Nirapradh To Nahi Thi Dropadi bhi books and stories free download online pdf in Hindi

निरपराध तो नही थी द्रोपदी भी

निरपराध तो नही थी द्रोपदी भी


स्वर्गाधिपति का दरबार , दरबार में आज एक विचित्र सी स्थिति देखने को मिल रही है। सारे दरबारी सन हैं क्योंकि ऐसा ना कभी किसी ने सोचा था और ना किसी ने कोई कल्पना की थी । महाभारत काल से इस कलयुग तक ऐसा क्या था कि यह बात कभी सामने नहीं आ पाई । आज पहली बार द्रोपदी ने युधिष्ठिर की गिरेबान पकड़कर स्वर्गाधिपति के दरबार में लाकर सबके सामने स्वर्गाधिपति से कहा - यह मेरा दोषी है इसको कोई अधिकार नहीं था भरे दरबार में चौसर के दांव में मुझे दाव पर लगाने का। यह धर्मराज था क्या इसने‌ धर्म का पालन किया ? क्या धर्मराज ऐसा ही होता है जो धर्म का ही पालन ना करें। वह कैसा धर्मराज इससे पूछा जाए कि किस अधिकार से इस व्यक्ति ने जो मेरा पति कहलाता था मुझे दाव पर लगाया। सब लोग सन सब देख रहे थे । हजारों हजारों साल तक मौन रहने वाली द्रौपदी आज क्यों बोल रही है और वह भी युधिष्ठिर का गिरेबान पकड़कर। युधिस्टर मोन । वह दरबार में सबके सामने अपने ऊपर हुए इस अत्याचार का न्याय मांगने आई है। न्याय - क्या वाकई उसे न्याय की ज़रूरत है यह भी विचारणीय प्रश्न था क्योंकि युधिष्ठिर कौन था । कहने को धर्मराज -
जब धर्मराज ने इस नीति को नहीं माना , नहीं जाना हजारों हजारों साल से द्रोपदी को इस पर पर कोई आपत्ति नहीं थी तो अचानक ही ऐसा क्या हुआ कि आज द्रोपदी ने युधिस्टर पर अंगुली उठाई । वैसे देखा जाए तो क्या द्रोपदी को इस तरह से दांव पर लगाने का उसको अधिकार था? क्या कोई व्यक्ति अपनी पत्नी को दाव पर लगा सकता है ? पत्नी जो एक जीती जागती प्राणी है तो क्या किसी अन्य प्राणी को दूसरे प्राणी को दांव पर लगाने का हक़ है । इस बात पर विचार करने के लिए द्रोपदी ज़ोर दे रही थी । द्रोपदी का यह कहना किसी तरह से शायद गलत न था लेकिन द्रौपदी के साथ कौन था । जो यह कह सकता कि हां द्रोपदी के साथ में अन्याय हुआ है । दूर एक कोने मे सीता,अहिल्या,यशोधरा,उर्मिला जैसी सैकड़ों स्त्रियाँ मौन‌ साधे द्रोपदी के इस साहस की तारीफ मन‌ ही मन कर रही थी। इसी बीच अर्जुन उठता है और युधिष्ठिर को दोषी करार देते हुए एक ही बात कही, हां भ्राता श्री को कोई अधिकार नहीं था किसी को भी दांव पर लगाने का । किस अधिकार से सब को दाव पर लगाया । यह प्रश्न तो उठना स्वाभाविक है। मैने आज तक भ्राता श्री पर कभी कोई प्रश्नचिन्ह नहीं लगाया है किंतु यह बात सत्य है कि भ्राताश्री ने हम सब को दांव पर लगाकर अनुचित कार्य अवश्य किया है । इस अनुचित कार्य के लिए भ्राता श्री को प्रायश्चित तो अवश्य करना ही चाहिए । रही बात देर होने की तो निसंदेह हजारों हजारों साल बीत चुके हैं । यह बात पहले भी उठाई जा सकती थी किंतु कदाचित साहस नहीं बटोर पाया था। और आज जब द्रोपदी ने अपनी पीड़ा को सर्व समक्ष रखा है ,स्वर्गाधिपति के न्यायालय में रखा है तो निश्चय ही न्याय होना चाहिए। युधिष्ठिर कोई जवाब नहीं दे पा रहा था। जवाब भी क्या देता ,अर्जुन जो उसे जान से भी अधिक प्रिय था। आज वही उस का प्रतिरोध कर रहा था। युधिष्ठिर समझ नहीं पा रहा था कि आखिर ऐसी कौन सी बात हुई है कि द्रोपदी को आज अचानक ही यह बात उठानी पड़ी और फिर अर्जुन भी उसके साथ हो गया । ज़रूर कहीं ना कहीं कोई गड़बड़ तो है । युधिष्ठिर सोचे ही जा रहा था तभी नारायण नारायण की आवाज़ करते हुए नारद का आगमन होता है । नारद जो सदैव खबरें इधर से उधर करने में और सही बात कहें तो इधर की उधर लगाने में कभी भी नहीं चूकते थे । और नारद की लगाई हुई आग बुझाए भी नहीं बुझती थी नारद ने कहा आज द्रौपदी युधिष्ठिर का गिरेबान पकड़ रही है तो कदाचित‌ उसके साथ अन्याय तो हुआ है अब आप ही सोचिए यदि द्रोपदी जिसको अर्जुन जीत कर लाया था उसी की पत्नी होती तब भी क्या धर्मराज उसे दाव पर लगाते ? अब इसका फैसला तो स्वर्गाधिपति ही कर सकते हैं। नारायण नारायण । अन्याय किसके साथ हुआ है कौन दोषी है कौन‌ नही । बात तो सही कि द्रोपति के साथ में अगर अन्याय हुआ है तो अन्याय कहीं ना कहीं अर्जुन के साथ भी हुआ है । फिर तो अन्याय अभिमन्यु के साथ हुआ था ,अन्याय तो देवव्रत के साथ भी हुआ है। ये खड़ी देवी अहिल्या इसके साथ भी हुआ था,सीता के साथ भी हुआ था,यशोधरा के साथ हुआ था ,उर्मिला के साथ हुआ था कौन-कौन से अन्याय का हिसाब आज किया जाएगा आज। स्वर्गाधिपति तनिक विचार कीजिए।
नारायण नारायण ।
नारद की इस बात से सभी सोच में पड़ गए और बस सब को को उलझा कर नारायण नारायण कहते हुए नारद अंतर्ध्यान हो गये । स्वर्गाधिपति के सामने न्याय करने की उलझन थी वो समझ नहीं पा रहे थे किस तरह से और किसके पक्ष मे न्याय करें। उन्होंने चित्रगुप्त से अकेले में बात करने की मंशा जाहिर की। चित्रगुप्त हां हां वही चित्रगुप्त जो सबके लेखे जोखे रखते हैं । सबकी वही अपने मन में लेकर चलते हैं और सबके कर्मों का लेखा बताने वाले चित्रगुप्त। लेकिन संकट अब यह था था कितने हजार साल पुरानी बही चित्रगुप्त कहां से टटथा।
े। किसने कौन कौन कौन से कर्म किए थे और किस तरह से उनका हिसाब अब स्वर्गाधिपति को बताया जाए । संकट बड़ा था लेकिन जब स्वर्गाधिपति ने पूछ लिया तो थोड़ा सा समय मांगा ।और कहा की 5000 साल पुराने इस इतिहास को खंगालने में समय लगेगाअतः अगली तारीख दे दी जाए। आप जानते हैं ना अदालत में आजकल क्या होता है ? तारीख पर तारीख ,तारीख पर तारीख पर बस केवल , और न्याय नहीं मिलता। चित्रगुप्त जानते थे इसलिए उन्होंने अगली तारीख मांग ली थी। अब पैरवी कौन करेगा सवाल तो यह भी था। द्रोपदी ने युधिष्ठिर को अगर दोषी करार दिया है तो इसका फैसला तो करना पड़ेगा और फैसला करने के लिए दोनों तरफ से किसी ना किसी को पैरवी भी करनी पड़ेगी । अब नारद ने तो ना युधिस्टर का पक्ष लिया और ना ही द्रोपदी का लेकिन एक तरह से आग सी लगा दी या यूं कहें कि द्रोपती के पक्ष को थोड़ा सा मजबूत कर दिया था । कमजोर पक्ष को लिए युधिस्टर अब कटघरे खड़े हैं। चित्रगुप्त चाहते हैं कि किसी रूप में भी युधिष्ठिर को बचाया जाए क्योंकि चित्रगुप्त भी पुरुष हैं । और वह नहीं चाहते हैं कि युधिष्ठिर को किसी तरह से दोषी सिद्ध होने दिया जाए । चित्रगुप्त अपने दिमाग के घोड़े दौड़ाने लगे हैं। और 5000 साल के पूरे इतिहास को खंगालने लगे वाकई इतिहास खंगाला गया तो कहीं अहिल्या निकली, कहीं पर वारक्षी निकली तो कहीं पर सीता। हां हां वही सीता जिसको रामचंद्र जी ने हां भगवान कहे जाने वाले रामचंद्र जी ने किसी के कहने से अपनी पत्नी को गर्भवती होने के बावजूद भी वन में छुड़वा दिया था । क्योंकि उनके मन में भी कहीं ना कहीं यह जरूर था कि वह था शीलवति है या नही। चित्रगुप्त असमंजस में क्या करें क्या ना करें अगर इस तरह से इतिहास को आज के संदर्भों मे देखा जाएगा तो सब गड़बड़ हो जाएगा । युधिष्ठिर को तो बचाना है , लेकिन अब द्रौपदी के पक्ष में अर्जुन भी तो खड़ा हो गया है । चित्रगुप्त के दिमाग में एक बात आ गई और उन्होंने इस बात को अगली तारीख को रखने की बात सोच ली ।
अगली तारीख आ गई । स्वर्गाधिपति का दरबार वैसे ही लगा हुआ लेकिन आज द्रोपदी के हाथ में युधिष्ठिर का गिरेबान नहीं था । एक तरफ द्रौपदी खड़ी है तो दूसरी तरफ युधिष्ठिर। द्रोपदी का पक्ष लेने के लिए फिलहाल कोई भी नहीं है या यूं कहें कि उसका कोई वकील नहीं था लेकिन युधिष्ठिर का वकील तो चित्रगुप्त बन गया था। मामला धर्मराज की प्रतिष्ठा का भी था। और धर्मराज की प्रतिष्ठा को बनाए रखना चित्रगुप्त का धर्म भी था। ऐसे में स्वर्गाधिपति के आदेश से चित्रगुप्त ने युधिष्ठिर की पैरवी शुरू की और कहा - द्रोपदी की बात बिल्कुल सही है। धर्मराज को द्रोपदी को दांव पर लगाने का कोई अधिकार नहीं था लेकिन एक बात है जो बहुत विचारणीय नहीं है। जब युद्ध में द्रोपदी को अर्जुन जीतकर लाया था तो वह पत्नी किसकी हुई यह सीधा प्रश्न मेरा द्रौपदी से ही है । बताओ द्रौपदी तुम्हें युद्ध में जीतकर कौन लाया था ?
यदि अर्जुन ने तुम्हें जीता था तो क्या केवल अर्जुन ही तुम्हारा पति होना चाहिए था ।यह सही है या नही? द्रौपदी मौन , इतिहास सबके सामने है ।
द्रोपदी ने फिर कहा मातृ आज्ञा के कारण अर्जुन में बंटवारा किया था। चित्रगुप्त फिर बोले हां बिल्कुल ठीक है कुंती के आदेश पर ही अर्जुन में द्रोपदी का बंटवारा कर दिया था, लेकिन द्रौपदी कोई वस्तु नहीं थी । वह तो जीती जागती एक नारी थी । जिसको स्वयं यह अधिकार था कि वह उस बात का प्रतिकार कर सकती थी। लेकिन क्या द्रौपदी ने उस वक्त इस बात का प्रतिकार किया ? नहीं किया और जब प्रतिकार नहीं किया तो क्या उस वक्त द्रौपदी दोषी नहीं थी ? और यदि द्रौपदी दोषी थी तो उस दोष का उसको कहीं ना कहीं भागीदार बनना पड़ेगा । और ऐसे में यदि युधिष्ठिर को पति के रूप में अंगीकार किया तो एक पति का यह अधिकार हो जाता है कि वह अपनी पत्नी के साथ पत्नी जैसा चाहे बर्ताव करें। इसी बात पर द्रोपदी लगभग चीख पड़ी स्वर्गाधिपति यह बात सही है कि मैंने विरोध नहीं किया था और वह विरोध मैंने इसलिए नहीं किया था क्योंकि अर्जुन ने अपनी माता के वचनों को निभाने के लिए माता की बात को निभाने के लिए अपनी वचनबद्धता जाहिर की थी । ऐसे में जो मुझे विजय करके लाया था उस पुरुष की वचनबद्धता का उल्लंघन मैं कैसे कर सकती थी । यह सच है कि मैं केवल अर्जुन की होकर आई थी और ऐसे में यदि कोई त्रुटि हुई है तो वह मेरी नहीं बल्कि मां कुंती की है। मेरा विनम्र निवेदन है कि मां कुंती को भी कटघरे में खड़ा किया जाए । क्योंकि इस महाभारत का लेखन तो वहीं से शुरु से शुरु हो गया था जब माता कुंती ने मेरे बंटवारे की बात कह दी थी । अब आप ही बताएं कि माता कुंती ने वह बंटवारा अपने विवेक से किया था क्या ? इस बात पर चित्रगुप्त बोले देवी द्रौपदी आप ठीक कह रही है किंतु उस वक्त कुंती कठघरे में नहीं थी, उस वक्त वह अत्याचार कुंती पर नहीं हो रहा था ,आपके हिसाब से यदि बहुत विचार किया जाए तो वह अत्याचार केवल द्रोपदी पर था। और यदि द्रौपदी ने उसका प्रतिकार नहीं किया तो निश्चित रूप से उस अपराध के लिए द्रौपदी भी उतने ही जिम्मेदार है जितनी कि युधिस्टर द्रौपदी को दांव लगाने के लिए है। तो यदि सजा देनी है यदि न्याय करना है तो न्याय बराबर का