Mujahida - Hakk ki Jung - 13 books and stories free download online pdf in Hindi

मुजाहिदा - ह़क की जंग - भाग 13

भाग 13

आज फिज़ा के पाँव धरती पर नही पड़ रहे थे। वह खुशी से फूली नही समा रही थी। इसलिये उसने खुद को परदे की ओट में छुपा लिया था। ड्राइंग रूम में कुछ खास तरह के मेहमान इकट्ठा थे। जिनके लिये उम्दा किस्म का नाश्ता लगाया गया था। जिसमें शहर की सबसे मशहूर दुकान के रसगुल्ले, गुलाब जामुन, पेस्टी, पैटीज, मसाले वाले काजू, और कबाव शामिल थे। घर में गर्मजोशी का माहौल था। एक अलग तरह की हलचल सी थी। सभी के चेहरों पर तसल्ली और इत्मीनान के मिलेझुल तास्सुरात झलक रहे थे।
फिज़ा के पूरे बदन में सिहरन सी दौड़ गयी। जब उसे पता लगा, उसके लिये नुसरत फूफी के देवर का रिश्ता आया है। चूकिं फूफी जान उसके अब्बू से उम्र में काफी छोटी थीं और फिज़ा से कुल दस बरस बड़ी। यही बजह थी फिज़ा अपनी फूफी के साथ उनके निकाह से पहले काफी वक्त साथ रही थी। इसीलिये करीबियत ज्यादा रही। उनके बीच दोस्ताना माहौल रहा। मगर न जाने क्यों फूफी कभी-कभी फिज़ा से चिढ़ने लगती थी। शायद खान साहब का ध्यान अब बेटी की तरफ ज्यादा रहने लगा था इसलिये। जबकि पहले वो अपनी बहनों के लिये जान दिये फिरते थे। मगर जो भी हो फिज़ा अपनी दोनों फूफी के बहुत करीब भी थी।
आज फूफी जान खुद आई थी उन लोगों के साथ। न जाने कितने लोग थे जो उस खानदान में रिश्ता जोड़ना चाहते थे। बेशक वह लोग बड़े खानदान से थे, मगर फ़िजा हमेशा से ही ऐसा शौहर चाहती थी जो उसकी इज्जत करें, उससे महोब्बत करे और उसकी परवाह करे। फ़िजा को भी रिश्तों की कमी नही थी। उसकी खूबसूरती और नेक दिली के चर्चे दूर-दूर तक थे। कभी उसकी फूफी उसे देख निहाल हो जातीं, तो कभी उनका देवर। कभी पड़ोस की खाला अपने भतीजे के लिये ख्याब देखती तो कभी उसकी आपा का देवर।
वह सिर से लेकर पाँव तक साँचें मे ढ़ली हुई थी। मैदे की लोई सा उजला रंग, बड़ी-बड़ी भूरी आँखें, सुराही सी गर्दन और तीखी नाक। दायें गाल के ऊपरी हिस्से पर छोटा सा तिल जो अच्छे अच्छों की जान निकाल ले। उसे देख कर ऐसा लगता जैसे उसको बनाने वाला चित्रकार उसे साँचें में ढ़ालते वक्त रोमांस में डूबा होगा और उसने एक-एक अंग फुरफत में बनाया होगा। उसे बनाने से पहले उसने खुदा की रहमत हासिल की होगी।
इन सबसे जुदा, एक अदा थी उसकी, बार-बार हया से नजरें झुका लेना और फिर धीरे से मुस्कुरा देना। यही बजह थी जो उसे एक बार देखता, देखता ही रह जाता।
