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महारानी चिमणाबाई की पुस्तक और नारीवाद

नीलम कुलश्रेष्ठ

स्त्री चेतना जागृत करने के आधुनिक इतिहास का आरंभ लगभग दयानंद सरस्वती से मान सकते हैं लेकिन स्त्री में चेतना जागी हो ऐसा हम सवा सौ वर्ष से भी अधिक पूर्व का समय मान सकते हैं। वड़ोदरा के महाराजा सयाजीराव तृतीय ने अपनी पत्नी महाराणी चिमणाबाई को प्रोत्साहित किया कि वे अपना घूँघट हटा दें। इस तरह से वे भारत की प्रथम महारानी का दर्ज़ा हासिल कर सकीं जिसने पर्दा प्रथा समाप्त की। जब आँखों से पर्दा हटा तो उन आँखों ने देश-विदेश की यात्राओं में दुनियाँ अपनी नज़र से देखी। जब दुनियाँ देखी तो मन विचलित होने लगा। अमेरिका, लंदन व अन्य देशों की स्त्रियाँ कहाँ खड़ी हैं और अपने देश की स्त्री ? उसे तो घूँघट के अंदर से आपने आसपास की दुनियाँ देखने तक की अनुमति नहीं है । विदेशों में स्त्रियों व पुरुषों के सहयोग से उन्नति हो रही है। भारत में स्त्री की कोई भागीदारी नहीं है । उन्होंने अपने अनुभवों व विचारों के नोट्स लिखने व ज़ेहन में रखने आरंभ किये लेकिन वे कोई सिद्धहस्त लेखिका नहीं थी इसलिये उन्होंने लंदन के भारतीय मूल के एक लेखक श्री एस.एम. मित्र की सहायता से एक पुस्तक लिखी ‘द पोज़ीशन ऑफ़ वीमन इन इंडियन लाइफ़’ जिसे समर्पित भी भारतीय नारी को किया है।

इस पुस्तक को महाराजा सयाजीराव विश्वविद्यालय की विशाल ‘हंसा बेन मेहता लायब्रेरी’ से अपनी मित्र रसायन विज्ञान की रीड़र डॉ. नलिनी पुरोहित द्वारा प्राप्त कर, उसे हाथों में ले भावुक हो रही हूँ। मैं अक्सर कहती हूँ, “नारीवाद एक रिले रेस है जो एक पीढ़ी अगली पीढ़ी को सौंपती चलती है।” मेरे हाथ में रिले रेस का वह छोटा डंडा है जो जाने कितने हाथों से गुज़रता मेरे हाथ में पहुँचा है। मैं दौड़ चली हूँ इस पुस्तक की पंक्ति-पंक्ति पर, शब्द-शब्द पर, पीछे की ओर, आगे की ओर और तेज़ दौड़ने के लिये।

हँसा बेन मेहता लायब्रेरी की बात से हँसा बेन का उल्लेख न हो, ये हो नहीं सकता। ये गायकवाड़ राज्य के दीवान की बेटी थीं जिनका जन्म सन् 1897 में हुआ था। आश्चर्यजनक बात यह है कि ये विश्वविद्यालय के प्रथम छात्र संघ की अध्यक्ष बनीं। सन् 1923 में सेनफ्राँसिस्को की एक विशाल सभा में उन्होंने ब्रिटिश राज्य के अन्यायों पर प्रकाश डाला था। यदि उन्होंने कोई पुस्तक लिख डाली होती तो तस्लीमा नसरीन जैसी प्रसिद्ध हो गई होतीं।

महारानी द्वारा लिखित पुस्तक का प्रकाशन लंदन में हुआ। बाद में सन् 1981 व 1984 में दिल्ली के नीरज प्रकाशन ने इसके संस्करण प्रकाशित किये। इस पुस्तक का नाम तो मैंने बरसों पूर्व सुना था। मुझे लगा इस पुस्तक की उँगली पकड़ उस उद्गम स्त्रोत को ढूँढ़ा जाये जहाँ से भारतीय स्त्री को स्वावलंबी व संगठित करने की बात शुरू हुई थी । मैं इसे पढ़कर आश्चर्यचकित रह गई क्योंकि स्वतंत्रता से पूर्व स्त्री शिक्षा की नींव में डालने में कुछ ब्रिटिशर्स पुरुष व स्त्रियों का हाथ है।

