार गुजरी। आरिज़ आधी-आधी रात तक जागते रहते। उनका ज्यादातर वक्त मूवी देखने और गजलें सुनने में बीतता था। सुबह जब ज़ुहर की नमाज़ हो जाती उसके बाद ही वह उठते थे। उस घर में आरिज़ क्या किसी भी मर्द को कोई काम नही था। उन्हे काम करने की जरुरत भी नही थी। दरगाह का पूरा का पूरा जिम्मा उन्ही लोगों का था। वहाँ से इतना पैसा हर रोज आता था कि उन्ही पुश्ते बैठ के खायें। इसलिये वहाँ किसी को भी विजनेस में कोई दिलचस्पी नही थी।
क्रमश:

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