ढाबे की वो खाट
सरकारी काम होने के कारण अहमदाबाद जाना बेहद ज़रूरी था। सीजन के कारण किसी भी ट्रेन में टिकट नहीं मिल सका था। तत्काल में भी कोशिश की लेकिन सफलता नहीं मिली। आखि़र हारकर एक स्लीपर बस का टिकट ले लिया। मुझे मालुम था कि बस की यात्रा इतनी आरामदेय नहीं हुआ करती है, लेकिन सरकारी काम के चलते यह सब कुछ तो सहन करना ही था। ठीक दस बजे स्लीपर बस अपने गन्तव्य के लिए रवाना हुई। पूरे चौदह घण्टे का सफ़र तय करना था इसी बस से, खैर - धीरे-धीरे सोने का प्रयास करने लगा। मैं सोचने लगा कि मेरे एक दिन की यात्रा में मैं इतना परेशान हो रहा हूँ लेकिन ये लोग तो रोज़ाना ही यात्रा करते हैं, बल्कि यूँ कहें कि इनकी तो ज़िन्दगी ही इसी बस में निकलती है। सुबह से शाम और रात से सुबह तक बस इसी में इनका बसेरा रहता है।
ना कहीं चैन का बिस्तर और ना ही घर का कभी खाना। बस जहाँ भी जगह मिली किसी ढाबे पर खा लिया और फिर चल दिए। इसी तरह के ख़यालों के बीच एक झटके के साथ ही बस रूकी। कण्डक्टर ने सभी यात्रियों से कहा कि चाय, पानी जो भी करना है कर लें, पूरे आधा घण्टा बस रूकेगी। उधर ढाबे पर जैसे रौनक आ गयी थी। ढाबे वाला लड़का ज़ोर-ज़ोर से आवाज़ें लगा रहा था। इन्ही आवाज़ों में एक आवाज़ आयी ’’ओये सुरजीते, उठ-ले, मंजी-तां ऐसे पड गया जां घर विच पड़ा हो। ओये अपणी नहीं तो इस मंजी दी सोच; ऐवें ही टूट जाणी है ऐनू । मेरा पूरा ध्यान इसी आवाज़ की ओर चला गया। मेरे ख़यालों में अब वो ड्राईवर नहीं था बल्कि अब वो चारपाई थी जो ढाबे के बाहर पड़ी थी और उस पर वो खलासी अभी भी पड़ा हुआ - कुछ बड़बड़ा रहा था कि अचानक वहीं आवाज़ फिर आयी। ओये खोतीए चल उठ, गड्डी दे सीसे साफ कर, होण चलणा है। मैं धीरे-धीरे ख़यालों में ही चलते ना जाने कब एक चारपाई पर जा बैठा, मुझे मालुम नहीं। सोच रहा था क्या तक़दीर है इस चारपाई की। क्या इसकी भी कोई अन्तर्व्यथा होगी।
कहीं इसके भी कोई अरमान होंगे। मीलों लम्बे इस काले सर्पिले हाईवे पर यह ढाबा और ढाबे पर पड़ी यह चारपाई। यदि मैं चारपाई होता तो मेरी क्या अनुभूति होती, इस तरह से हाईवे पर पड़े-पड़े! मैं जाने क्या-क्या सोचने लगा। इस खाट के भी अरमान होंगे। काश! ये भी कभी दुल्हन सी सजती। किसी की सुहागरात की साक्षी बनती। शरमाई सी दुल्हन इस पर बैठती, धीरे-धीरे घूंघट उठने की यह साक्षी बनती। और इसकी यादों में वो लम्हें हमेशा के लिए बस जाते जब वही दुल्हन इसी खाट पर......। लेकिन इस खाट की किस्मत तो विधाता ने ना जाने किस तरह की स्याही से लिखी है।
स्टीयरिंग संभाले घण्टों एक ही मुद्रा में बैठा कोई ट्रक का ड्राईवर या फिर उसी स्टीयरिंग को पकड़ हवा में उड़ने के सपने देखता खलासी, थकान से चूर हो आकर बस पसर जाते हैं इसी पर। और यह बेचारी बांझ वैश्या-सी सबके लिए बिछ जाती है, पर खुद कभी दुल्हन नहीं बन पाती है, किसी के ख़्वाबगाह में सज नहीं पाती है। अचानक ही बगल वाली खाट पर एक मोटा सा ट्रक ड्राईवर आकर ज़ोर से पड़ा। बेचारी वो उसका भार सहन नहीं कर पायी और - टूट गयी। वो ड्राईवर ज़ोर से चिल्लाया ओए...ऐनीयां कमज़ोर, मंजियां ढाबे बिच क्यों पाई हैं ! तुहाड़ा कि जान्दा , साडी कमर टूट जाती तां। ओए रणजीते मैनू हथ दे। उठणे दे वे, तां ए टूटी मंजी नू इक पासे डाल दे।