मैं गुजरात में तब नई-नई आई थी, मनोरमा से अमरकांत जी ने एक अख़बार की कटिंग भेजते हुए लिखा कि भारत के प्रथम महिला संगठन ज्योति संघ पर लिखो। अहमदाबाद स्थित ज्योति संघ पर मेरा लेख प्रकाशित हुआ। मैं कम उम्र की टेढ़ी-टेढ़ी चलने लगी कि भारत के प्रथम संगठन पर मैंने लेख लिखा है। दस-बारह वर्ष पूर्व की बात है । मैं शर्मसार हो गई जब पता लगा ये प्रथम नहीं तीसरा महिला संगठन है।

भारत के प्रथम महिला संगठन की स्थापना पूना में ज्योतिबा फूले, सावित्रीबाई फूले ने की थी और महारानी चिमणाबाई उस समारोह में सम्मिलित होने पूना गई थीं। वहाँ से प्रेरित होकर उन्होंने भारत के द्वितीय महिला संगठन अखिल हिन्द महिला परिषद की स्थापना की। ज्योति संघ महात्मा गाँधी जी द्वारा स्थापित देश का तीसरा महिला संगठन था क्योंकि उन्होंने सोचा था स्वतंत्रता संग्राम में जिन स्त्रियों ने हिस्सा लिया वे आज़ादी के बाद घर लौटकर निष्क्रिय हो जायेंगी। वे कर्मठ बनी रहें इसलिये इसकी स्थापना की गई।

लंदन में महारानी जी ने इस पुस्तक की प्रस्तावना में लिखा है कि इलाहाबाद की एक प्रदर्शनी में उन्होंने देखा था कि बहुत सी औरतें घूँघट में होते हुए भी उस प्रदर्शनी को दिलचस्पी से देख रही थीं। उन्हें महसूस हुआ कि यदि स्टॉल्स की जानकारी देने के लिये स्त्रियाँ होतीं तो दर्शक स्त्रियाँ बेझिझक बहुत कुछ सीख सकती थीं।

पुस्तक का प्रथम अध्याय इसी बात से आरंभ होता है कि जब भी कभी बीसवीं सदी की बात होगी तो ये बात याद की जायेगी कि सदी के आरंभ से हर वर्ग की स्त्री में अपने अस्तित्व के प्रति एक ऊर्जा उत्पन्न हो रही थी चाहे वह अमीर हो या गरीब, शिक्षित हो या अशिक्षित। उत्तर से दक्षिण तक, पूर्व से पश्चिम तक स्त्री अपने अस्तित्व के महत्त्व को समझ उसे प्रमाणित करने के लिये उतावली हो चुकी थी। औरत ही औरत की दुश्मन है के परम सत्य के साथ समानांतर औरत ही औरत की दोस्त बनने की संगठित होने की प्रक्रिया आरंभ हो चुकी थी। ब्रिटेन में सन् 1980 (1890) में विवाहित महिलाओं के जायदाद में अधिकार का बिल पास हो चुका था जिन में सन् 1922 में संशोधन किया गया ।

वैसे तो मनु के समय से ही हिन्दू धर्म में स्त्री को जायदाद में अधिकार था। दो हजार वर्ष पूर्व ही स्त्रीधन को मान्यता मिल चुकी थी जबकि ये बात पश्चिम के किसी देश में सोची भी नहीं जाती थी । ये बात और है बाद के वर्षों में ये शब्द अपनी विश्वसनीयता खोता चला गया। या हम भारतीय लोगों की मानसिकता से आज भी इसका कोई विशेष अर्थ नहीं हैं।

लंदन में सन 1894 में शिक्षित स्त्री को वोट देने का अधिकार भी मिल गया था। सन् 1907 के आते-आते वे मेयर तो बन सकती थीं लेकिन न न्यायाधीश और न ज्यूरी की सदस्य। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध से तो जैसे इंग्लैंड से होती हुई शिक्षा की लहर भारत तक आ चुकी थी । भारत में उच्च शिक्षा के लिये कॉलेज जाने वाली लड़कियों को सुनना पड़ता था, `देखो दो चोटी वाले भूत जा रहे हैं।` ये अलीगढ़ [उ. प्र. ]में मेरी मोसियों को सुनना पड़ा था क्योंकि वे स्वतंत्र भारत की प्रथम शिक्षित होने वाली पीढ़ी में शुमार थीं।