फ़िजा जन्नत की हूर थी। नौजवानों का ख्याव थी, तौबा कहिये अगर किसी शायर की नजर पड़ जाती तो वह ताउम्र उसे देख कर उसकी खूबसूरती के कसीदें पढ़ता। उसकी जिन्दगी रोमांस से महक उठती। किसी भी शायर की शायरी का रस उसकी हूर की खूबसूरती में होता है, ये कहना गलत नही होगा। बावजूद इसके, फिज़ा ने कभी किसी को नज़र उठा कर भी नही देखा। बेशक उसके भी ख्याबों में हमेशा एक खूबसूरत और रोमांटिक शौहर रहता था, जिसके साथ वह बादलों में उड़ती थी, फूलों में हँसती थी और जन्नत की सैर करती थी, ये अलग बात है। उसे यकीन था ऐसा ही कोई, उसकी जिन्दगी में जरुर आयेगा, जिससे वह टूट कर रोमांस करेगी, जी भर जीयेगी। कभी उचक कर तारों को तोड़ लेगी, कभी नदी को रोक लेगी। कभी पलकों पर बन्द कर निहारेगी और कभी रुठ जायेगी, अपने गालों पर उसके हाथों की छुअन के लिये। फिर एक ही आइसक्रीम को दोनों खायेगें और छीना झपटी में जब पिघल कर नीचे गिर जायेगी तो दोनों खूब हँसेंगे। ढेर सारी मस्ती करेगें। खिलखिलायेंगे, दौड़ेगें, कूदेगें बच्चों की तरह और फिर रुठ जायेगें एक-दूसरें के मनाने के लिये। कितनी हसीन होगी वो दुनिया? जहाँ से जन्नत भी छोटी दिखाई पड़ेगी। उसने एक खूबसूरत रूहानी जिन्दगी का ताना-वाना बड़ी खूबसूरती से बुना था। जिसमें पूरी कायनात उसके आगोश में थी।
फिज़ा दिल-ही-दिल में खुदा की इबादत कर रही थी, 'या खुदा! हमें दिलोजान से महोब्बत करने वाला शौहर देना, जो सिर्फ महोब्बत ही नही हमारी इज्जत भी करे। हमारी पसंद-नपसंद की कद्र करे। हमें दिल से समझने वाला शौहर देना।
आज वही दिन तो था। जो उसके ख्याबों को हकीकत में बदलने वाला था। समूचा गुलशन उसकी हथेलियों में महक रहा था। आरिज़ का रिश्ता उसके लिये आया था। वही आरिज़ जिससे उसकी मुलाकात कई बार अपनी फूफी के घर पर हुई थी। क्योंकि वह फूफी का देवर लगता था इस नाते वह एक दूसरे को देख चुके थे। और देखते ही आरिज़ उस पर फिदा हो गया था। दीवानगी की हद तक उसे चाहने लगा था। मगर फ़िजा को उसकी रईसी नही उसी नेक दिली और महोब्बत चाहिये थी। उसे उसकी दौलत से कोई सारोकार नही था। हाँ ये जरूर था उसके अम्मी अब्बू को अपनी बेटी के लिये एक रसूख वाले अच्छे खानदान की तलाश थी। जैसे हर वालदेन को होती है। जहाँ उनकी नाज़ो से पाली हुई बेटी खुश रह सके। उसके पल रहे ख्याब पूरे हो सकें। यही सोच कर उन्होने एक अच्छे खानदान की तलाश शुरू की थी।
यही हुआ, आरिज़ ने उसे चुना? और नुसरत जो उसकी भाभी जान थी और फिज़ा की फूफी, के हाथ रिश्ता भेज दिया। यही सोच कर फिज़ा लाज से दोहरी हो गयी। उसके चेहरे पर अपने, पाक ख्यावों का नूर दमकने लगा। गुलाबी गालों का रंग सुर्ख हो गया। उसने मन- ही- मन कहा- "या खुदा, सब तेरा ही करम है। तेरी रहमत बरस रही है हम पर, नजर न लगे किसी की हमारे नसीब पर, जो आरिज़ जैसा लड़के का रिश्ता भेज दिया।
अन्दर ही अन्दर फिज़ा को भी आरिज़ अच्छा लगता था, मगर उसने कभी भी ये बात न तो आरिज़ के सामने जाहिर होने दी और न ही घर में किसी के सामने।