मैं सोच रहा था एक कमज़ोर कच्ची लकड़ी और मूंज से बनी इस खाट का क्या कसूर था। इतने सारे लोग बारी-बारी से इस पर पड़ते रहेगें तो ये बेचारी कब तक सहेगी। पर क्या करे, इसे तो इसी तरह से टूटना था। यही टूटन इसकी तक़दीर है। किस को परवाह है उसकी संवेदनाओं की, उसकी टूटन की, उसकी वेदना की। इन्हीं ख़यालों में खोया - मैं भूल गया था कि मुझे तो अहमदाबाद जाना था। मेरी बस का कण्डक्टर कब से मुझें आवाज़ें लगा रहा था - और मैं निश्चेत-सा बस उस ढाबे की खाट के बारे में सोच रहा था। मेरी बस के कण्डक्टर ने लगभग झिंझोड़ते हुए मुझे कहा, भाईसाहब -यहीं रहने का इरादा है क्या ? आपके कारण सभी यात्री लेट हो रहे हैं।
मैं सुस्त कदमों से अपनी बस में फिर से सवार हो गया। बहुत कोशिश की सोने की, लेकिन नींद तो उस टूटी खाट के दर्द से कहीं दूर रूठकर जा बैठी थी - और तेज़ रफ़्तार से दौड़ती इस बस में उसे कहाँ से लाऊँ। बार-बार वही ट्रक ड्राईवर का रूखा-सा चेहरा, उस खलासी का नींद में ढाबे की खाट पर पड़ना और एक झटके के साथ उस ड्राईवर के बोझ से टूटकर उस खाट का सिमटकर टूट जाना, मेरी आँखों के सामने आता रहा। सिनेमा की रील की तरह एक-एक कर सारे दृश्य - मेरे जहन में बैठ गये। मैं बेबस लाचार नींद के लिए।
मैं सोच रहा था पुरूष के लिए कितना आसान है कह देना कि इसे एक पासे डाल दे और दूसरी लेकर आजा। शायद उसकी नज़र में ढाबे पर पड़ी खाट और औरत में कोई फर्क नहीं है, जब तक जी चाहा उस पर पड़े रहे और जब टूट जाए तो दूसरी ले आओ। मैं सोचता रहा, क्यों इतना संवेदना शून्य होता है पुरूष? क्यों उसके मन में कोई भाव नहीं आता कभी भी अपनेपन का? खाट भी स्त्रीलिंग है और औरत भी स्त्रीलिंग, क्या विधाता ने स्त्रीलिंग की तक़दीर दर्द की स्याही से ही लिखी है। और यदि लिखी भी है तो मर्द को वो आँखे क्यों नहीं दी - जिनसे वो दर्द की इस तहरीर को पढ़ पाता। मैं भी एक पुरूष हूँ, क्या मैं भी ऐसा ही हूँ। शायद मैं वैसा नहीं हूँ, मैं अलग हूँ, लेकिन यदि अलग हूँ तो फिर कहीं ऐसा तो नहीं कि लोग मुझे पुरूष ही ना माने। मैं अपने आपको क्या समझुं, कुछ भी समझ नहीं आ रहा था - बस मेरी आँखों के सामने तो वही ढाबे की टूटी हुई खाट बार-बार आ रही थी और मानो कह रही थी तुम सब मर्द एक जैसे हो। कोई अन्तर नहीं है तुममें और उस ड्राईवर में। तुम मेरे दर्द को महसूस तो कर सकते हो, पर मेरे लिए कुछ भी नहीं कर सकते हो। वो बार-बार मेरा उपहास उड़ा रही थी, मानो कह रही हो जाओ बाबू जाओ अपने घर, बीवी इन्तज़ार कर ही होगी। मेरा क्या है, मेरी तक़दीर तो चूड़ी जैसी है, मेरी पीड़ा का ना कोई आरम्भ है और ना ही अन्त। मुझे फिर भी खुशी है थके-हारे किसी ड्राईवर, या खलासी को सहारा देकर अपने आगोश में समेट तो लेती हूँ। दुनियाँ की तरह दिखावा तो नहीं करती।
इसी अर्न्तकथा के बीच - मैं कब चौदह घण्टे की यात्रा पूरी कर अहमदाबाद पहुँच गया, मुझे मालुम नहीं। बस याद है तो वो हाइवे के ढाबे की टूटी खाट।
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योगेश कानवा
9414665936