यूनाइटेड प्रोविन्सेज की लेजिस्लेटिव काँसिल ने सन् 1910 में बताया था कि भारत में स्त्री शिक्षकों की कमी है। भारतीय स्त्री को प्रेरणा देनी चाहिये कि शिक्षक बनें ।

उस समय कल्पना करना भी कठिन लगता था कि भारतीय स्त्री माँ, बहिन, बेटी के अलावा समाज का कोई पद ज़िम्मेदारी से संभाल सकती हैं।

बड़ौदा राज्य ने लड़के व लड़कियों की प्राथमिक शिक्षा को अनिवार्य व निःशुल्क कर दिया था। सन् 1908 की बड़ौदा प्रशासन की रिपोर्ट में साफ़ उल्लेख है कि इस निर्णय से निम्नवर्ग को सर्वाधिक फ़ायदा हुआ था। ऊँची कक्षाओं से लड़कियों को कढ़ाई, चित्रकला, खाना बनाना, सिलाई भी सिखाई जाने लगी थी, लड़कियों के लिये हॉस्टल व प्रशिक्षण विद्यालय बनाये गये। महाराजा सयाजीराव का मानना था कि देश में विकास तभी संभव है जबकि स्त्री शिक्षित होगी क्योंकि वही भविष्य की पीढ़ी की देख-रेख करती है। सामाजिक व्यवहार उससे ही चलता है ।

क्वीन मेरी के विचारों से भी भारतीय नारी शिक्षा की तरफ आकर्षित हुई । यह जानना बहुत दिलचस्प लगता है कि कलकत्ते में स्त्री शिक्षा का आरंभ वहाँ के प्रशासन के कारण नहीं था बल्कि दो ब्रिटिश महिलाओं लेडी एमरेस्ट व मिस कुक - जो कि भाषा, धर्म और देश के हिसाब से अलग थीं- के कारण ही हुआ था। भारत में स्त्रियाँ सर्वप्रथम बंगाल में ग्रेजुएट हो सकीं। ये सन् 1819 की बात है जब भारतीय विश्वविद्यालयों की स्थापना भी नहीं हुई थी।

बीसवीं सदी के आरंभ में अमेरिका व यूरोप में स्त्रियों के लिये मुख्यतः दो ही व्यवसाय थे एक गवर्नेस का, दूसरा क्लर्क का। भारत में तब अलग-अलग राज्य में स्त्रियों की शिक्षा व उनके लिये उचित व्यवसाय के सर्वे के लिये एक केन्द्रीय सोसायटी बनाई गई जो लंदन की केन्द्रीय संगठन की सलाह पर काम करने लगी। स्त्रियों को यहाँ से प्रशिक्षण शुल्क के लिये लोन भी मिलते थे। एक दूसरी सोसायटी ने केन्द्रीय डिपो बनाई जिसमें स्त्रियाँ, नर्सरी, डेरी, अचार, केक व मिठाई व्यवसाय के लिये रजिस्ट्री करवा सकें। इंग्लैंड में उस समय विज्ञान व कला से भी महिलाएँ जुड़ने लगीं थीं। उस समय की भारतीय स्त्री के लिये एक नूतन द्वार खुल चुका था कि वह शिक्षित हो, संगठित हो व किसी विशिष्ट काम में दक्ष हों।

प्रदेशों की गाँवों की प्राथमिक शालाओं में सुबह से दस बजे तक कृषि का प्रशिक्षण दिया जाता था जिससे बच्चों के माँ-बाप को सहायता मिल सके। समस्त भारत में लड़कियों को कृषि के लिये प्रशिक्षित किया जा रहा था। उन दिनों दूध डेरी चलाने में स्त्रियों की रुचि होने लगी थी। इस क्षेत्र में सौ वर्ष पूर्व भी सफलतम देश डेन्मार्क ही था।

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ‘वीम एग्रीकल्चरल एण्ड हॉर्टीकल्चरल’, ‘नेशनल यूनियन ऑफ वीमन वर्कर्स’, ‘इंटरनेशनल काँग्रेस ऑफ वीमन’ गठित हो चुकी थी। ये देशों के बीच एक कड़ी का काम कर रही थी । महत्त्वपूर्ण सूचनाओं के प्रकाशन का काम, सलाह देने का काम, स्त्रियों के लिये समुचित वेतन की माँग, ये इनके मुख्य मुद्दे थे। सहकारिता आंदोलन का आरंभ भारत में हो चुका था। भारत की स्त्री से ज़ोर कहा जा रहा था कि कृषि को अपना व्यवसाय बनायें।

