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Yatharth Ki Jhadiyan

रात का सन्नाटा पसरा था । एकदम शान्त माहोल, घड़ी की टिक टिक के अलावा कुछ भी आवाज़ नहीं, बस यूं समझिए कि घड़ी मुस्तैदी से अपनी ड््यूटी पर तैनात है सैकण्ड दर सैकण्ड अपना चक्कर पूरा करती, बिना किसी से कुछ कहे, बिना किसी शिकायत के । शिवानन्द जी ने करवट बदली तो बगल में ही सो रही सुलेखा जी ने पूछा क्यों क्या हुआ नींद नहीं आ रही क्या ? मेरी छोड़ो तुम्हें कहां आ रही है तुम भी तो जग ही रही हो । शिवानन्द जी बोल पड़े । जैसे ही शिवानन्द जी ने बोला तो बाहर कुछ आवाज़ सी हुई, वे तत्काल बोले अरे कौन है बाहर ? बोलते हुए अपना डण्डा संभालने लगे । अब डण्डा तो बुढ़ापे का सहारा है ना । उन्होने लाइट का स्विच इबाया बाहर रोशनी से पूरा बरामदा जगमगा गया एक साथ दो-तीन बल्ब जगमगा उठे । उस उजाले में कोई छाया दौड़ती सी नज़र आई, बाहर दौड़ने की आवाज़ स्पष्ट सुनाई दे रही थी । वे थोड़ा और ज़ोर से बोले, ठहर जरा कौन है देखता हूँ । डण्डा उठाकर अपने कमरे में ही डण्डा फर्श पर फटकारने लगे । बाहर जो भी कोई था वो जाग होने के कारण भाग गया था । शिवानन्द जी की उम्र हो चुकी थी वे दौड़कर उसको नहीं पकड़ सकते थे । धीर धीरे करके बाहर बरामदे में आए, देखा सब अपनी जगह पर है । वे बरामदे में ही घूमने लगे थे, पीछे पीछे सुलेखा जी भी आ गई थी वे बोले अरे तुम क्यों आ गई,जाओ आराम करो, मैं आता हूँ । नहीं जी आप जानते हो ना जहां आप हो वहीं मैं हूँ, ऐसे ही थोड़े अकेले छोड़ दूंगी, परछाई हूँ मैं आपकी । देखना जिस दिन इस दुनिया से जाएंगे ना तब भी आपके साथ ही चलूंगी । अरे तुम भी ना पता हीं क्या क्या बोलती रहती हो । वे बा कर ही रहे थे कि चौकीदार आ गया था, सड़क पर डण्डा फटकारता, एक हाथ में टार्च, सर पर गोरखा टोपी और दूसरे हाथ से मुंह में विसल लगा कर उसे बजोते हुए । वो घर के सामने आया तो बोला क्या हुआ बाबूजी आज सोए नहीं ।
अरे तुम कहां चले जाते हो अभी अभी कोई यहां बरामदे में छुपा था मेरे जागने पर वो यहां से भाग खड़ा हुआ है । क्या बात कर रहे हो बाबू जी मैने तो किसी को नहीं देखा । किधर गया वो शैतान का बच्चा । ये तो मैं नहीं बता सकता हूँ कि किधर गया लेकिन मेरे लाइट आन करते ही भाग गया था । बस उसके भागने की आवाज़ आई और दूर जाती सी कोई परछाई । अब ये बूढ़ी आंखों से साफ दिखता भी तो नहीं है ना । कोई नहीं बाबूजी आप आराम करो मैं देखता हूँ । चौकीदार चला गया, उसी तरह डण्डा फटकारता सीटी बजाता हुआ । शिवानन्द जी ने सुलेखा जी का हाथ पकड़ा और भीतर की ओर चल दिए । भीतर से दरवाज़ा बन्द किया और बिसतर में धीरे से लेट गए । अब नींद कोसो दूर जा चुकी थी । कभी इधर करवट लेने कभी उधर, कमोबेश यही हाल सुलेखा जी का भी था । धीरे धीरे इसी तरह से न जाने कब नींद आ गयी, पता नही चला । उनकी नींद खुली जब आहर से किसी ने घण्टी बजाई । सुलेखा जी ने उठते हुए कहा तुम