मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 14 Chaya Agarwal द्वारा सामाजिक कहानियां में हिंदी पीडीएफ

Featured Books
  • You Are My Choice - 41

    श्रेया अपने दोनो हाथों से आकाश का हाथ कसके पकड़कर सो रही थी।...

  • Podcast mein Comedy

    1.       Carryminati podcastकैरी     तो कैसे है आप लोग चलो श...

  • जिंदगी के रंग हजार - 16

    कोई न कोई ऐसा ही कारनामा करता रहता था।और अटक लड़ाई मोल लेना उ...

  • I Hate Love - 7

     जानवी की भी अब उठ कर वहां से जाने की हिम्मत नहीं हो रही थी,...

  • मोमल : डायरी की गहराई - 48

    पिछले भाग में हम ने देखा कि लूना के कातिल पिता का किसी ने बह...

श्रेणी
शेयर करे

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 14

भाग. 14
फ़िजा ने लजा कर अपनी रजामंदी दे दी थी। जिसे सुन कर तो शबीना निहाल हो गयी और उसने फौरन खान साहब को जाकर ये खुशखबरी सुनाई-
"सुनिये, हमारी बेटी ने इस रिश्ते के लिये हाँ कर दी है।" शबीना ने खुश होकर ये खबर सुनाई।
"आप सच कह रहीं हैं बेगम? हम जानते थे वो इस रिश्तें से कभी इन्कार नही करेगी। अल्लाह! तेरा बहुत-बहुत शुक्र है।" खान साहब भी अपनी खुशी को जाहिर करने से नही रोक पाये थे।
"अब हमें तैयारियां शुरु कर देनी चाहियें। वक्त बहुत कम है। देख लेना ये वक्त भी पँख लगा कर उड़ जायेगा और पता भी नही लगेगा। मैं आज ही कपड़े-लत्तों की लिस्ट बनाती हूँ। और हाँ, जेवर बगैहरा का इन्तजाम अभी से करना होगा वरना मौके पर पंसद का कहाँ मिलता है?" शबीना भी फिज़ा से कम खुश नही थी। वह मन-ही-मन पूरी सूची तैयार कर रही थी-किस-किस को न्योता देना है? क्या-क्या तैयारियां करनी हैं? और अभी किस को अपनी मद्द के लिये बुलाना है बगैहरा-बगैहरा..?
"शबीना, हमें लगता है फि़जा को एक गाड़ी भी देनी चाहिये। हम उसी में विदा करेंगे अपनी बेटी को। आखिर हमारे पास जो है सब बच्चों का ही तो है? अमान मियाँ तो अपनी पढ़ाई में लगे हैं, बी टैक पूरा होने के बाद कौन सा हमारे साथ रहेंगे आकर? मुझे तो लगता है जमीन की देखभाल भी वो नही कर पायेंगे। एक न एक दिन उसे बेचना ही पड़ेगी।" खान साहब ने बड़े तल्लीनता से कहा।
"आप ठीक ही कह रहे हैं। जब तक हम हैं खेती का काम चल रहा है। फिर तो हम बेच कर पैसा अमान के नाम कर देंगें। लेकिन फिज़ा के हिस्से भी कुछ जाना चाहिये। पता नही शादी के बाद अमान का क्या रुख रहे?"
"तुम ठीक कह रही हो, हमें अपने दोनों बच्चों का ख्याल है। हम फिज़ा के लिये भी उतना ही करेगें जितना अमान के लिये। हमनें अभी उन लोगों के सामनें जब गाड़ी देने की बात छेड़ी थी, तो उन्हे कोई एतराज नही था, बल्कि उन्होने पूछा भी कि कौन सी गाड़ी देना चाह रहे हैं आप?"
"अरे उन्हे क्या कमी है गाड़ियों की। नुसरत बता रही थी तीन से चार गाड़ियां हैं उनके घर में, सब लग्जरी। फिर भला उन्हे हमारी दी हुई गाड़ी की क्या तमन्ना? वो तो उन्होंने आपका दिल रखने के लिये पूछा होगा। जाने दीजिये, हम अपनी फिज़ा को जो देना होगा बैंक में जमा करवा देंगें। ताकि उसके हाथ मजबूत रहें। अब बस तैयारियां शुरू कीजिये। उजलत में कोई भी काम करना मुनासिब नही होगा।"