होना चाहिए । दोषी दोनों है बल्कि दोनों ही नहीं कई लोग हैं न्याय तो कर्ण के के साथ भी नहीं हुआ था , न्याय तो सीता के साथ भी नहीं हुआ था । कहां न्याय हो पाया। न्याय तो मत्स्यगंधा के साथ भी नहीं हुआ था ,उसे भी तो कन्या होने के नाते कालिंदी में बहा दिया गया था । कौन कौन सी न्याय की बात का‌ न्याय करेंगे । हम सब कहीं ना कहीं दोषी हैं ऐसे में किसी एक को दोषी ठहराया जाना किसी भी तरह से न्यायोचित नहीं है । स्वर्गाधिपति निर्णय आपके हाथ में है क्योंकि युधिष्ठिर इस बात के लिए दोषी नहीं है दोषी तो स्वयं द्रौपदी है। यदि द्रौपदी ने उसी दिन इंकार कर दिया होता तो यह महाभारत नहीं लिखी जाती । इसलिए अगर युधिस्टर दोषी है तो द्रोपदी भी दोषी है। स्वर्गाधिपति का फैसला अभी आना बाकी है लेकिन यह जरूर कहा जा सकता है कि मामला बड़ा पेचीदा है ।निरपराध तो द्रौपदी भी नहीं है।
तभी अचानक डोरिना की आंख खुल गई पूरी तरह पसीने से तर-बतर । सेकंड एसी कोच में भी उसे पसीने ने पूरी तरह से भिगो दिया था । अपना मोबाइल उठाकर देखा ठीक 4:15 बजे थे सुबह के । पूरे कोच में सन्नाटा सोच रही थी यह क्या था। डोरिना जो अपने तीखे अंदाज और पुरुष विरोधी नारी मुक्ति आंदोलन चलाने वाली बेहद तेजतर्रार मानी जाती थी । इसको पूरी दुनिया में सुनने के लिए हजारों हजारों की संख्या में नारी मुक्ति आंदोलन चलाने वाली कर्त्री आती थी , इस तरह से पसीना पसीना । उसने उठ कर पानी पिया । सोचने लगी इस सपने का अर्थ क्या है ? यह सपना मुझे क्यों आया ? क्या वाकई द्रोपदी निरपराध नहीं थी। अहिल्या को तो पत्थर बना दिया था ना तो फिर अहिल्या कैसे दोषी थी ? दोषी थी कैसे सीता भी दोषी कैसे थी थी , लेकिन इन सब बातों का जवाब मिल गया था । सपने में उसे लगा कि सपने में माता ने उसे खुद समझाया है कि दोषी केवल एक व्यक्ति नहीं होता है, गलती कभी एक तरफा नहीं होती है। दोनों तरफ से होती है ,अगर सीता को वनवास देने का वन में भेजने का निर्णय, राम का गलत था तो सीता का विरोध ना करना भी गलत था । अहिल्या अपने पति को न पहचान पाई उसकी गलती थी क्योंकि कहा जाता है औरत अपने पति को सांस से ही पहचान लेती है। द्रोपदी की भी गलती तो थी जब उसने कुंती के कहने पर पांच भाइयों की पत्नी बनना स्वीकार किया था । क्यों स्वीकार किया ? गलती तो थी और इस गलती को मान लेना चाहिए । अकेले युधिस्टर की ही तो गलती नहीं थी ना । मैं मानती हूं यह आज , मैं मानती हूं कि अकेले पुरुष की गलती नहीं हो सकती । गलती दोनों तरफ से होती है । गाड़ी अपनी रफ्तार से दौड़ने जा रही थी उस मायानगरी की तरफ की तरफ जहां उसे सुबह एक नारी मुक्ति आंदोलन की सभा को संबोधित करना था । गाड़ी गंतव्य पर पहुंची सैकड़ों की संख्या में मुक्ति आंदोलन से‌ जुड़ी स्त्रियों की भीड़ उसे लेने आई थी । वह मंच पर बैठी थी और मंच पर उसे बार-बार वही सपना उसके जेहन में घूमने जा रहा था । आज पहली बार जब बोलने लगी तो उसके तेवर तल्ख नहीं थे । आज पहली बार उसने कहा की गलती दोनों तरफ से होती है एक तरफ से नहीं। हम औरतें भी किसी ना किसी तरह से कहीं ना कहीं ग़लत तो हैं। अकेले‌ पुरुष ही दोषी नही कहे जा सकते हैं। और फिर उसने द्रोपदी सीता अहिल्या के उदाहरण दे डाले ।आज पहली बार उसके मन‌ मे पुरुषों के‌ लिए भी कुछ सम्मान था।

योगेश कानवा
105/67 मानसरोवर
जयपुर - 302020

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