देश की सोलह करोड़ स्त्रियों को रोजगार मिले, कृषि हो या व्यवसाय स्त्रियाँ यहाँ प्रमुख पद पर काम करें, यह बात सपना ही थी इसलिये स्त्री को उच्च शिक्षा देने के प्रयास होने लगे। आज हम शहर में लियाकत से फ़ाइल हाथों में लेकर चलती या ए.सी. ऑफ़िस में बैठी किसी प्रबंधक या एन्ट्रेप्रिन्योर को देखते हैं तो याद रखना चाहिये ये सपना सौ वर्ष पूर्व कुछ लोगों ने देखा था। पुरुष का प्रभुत्व आज भी हर स्थान पर है किन्तु ये भ्राँति टूट गई है कि एक स्त्री कुशल प्रमुख नहीं बन सकती। महारानी जी के शब्दों में कहूँ तो इस बात के साथ यह बात भी सच है कि आदमी मकान बना सकता है लेकिन घर स्त्री ही बना सकती है । ग़लत तरीके से पुरुष की बराबरी का दम्भ भरने वाली हमारी आधुनिकायें ये नसीहत लें।

कच्छ (गुजरात) या कटक (उड़ीसा) या कहीं भी हस्तकला के अमेरिकन व यूरोपियन दीवाने थे। वे ऊँचे दामों में इन्हें खरीदते थे इसलिये निर्यातकर्ता हस्तकला विशेषज्ञ व कारीगर महिलाओं को प्रोत्साहित करने लगे थे।

बुक बाइंडिंग, क्रोशिया वर्क, पॉटरीज व्यवसाय में महिलायें उभर कर आ रही थीं । इंग्लैंड की लेडी बेकर ने पॉटरी व्यवसाय में महिलाओं को लाने के लिये एक सहकारी योजना बनाई थी। इस योजना का आरंभ में पिचहत्तर प्रतिशत लाभ इस उद्योग के उत्थान के लिये लगा दिया गया जिससे ये योजना प्रगति करती गई। लंदन में बुनकरों के प्रशिक्षण से नेत्रहीन गूँगी, बहरी लड़कियों को जोड़ा गया। महारानी का ये अध्ययन एक मॉडल वर्क की तरह था उनका सुझाव था, रजाई, कालीन बनाना हो या कोई भी कला हो, इसकी डिजाइनिंग का काम शिक्षित महिला को देना चाहिये नहीं तो ये कला भारत में निम्न स्तर पर पहुँच जायेगी।

ये काम भारत में सालवेशन आर्मी ने किया था। ये बात सन् 1911 के दस जून को टाइम्स ऑफ इंडिया में भी प्रकाशित हुई कि किस तरह से आर्मी के प्रयास से बुनकर स्कूल, हैंडलूम फ़ेक्टरीज व चार सिल्क फार्म्स व अस्पताल की स्थापना की गई जिससे महिलाओं को लाभ मिल सके ये आर्मी बेसहारा या सजायाफ़्ता औरतों के लिये काम कर रही थी। सन् 1882 में उसने कलकत्ता, बम्बई व मद्रास में ‘रेस्क्यू होम’ बनाये।

लेडी डफ़रिन की महिला चिकित्सा स्कीम को कौन भूल सकता है? इसी स्कीम के कारण भारतीय स्त्री ने चिकित्सा क्षेत्र में काम करने का साहस किया। काउंटेस ऑफ लेडी डफ़रिन फ़ंड की स्थापना सन् 1885 में की गई थी।

महारानी जी ने फ़ैक्टरियों में, चेरिटेबल संस्थाओं में, रोजगारो के स्थानों को इंगित किया है कि लड़कियाँ वहाँ वेलफ़ेयर सेक्रेटरी बनें। आज के समय में तो लड़कियाँ एम.एस.डब्लू. करके वेलफ़ेयर ऑफिसर भी बन रही हैं। वे मानती थीं पर्दे में रहने वाली भारतीय स्त्री अपने अधिकारों व कानूनों से अनभिज्ञ है । स्त्रियों को कानून पढ़कर उन्हें रास्ता दिखाना चाहिये। यदि वे जीवित होतीं तो अफ़सोस करती सौ वर्ष बाद भी वह अपने लिये बने कानून से अनभिज्ञ हैं, नहीं तो ‘द हिन्दु’ में प्रकाशित सुधा अरोड़ा जी के बारह सौ शब्दों के लेख ‘द वॉयलेंस ऑफ साइलेंस’ की प्रतिक्रिया स्वरूप शिक्षित महिलाओं के सौ से भी अधिक मेल देखकर सिर धुन लेतीं। ये महिलायें ये भी नहीं जानती कि शोषण की गुहार कहाँ जाकर लगायें। महारानी जी और क्षोभ से भर उठतीं जब जानती कि कुछ महिलाएं कानून की आड़ में पुरुष को ही शोषित कर रही हैं।