"नही शबीना, उनके यहाँ एक गाड़ी हो या दस हों इससे हमें कोई मतलब नही है, हमें जो देना है सो देना है। गाड़ी देने का जिक्र तो मैं कर ही चुका हूँ अब पीछे हटना अच्छा नही होगा। अपनी बात जायेगी और इज्जत भी। हम नही चाहते हमारी बेटी को जरा भी नीचा देखना पड़े। हम अपनी बेटी को किसी तरह की कमी नही होने देंगे। आप चिन्ता न करें।"
घर में शादी की रौनकें बढ़ने लगीं। फरवरी में शादी की तारीख मुकररर हुई थी। कुल मिला कर डेढ़ महीना था। जो देखते-ही-देखते हाथ से फिसल जायेगा। अब फुरसत कहाँ थी किसी को। सभी अपने-अपने हिस्से के काम निबटा रहे थे। शबीना ने अपने मायके से कुछ करीबी रिश्तेदारों जैसे खाला और भाभी को मद्द के लिये बुला लिया था। नुसरत फूफी को भी न्योता भेजा था मगर उन्होने कहा कि शादी से दो दिन पहले ही आ पायेंगी उधर उन्हे अपने देवर आरिज़ की भी तैयारी करनी थी। वैसे उनका आना-जाना बना रहेगा।
इधर ये लोग भी शादी में किसी भी तरह की कोई कमी छोड़ना नही चाहते थे। आखिर दो खानदानों की इज्जत और उनके फर्ज का सवाल था। उनका भी खानदान रसूख वाला था तो ये भी कम नही थे।
डेढ़ महीना कब निकल गया पता ही नही लगा। वक्त तेजी से भाग रहा था। जैसे पँख लगा कर उड़ रहा हो।
शरआ की मानें तो इस्लाम में शादी से पहले लड़का और लड़की का आपस में मिलना गुनाह है, मगर वो लोग फोन पर बातचीत करने से खुद को नही रोक पाये। वैसे भी अब पहले वाला जमाना नही रहा था। लड़का -लड़की बड़ी बेतकल्लुफी से अपनी बेवाक राय दिया करते थे और अपनी पसंद की शादियां भी खूब करने लगे थे, फिर यह तो बड़ो की रजामंदी से हुई थी। फिर भी फिज़ा ने कभी ऐसा कोई काम नही किया जिससे उसके वालदेन को सुननी पड़े। एकआत बार आरिज़ ने साथ में घूमने जाने का जोर ड़ाला था जिसे फिज़ा ने सिरे से नकार दिया था। हलाकिं उसका भी दिल था कि जिसके साथ निकाह में वह जा रही है उसे जाने समझे, साथ बैठे, करीब से महसूस करे। मगर खानदान की इज्जत के मद्देनजर उसने ऐसा कभी नही किया। उसने अपने ख्वाबों को हमेशा वालदेन की इज्जत के तले ही रखा।
अक्सर जब फ़िजा अपनी पसंद-नापसंद के बारे में फरमाती तो आरिज़ बहुत तबज्जो देता और फिज़ा भी उसके सभी शौक के बारें में तहे दिल से सोचती थी और दिल ही दिल में तय कर लेती कि वह इन बातों का ख्याल रखेगी। उसे कभी भी आरिज़ को लेकर कोई शक शुब्हा नही हुआ। आरिज़ को लेकर उसके दिल में बहुत यकीनमंद तस्वीर बन गई थी।
फिज़ा जब भी अपने निकाह या आरिज़ के बारे में सोचती थी तो उसके दिल में गुदगुदी सी होने लगती थी। उसे शमायरा की वो सभी बातें याद आने लगी थीं, जो उसने उसे बताई थीं। अभी शमायरा के निकाह को चार महीने ही हुये थे। शमायरा उसकी सबसे करीबी और बचपन की सहेली थी। शादी तय होने के बाद उसके और रियाज़ उसका होने वाला शौहर, उन दोनों की मोहब्बत परवान चढ़ने लगी थी। दोनों दिन-रात फोन पर लगे रहते। एक-आत