रूको मैं देखती हूँ दूधवाला होगा, हां दूधवाला ही था, वो बोला अंटी जी आज घणी देर तक सोया सब ठीक तो है ना । सुलेखा जी ने गरदनप हिलाकर हां भी भरी, दूध पतीले में लिया और सीधे किचन की ओर चल दी । चाय चढ़ाकर मुंह धोने चली गयी थी, इधर शिवानन्द जी ने मुंह धो लिया था सो चाय छानकर लाने लगे अरे मैं आ रही थी ना । अब म ैले आया तो क्या हो गया, लो आ जाओ, चाय पीलो । पानी तो ले आऊं, वो बोली और घड़े से दो ग्लास पानी ीर कर दोनो हाथों में एक एक ग्लास लेकर धीरे धीरे चलती वो सोफे पर बैठ गयी थी । पानी पिया फिर चाय की चुस्की लेने लगे । सुलेखा जी के घुटनों में बहुत दर्द रहता था । वैसे दर्द तो शिवानन्द जी के भी कमर और घुटनों में होता था लेकिन सुलेखा जी के थोड़ा ज्यादा था । सुनो बाहर चटक धूप निकली है चलो जरा बाहर कुर्सी डालकर दोनो घुटनों में वो दर्द वाला तेल लगा लेती हूँ । तुम्हारे भी लगा देती हूँ । चलो,
- ओह ओ मेरी छोड़ो तुम खुद ही लगालो नही ंतो मेरे को दो मैं लगा देता हूँ
- अरे नहीं अब इस बुढ़ापे में तुमसे सेवा करवाऊंगी मैं, नहीं रहने दो लगा लूंगी ।
- अरे जब तुमने सेवा की है मेरी, तो मैं भी तो कर सकता हूँ नो तेरी, लाओ इधर दो ये तेल ।
- हूँ जानती हूँ, बड़ा प्यार आ रहा है बुढ़ाने में भी, मेरे घुटनों पर तेल लगाओगे, नियत ठीक नहीं लगती है आज
- चलो मानती तो हो कि अभी भी नियत बिगड़ सकती है ।
बस इसी तरह की हंसी ठिठोली में सुबह बाहर धूप में बैठकर दोनो एक दूसरे के घुटनों में दर्द निवारक तेल की मालिश करते रहे । सुलेखा जी बोली सुना नाश्ता बना लेती हूँ, क्या खाओगे । वो इतना ही पूछ पाई कि भीतर टेलीफोन घनघना उठा ----- ट्रिन --- ट्रिन ---- ट्रिन-- ट्रिन । लम्बी घण्टी थी, दूर से काल था । सुलेखाजी और शिवानन्द जी जानते कि किसका कॉल होगा । शिवानन्द जी बोले अरे देखो ज़रा सुरभी का कॉल होगा । हां - हां पता है उसके अलावा कौन करेगा, तुम्हारा बेटा और बहु तो हाल पूछने से रहे, ये तो हमारी बेटी है जो हर दूसरे तीसरे दिन हमारी ख़ैर ख़बर ले लेती है । बेटे को तो बहु से ही फुरसत नहीं है । --- पहले फोन तो उठा लो फिर कोस लेना बेटे बहु को । शिवानन्द जी की बात को काटकर सुलेखा जी बोली हाँ हाँ उठा रही हूँ । फोन वाकई सुरभी का ही था वो भी वैसे तो विदेश मे ही थी लंदन मे रहती थी लेकिन बिना लांघा के मां, बाप का हाल चाल पूछती थी उनकी ज़रूरत की चीजें आन लाइन भेज देती थी, शुरू शुरू में शिवानन्द जी ने उसे मना किया था लेकिन अब मना नहीं करते हैं कभी कपड़े, कभी जूते, कीी घर का ज़रूरी सामान सब कुछ सुरभि लंदन में बैठी ही भिजवा दिया करती थी एक क्लिक के साथ । दोनो मां बेटी बात करती रही फिर सुलेखा जी ने आवाज़ लगाई - लो सुरभि से बात करलो । आवाज़ के साथ ही शिवानन्द जी धीर से उठे और बात करने लगे बेटी के साथ । उससे बात करके बड़ा सुकून मिलता था । थोड़ी राहत मिलती थी वरना बेटा तो न्यूयार्क क्या गया बस वहीं