अमेरिका, न्यूजीलैंड, ऑस्ट्रेलिया, बेल्ज़ियम, स्वीडन, नार्वे, फ़्रांस, हालैंड और फ़िनलैंड में स्त्री वकालत करने को स्वतंत्र थी लेकिन जर्मनी व इंग्लैंड में उसे ये स्वतंत्रता नहीं थी।

लंदन में सन् 1892में प्रथम महिला सेनिटरी इंस्पेक्टर बनी थी। वे स्कूल, एन जी ओज़, अस्पताल, मानसिक रोग चिकित्सालय, औद्योगिक स्कूल की मेट्रन बन रही थी। उन दिनों अमेरिका में ऐसी महिला जेल की स्थापना हो चुकी थी जहाँ सिर्फ़ दो पुरुष वॉर्डन को छोड़कर सभी महिलायें थीं।

जहाँ तक सहकारिता का प्रश्न है स्त्रियाँ कृषि, प्रोविज़न व वस्त्र उद्योग में सहकारिता कर रही थीं। सौ वर्ष के आँकड़ों के हिसाब से देश में 420,000 महाजन व बैंक थे जिस में 17.5 प्रतिशत महिलायें थीं।

सन् 1901,1902 में लेडी कर्ज़न ने विक्टोरिया मेमोरियल फंड की स्थापना करके बच्चों व स्त्रियों के स्वास्थ्य की रक्षा के लिये काम किया। ये मिडवाइफ़ का प्रशिक्षण भी देता था।

महारानी ने विदेशों के चेरिटेबल फ़ंड का उल्लेख कर धनी महिलाओं को प्रेरित किया कि वे समाज सेवा करें। यदि वे आज जीवित होतीं तो प्रसन्न हो जातीं क्योंकि समाज सेवा से आज धनी ही नहीं, मध्यम वर्ग व निम्न वर्ग की स्त्री भी जुड़ रही है। आज भारत की स्त्री झोंपड़पट्टियों में अतिवृष्टि- अनावृष्टि में काम करती हैं, अंग्रेजी महिलायें भी इसका प्रेरणास्त्रोत हैं। सन् 1909 में ‘नेशनल एसोसियेशन फॉर वीमन लॉजिंग होम’ स्थापित किया गया था जहाँ भारतीय महिला कम फ़ीस पर समाज की बुराइयों से लड़ना सीख सकती थी।‘द वीमन्स होली डे फ़ंड’ तो गरीब महिलाओं को इंग्लैंड से बाहर के लिये पर्यटन के साधन जुटाता था। तब नौकरी-पेशा महिलाओं के नवजात बच्चों के लिये क्रेश प्रचलन में आ चुके थे। लंदन में महिला बैंक खुल चुका था जहाँ पर कर्मचारी भी महिलायें थीं। जर्मनी में भी ‘म्युचुअल बैंक फ़ॉर सपोर्टिंग वीमन’ महिलाओं को व्यापार के लिये लोन देता था।

इस पुस्तक से उस समय की विशिष्ट महिलाओं के विषय में जानना जैसे एक उपलब्धि है।

· अमेरिका में श्रीमती एच बीचर स्टीवस(हेरीट बीचर स्टोव) ने मनुष्य के गुलामों के रूप में होने वाले व्यापार को बंद करवाया । स्टीव एक श्वेत महिला थीं लेकिन उनके उपन्यास ‘अंकल टॉम्स केबिन’ में अश्वेतों पर होने वाले अत्याचारों का वर्णन था।

· इंग्लैंड में मिस एलिज़ाबेथ फ्राई और श्रीमती मर्डिथ ने जेलों के सुधार के लिये उल्लेखनीय कार्य किये।

· मिस लुइसा ट्विनिन ने प्रशासन के कानूनों में सुधार किया।

· मिस फ्लोरेंस नाइटेंगिल ने अस्पताल के रख-रखाव व नर्सों की स्थिति के लिये अभूतपूर्व सुधार किये।