बार छुप कर घूमने भी गये थे। जिसका पता सिर्फ उसे ही था। उसने बताया था कि वो दोनों जब मूवी गये थे तो उन्होंने जरा सी भी मूवी नही देखी थी। सारा वक्त एक- दूसरे का हाथ पकड़े रहे थे और बहुत सारी बातें भी की थी। रियाज़ अंधेरें में बार-बार उसका चेहरा देखने की कोशिश कर रहा था। जिसे देख कर उसे बहुत लाज आ रही थी। उसने ये भी बताया था कि रियाज़ का हाथ बहुत गर्म था और कठोर भी। जिसे छूते ही उसके जिस्म में झुरझुरी सी हुई थी। पहली बार कोई मर्द उसके इतना करीब था।
रियाज़ को वाॅडी बनाने का शौक था, जिसके लिये वह रोज़ जिम भी जाता था और खाने -पीने का भी बहुत ख्याल रखता था। इसीलिए उसके हाथ एक मर्द के माफिक कठोर थे।
उसका इस तरह नजदीकी से बैठना बहुत अच्छा लग रहा था। वह वही इत्र लगा कर गयी थी जो रियाज़ ने उसे तोहफे में दिया था। जिसे उसने सूँघते ही पहचान लिया था। लगातार हाथों में हाथ रहने से हाथ पसीज गये थे तब उसे बड़ा ही अजीब लगा था। शमायरा ने ये भी बताया कि रियाज़ ने उसके हाथ पर चूमा भी था, दो या तीन बार। तब वह ख़जालत से गढ़ गयी थी। उसकी साँसें तेज चलने लगी थीं। रियाज़ ने उसकी तेज धड़कनों को सुन लिया था वह निर्लज्ज मुस्कुरा उठा था। उसने करीब आकर फुसफुसा कर कुछ कहा भी था जिसे वह सही से नही सुन पाई थी। बस एक गर्म हवा उसके कानों से टकराई थी जिसमें उसका पूरा जिस्म पिघलने लगा था। वह उसकी शरारत को भाँप गयी थी और डर भी गयी थी। उसका ध्यान तो आस-पास बैठे हुये लोगों में लगा था, कि कहीँ कोई देख न ले। अगर किसी ने देख लिया तो क्या होगा?? हाय अल्लाह!....हमें इस शर्मिंदगी से बचा लेना। तब उसने बस इतना सोचा था कि इन मर्दों को लाज क्यों नही आती?
मूवी देख कर वह घर लौट आई थी लेकिन घर आकर भी वही खुमारी चढ़ी रही थी। किसी काम में मन नही लगा था। अम्मी जान को तबियत नासाज होने का बहाना करके बिस्तर पर औंधी पड़ गयी थी। और चद्दर तान कर रियाज़ के साथ बिताये पलों का तसब्बुर करती रही थी। उन दिनों उसके गाल टमाटर की तरह हो गये थे। उसका ये जिस्मानी बदलाव फिज़ा से छुपा हुआ नही था।
रियाज़ और शमायरा को एक-दूसरे की आदत सी होने लगी थी। एक बार रियाज़ ने शमायरा को लेकर नैनीताल जाने की पेशकश रखी। जिसे सुन कर शमायरा का दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। आज तक कभी उसने अपने वालदेन से छिपा कर कोई काम नही किया था, फिर यह तो शहर से बाहर जाने की बात थी जिसे पहले तो उसने साफ-साफ इन्कार कर दिया। फिर जब उसने यकीन दिलाया कि शाम तक वापस लौट आयेंगे तो न चाहते हुये भी शमायरा को हाँ कहनी पड़ी। वह अन्दर से डरी हुई भी थी और साथ जाने के रुमानी अहसास से भी सरावोर थी। इस बात का पता सिर्फ फिज़ा को ही था। फिज़ा ने इस बात को अपने तक ही रखा था।
शमायरा को वहाँ जाने में थोड़ी हिचकिचाहट हुयी थी। फिर रियाज़ ने यकीन दिलाया कि वह उसे गलत न समझे, वह उसकी होने वाली बीवी है और बीवी की हिफ़ाजत, उसकी इज्जत उसके शौहर का फर्ज़ है। तब जाकर शमायरा वहाँ जाने को राज़ी हुई थी।
क्रमश: