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रोशनीघर की लड़की

रोशनीघर की लड़की

रात का गहरा सन्नाटा था, कभी कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज़ नीरवता को तोड़ देती थी। कई बार ऐसा होता कि नींद नहीं आती थी खाण्डेकर जी को आज भी ऐसा ही हो रहा था, बिस्तर पर करवटें बदलते परेशान हो वो बाहर आ गए, अंधेरी सी रात में बस तारों की रोशनी। टिमटिमाते तारे मानो कुछ कह रहे हों। वो बाहर लाॅन में घूमने लगे, मन नहीं लगा तो बाहर निकल लिए, रात के कोई दो बजे थे, वो धीरे-धीरे सुस्त कदमों से चहलकदमी करते से बस यूंही चल रहे थे। सामने दूरदूर तक समन्दर फैला था। आज लहरों की आवाज़ भी थोड़ी कम ही थी इसलिए सन्नाटा सा लग रहा था। वैसे भी समन्दर के किनारे रहने वालों या रेल की पटरियों के पास रहने वालों को ये आवाज़ें कभी बैचेन नहीं करती हैं।
खाण्डेकर जी बस इसी तरह से अपने ही ख्यालों में गुम बस चल ही रहे थे कि सहसा ही उनकी नज़र दूर अंग्रेजों के जमाने के बने रोशनीघर की तरफ गई । आज रोशनीघर में रोशनी नहीं है। वो रोशनीघर की तरफ चल पड़े अपनी ही यादों की जुगाली करते हुए । इस रोशनीघर को बन्द हुए ही पचासों बरस हो गये थे। इसमें कोई नहीं रहता था लेकिन फिर भी पिछले कुछ सालो से इसमें लगातार रोशनी होती है। कोई नहीं जानता कि वो रोशनी कौन करता है केवल खाण्डेकर जी ही जानते हैं क्योंकि एक रात इसी तरह से वो बैचेनी में बस चलते चलते रोशनीघर पहुंच गए थे, बस उसी रोशनी की तलाश मो अचानक ही होने लगी थी इस रोशनीघर में। आमतौर पर सब इसे भूत-प्रेत या किसी आत्मा का किया हुआ कृत्य मानते थे क्योंकि दिन के उजाले में उसमें किसी के भी रहने के कभी कोई निशान नहीं मिलते थे। हां तेज हवा के कारण साफ सुथरा ज़रूर रहता था। बस उस रात में जो देखा था उसे आज तक भी वो भुला नहीं पाये थे।
जिस तरह रोशनीघर बना था उस जगह से पार केवल समन्दर ही समन्दर था और समन्दर से किसी भी कोण से रोशनीघर के अलावा उस गांव को कोई भी चिह्न नज़र नहीं आता था। भटकते हुए जहाज के नाविकों को जीवन की उम्मदी बन्धती थी, तो केवल रोशनघर की उस रोशनी के कारण, लेकिन वो रोशनी करता कौन था? इसे बंद हुए तो पांच दशक से भी ज्यादा वक्त हो गया फिर रोशनी कैसे? वो चलते गये ठीक रोशनीघर के सामने पहुंचे कोई एक घण्टे बाद जहां से उसका गांव बहुत पीछे छूट गया था। वो रोशनीघर में डरते से दाखिल हुए। उन्हें भी लगता था कुछ तो है जो इस रोशनीघर को आबाद-सा कर रखा है। भीतर पहुंचकर चैंक पड़े, तीन नाविक और एक लड़की हल्की रोशनी में से दिख रही थी, उन्हें देखकर कर एक बार तो खाण्डेकर जी ठिठक गए । उन्हें लगा गांव वाले ठीक कहते हैं। यहां कोई प्रेतात्मा ही रहती है लेकिन अब तो वापस जाना भी संभव नहीं था सो हिम्मत बटोरकर वो जोर से बोले - कौन है वहाँ ं? आवाज़ सुनकर भीतर सभी चैंक पड़े लेकिन एक नाविक ने आगे बढ़कर बोला
जी हम हैं नाविक
उसने फिर बताया कि वो किस तरह से रास्ता भटक गए थे तथा अंधेर में कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। इधर उनके पास राशन पूरी तरह से खत्म हो चुका था, लेकिन तकदीर से इस रोशनीघर की रोशनी ने हमें जीवन की उम्मीद दी। हमने जहाज का रूख इसी ओर कर दिया तथा लंगर डाल दिए। हमें जमीन मिली तो केवल इसी रोशनीघर की रोशनी के कारण। खाण्डेकर जी बोले - लेकिन इसे बन्द हुए ही पचास बरस से ज्यादा हो गए हैं पता नहीं कोई सात-आठ साल से इसके भीतर रोशनी कौन करता है मालूम नहीं। हमने दिन में आकर कई बार देखने की कोशिश की लेकिन पता नहीं चला। खाण्डेकर जी की बात सुनकर वो नाविक मुस्कुराया और धीरे से उस लड़की की तरफ इशारा किया और कहा - यही है वो देवी जिसके कारण हमारी जान बच पाई है यही करती है इसके भीतर रोशनी हर रात, इस ने ही बताया है। उसकी पीठ खाण्डेकर जी की तरफ थी इसलिए वो देख नहीं पा रहे थे। वो धीरे से बोले देवी तुम कौन हो उधर से कोई जवाब नहीं मिला यही बात उन्होंने दोबारा दोहराई किंतु कोई जवाब नहीं मिला। मजबूर होकर खाण्डेकर जी स्वयं ही उसके सामने चले गये। उसका चेहरा देखते ही खाण्डेकर जी की ऐसी हालत हो गई कि काटो तो खून नहीं। उन्हें विश्वास नहीं हो रहा था कि उनकी आँखें जो देख रही हैं वो सच है। धीरे से अपनी आंखें मली और बोले तुम? तो ये रोशनी तुम करती हो। राह भटकते जहाजों को रास्ता तुम दिखा रही हो। यह कैसे संभव है तुम तो वही हो ना जिसे टोना टोटका करने वाली डायन बताकर पड़ौसी गांव से निकाला था। इस बार वो बोली - जी मैं वो ही हूँ जिसको पड़ौसी गांव ने ही नहीं आपके गांव वालों ने भी निकाला था और आप तो उस गांव के मुखिया हैं ना, आपने ही तो कहा था, पत्थर मार मार कर मारने के लिए,
--आपने ही तो कहा था, ना कि मैं आपके गांव के लड़कों को बिगाड़ दूंगी। और फिर पत्थरों से मारना शुरू हो गए थे सब आपके हुक्म पर। मैं नहीं जानती मैं कैसे बची थी, जब होश आया तो मैं समन्दर के किनारे पड़ी थी। धीरे से उठी तो फिर गिर पड़ी डर लग रहा था कि कहीं कोई देख ना ले नहीं तो मुझे मार डालेेंगे। बस किसी तरह इस रोशनीघर पहुंची और यहीं पीठ टिकाकर बैठ गयी थी। लेकिन रात को चिखती लहरों और जंगली जानवरों की आवाज़ों से मैं और डर गई थी। इसलिए अगले दिन मछलियां मारकर उनकी चरबी को जलाकर मैंने इस अंधेरे में रोशनी कर दी। तब से अब तक सैंकड़ों जहाज पनहा ले चुके हैं।

खाण्डेकर जी चुपचाप सुनते रहे फिर बोले लेकिन दिन में तो तुम यहां कभी नहीं मिली। फिर वो बोली - दिन के उजाले में तुम मुझे कहां जिन्दा छोड़ते मैं जंगल के भीतर चली जाती थी। इसलिए नहीं कि अब भी मुझे डर लगता है बल्कि इसलिए कि कोई भूला भटका राही, कोई राह भटका जहाज अपने हिस्से की ज़मीन पा सके उसे किनारा मिल सके।

उसकी बातें सुनकर खाण्डेकर जी सुस्त कदमों से चले गये हर रात वो रोशनीघर की रोशनी को जरूर देखते थे। लेकिन आज रात जब रोशनी नहीं दिखी तो वो बैचेन हो गये थे। रोशनीघर पहंुच कर देखा तो वो लड़की होठों पर चिरशांत मुद्रा लिए सीधी सो रही थी। कभी नहीं जागने वाली नींद में, मानो उपहास उड़ा रही हो खाण्डेकर जी जैसे समाज के ठेकेदारों का।

योगेश कानवा
105/67, मानसरोवर
जयपुर।

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