· मिस मेरी कारपेंटर ने औद्योगिक व विशिष्ट स्कूलों के उत्थान के लिये काम किया ।

· मिस एगेन्स वेस्टन, ब्रिटिश नेवी में सेलर थीं । उन्होंने एक पुस्तक भी लिखी थी ‘माई लाइफ इन द ब्लू जैकेट’।

· मिसिज ई बी ब्राउनिंग की कविता ‘द क्राइ ऑफ चिल्ड्रन’ पढ़कर बाल मजदूरों की दुर्दशा को सुधारने के लिये एक आंदोलन आरंभ हो गया, सोचिए सिर्फ कविता से।

· जापान के कोजिको (प्राचीन समय के रिकॉर्ड के अनुसार) जापान में स्त्रियाँ भी शासन करती थीं व न्यायिक कोर्ट में उनका दबदबा था। ग्यारहवीं सदी में जापान का प्रथम उपन्यास ‘जेजी मोनोगावरी’ लिखने वाली एक महिला मुरास्की तो शिकिबु थीं।

· एक जापानी महिला सी शोनेगॉन ने सामाजिक जीवन पर एक अभूतपूर्व पुस्तक ‘मकुरानों जोशी’ लिखी थी। ये पुस्तक ग्याहवीं शताब्दी में लिखी गई थी।

जहाँ भी औरत की स्थिति की बात होती है वहाँ उसके शोषण व उत्पीड़न की बात ही होती है, इस पुस्तक को हाथ में लेकर इस आज की पाठिका यानि कि मेरा यही पूर्वाग्रह था लेकिन भूल गई थी ऐशो आराम में पलने वाली महारानी, दूसरे देशों के भी धनाढ्य वर्ग से मिलती होंगी। उन तक आम स्त्री के दुःख-दर्द की बातों के कतरे ही पहुँच पाते होंगे। एंटी स्वेटिंग अध्याय में तो सिर्फ बाल मजदूरों का वर्णन है। उन्होंने भारतीय स्त्री को स्वावलम्बी बनाने के लिये ये पुस्तक लिखी है।

बड़ौदा में स्वयं उन्होंने एक लाख रुपया दान करके एक ट्रस्ट बनाया था जिससे मेधावी लड़कियों को छात्रवृत्ति मिल सके। गायकवाड़ राज्य की महिलायें व्यवसाय कर सकें इसके लिये उन्होंने बड़ौदा, नवसारी, अमरेली, पाटण में उद्योग केन्द्र खोले। वडोदरा में आज भी महारानी चिमणाबाई उद्योगालय काम कर रहा है।

वह देश की सचेतन महिला थीं इसलिये नेशनल काँसिल ऑफ वीमन की वर्षों तक अध्यक्ष रहीं। अखिल हिन्द महिला परिषद की तो प्रथम अध्यक्ष रहीं। उन्होंने पूना में देह त्यागी लेकिन उनका अंतिम संस्कार बड़ौदा में किया गया।

एक सुबह मैं कंपाउंड में समाचार पत्र पढ़ रही थी। स्वाश्रय संस्था की कचरा बीनने वाली सिंधु बेन आई जिसके लिये मैं महीने भर कचरा इकट्ठा करती हूँ। इसी वडोदरा (बड़ौदा) में महारानी जी के पंचतत्त्व बिखरे हुए हैं, वे विलीन नहीं हुए। वे जाने कितनी स्वयं सेविकाओं के मन में घुल मिलकर सिंधु बेन के शब्दों में झलक रहे हैं, ‘बेन लोग हमें बताती हैं तुम्हारा आदमी व तुमने पेट से ही तो जन्म लिया है । तुम एक ही सरीखे हुए न! तो क्यों उसकी गुलामगिरी करने का ? तुम्हें भी तो वोई हक है, जो उसे हक है।’

जब पुरुष से बराबरी करने का दम्भ भरा जाये तो कुछ करके भी दिखाना चाहिये। महारानी चिमणाबाई अंत में पुस्तक लिखने का ध्येय स्पष्ट करती हैं, ‘जो स्त्री समाज को लाभ पहुँचाने वाले किसी संगठन में या अकेले ही कुछ काम करती हैं, उसका उस स्त्री से पवित्र व उच्च स्थान है जो स्वयं अपने लिये व अपने परिवार के लिये जीती है।’

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