कहीँ ये हकीकत में ख्याब तो नही? उसने अपने गोरे और नाजुक पाँव को दूसरे पाँव के अँगूठे से छुआ और नाखून से रगड़ने लगी। यकीन आने पर अपने बैडरूम की तरफ दौड़ पड़ी। बिस्तर पर लुढ़क कर सबसे पहले अपनी जलजले सी चल रही साँसों को संभाला और फिर लगी मुस्कुराने। अगले ही पल डर गयी। यूँ बगैर बात के मुस्कुराता हुआ चेहरा अम्मी जान या अब्बू जान ने देख लिया तो? तो क्या सोचेंगे वो? यही कि, कितनी बेहया है उनकी लड़की? हाय अल्लाह.... ये क्या हो रहा है हमें? जरा आके संभाल ले मुझे और हमारी पनपती हुई महोब्बत को परदे में छुपा ले। फिज़ा बाँबरी सी हो गयी थी।
फिज़ा के कान बाहर की आहट ले रहे थे। वह बेचैन थी जानने के लिये, बाहर क्या हो रहा है? ड्राइंग रूम से आवाजें आना बन्द हो गयी थी। बस चायनीस क्राकरी की खटर-पटर सुनाई पड़ रही थी। उसे लगा मेहमान जा चुके थे और शबीना खाली नाश्ते की प्लेटों को किचिन में रखवा रहीं थीं। आज शबीना के जिस्म में गजब की फुर्ती थी। वह बेटी के रिश्ते को लेकर बहुत खुश थीं। उनके भी तमाम ख्याब थे जैसे हर वालदेन के अपनी बेटी के लिये होते हैं। इसी खुशी में उन्होने बचा हुआ नाश्ता महरी के हवाले कर दिया, ये कह कर-
"ले जा इसे और बच्चोँ को खिला देना हमारी तरफ से, हम आज बहुत खुश हैं। हमारी फ़िजा को जन्नत का शहजादा मिला है।" महरी भी चहक कर खिल उठी। लजीज नाश्ते को देख कर उसके मुँह में पानी आ गया। मगर नाश्ते से ज्यादा उसे साटन का गोटा किनारा लगे शरारा मिलने की उम्मीद थी जिसे पहन कर फ़िजा की शादी के साथ-साथ वह अपने बेटे करीम की शादी भी निबटा लेगी। सो वह खुशी से गदगद हो गयी।
मुमताज खान ने अन्दर आकर बताया- "रिश्ता पक्का है। वह लोग जल्दी से जल्दी निकाह पढ़वाना चाहते हैं। यह हमारी खुशनसीबी है जो घर बैठे रिश्ता मिल गया, वो भी घर का ही, वरना बाहर के लड़कों का क्या भरोसा। यहाँ सब कुछ देखा भाला है, कम से कम ये तो चिन्ता नही है, कि लड़का कैसा होगा? उसका खानदान बगैहरा? किसी भी अजनबी घर में अपनी बेटी को देते हुये डर लगता है। शबीना, आप जरा फि़ज़ा से भी बात कर लीजिये, अगर उनकी हाँ हो तो हमारी तरफ से तैयारी शुरु की जाये।"
" ईन्शा अल्लाह...सब अच्छा होगा और भला उसको क्यों एतराज होने लगा? क्या कमी है लड़के और उसके खानदान में? बड़ी नसीबों वाली है हमारी फ़िजा जो खुद चल कर वो लोग हमारे घर आये हैं। आप फ्रिक न करें मैं बात कर लूँगी।"
"आप सही फरमा रहीं हैं बेगम, मगर ज़माने को देखते हुये बच्ची की रजामंदी भी जरुरी है। हमनें अपनी निगाह से सब देखा है, उसे अपनी नज़र से देख और समझ लेने दीजिये। आप इतनी जल्दीबाजी मत कीजिये। वैसे हम जानते हैं अपनी बेटी को, वो जो भी फैसला लेगी सही ही लेगी।" खान साहब बेहद सुलझे हुये लहज़े में कहा तो शबीना को भी लगा वो सही कह रहे हैं। बावरी तो वो हो रही है। इसमें उसकी भी गलती नही थी, वालिदा का दिल होता ही ऐसा है, वो अपनी बेटी के लिये हमेशा तर्सज़दा रहती है और यही चाहती है कि जल्दी से जल्दी उनकी बेटी को अच्छा घर वार मिल जाये।
क्रमश:




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