का होकर रह गया । शुरू शुरू मे तो उसके फोन हर दूसरे तीसरे दिन आ जाया करते थे लेकिन धीरे धीरे हफ्ते से आने लगे फिर हफ्ता महिने में और अब महिनो में भी नहीं । एक आध बार शिवानन्द जी ने खुद काल किया तो वो अनमके बोल देता था पापा बाद में बात करता हूँ अभी बिजी हूँ मैं । और फिर वो बाद नहीं आता था । बस यूंही भीतर ही भीतर रोकर वो कुढ़ते रहते जानती तो सुलेखा जी भी थी कि वो भीतर ही भीतर टूट चुके हैं लेकिन बाहर से पुरूष होने के नाते खुश दिखते और कुछ ओर करने लग जाते । दोनो की उम्र कोई अस्सी के लगभग थी । सुरभि से बात करने के बाद आज न जाने क्यों शिवानन्द जी की आंख भर आई थी वो धीरे से मुंह फेरकर टायलेट की तरफ चले गए । सुलेखा जी धीरे से उठी और पीछे से उनकी पीट पर हाथ रखकर बोली ---- मैं हूँ ना, मेरे लिए तुम हो और तुम्हारे लिए मैं हूँ । हम दोनो को ही रहना है । वो देखा था ना चिड़ा और चिड़ी को कैसे जतन से घौंसला बनाया था, अण्डों को सेती थी और अपनी चोंच में भर कर चुग्गा लाकर कैसे बच्चों को खिलाती थी और फिर जब वो ही बच्चे बड़े हुए थो तो फुर्र से उड़ गए थे । आए थे क्या दुबारा वो ---- नहीं आए थे । तो बस समझ लो हम दोनो का ही साथ है और यही तो सच भी है । यथार्थ झाड़ियों मे फंसे पक्षी के समान होता है जिसे हम देख तो सकते हैं लेकिन पकड़ नहीं सकते हैं पकड़ने की कोशिश करेंगे तो वो लहुलुहान हो जाएगा या मर जाएगा लेकिन पकड़ में नहीं आएगा । निर्मला वर्मा ने भी तो लिखा है - ”यथार्थ पक्षी की तरह झाड़ी मे दिपा रहता है उसे वहां से जीवित निकाल पाना उतना ही दुर्लभ है जितना उसके बारे में निश्चित रूप से कुछ कह पाना जब तक वो वहां छिपा है“
बस यही यथार्थ की झाड़ियां शिवानन्द जी के सामने थी, सुलेखा जी के सामने थी । दोनो एक दूसरे के साथ, लेकिन नितान्त अकेले । शिवानन्द जी की भीगी आंखों को पोछते हुए सुलेखा जी ने आज अचानक ही उन्हें अपनी बांहो म ेले लिया । अरे ये क्या अब हम बूढ़े हो गए हैं । ----- तो क्या हमारी उम्र ही तो बड़ी है जज़्बात थोड़े ही मर गए हैं जी वो बोलते हुए किसी शोख हसीना सी लग रही थी वैसे ही शर्माना, वैसे ही अदा । शिवानन्द जी बस अपनी हंसी नहीं रोकपाए । अब दोनेहंस रहे थे वो अपने यथार्थ को भूल गए थे कि वे दोनो ही हैं बस । रोजाना की तरह ही आज भी दोनो ने मिलकर दोपहर का खाना बनाया और इस उर्म में भी दोनो एक दूसरे को पहला निवाला अपने हाथ से ही खिलाया करते थे । दोनो एक दूसरे के साथ, एक दूसरे का सम्बल । समय की रफ़्तार बहुत तेज होती है पता ही नहीं चला कब दोनो को साथ साथ साठ बरस बीत गए । आज उनकी साठवीं वर्षगांठ है विवाह की । दोनो एक दूसर के सुख दुख के साथी, जीवन की कठिन डगर पर साथ मिलकर चले हर ग़म में हर खुशी में । सुबह उठे तो बस रोज़ना की तरह सुलेखा जी ने चाय चढ़ाई और शिवानन्द जी ने छान कर दोनो कप सेन्टर टेबल पर रखे तभी फोन की घण्टी बजी । आज सुबह सुबह फोन ----- किसका होगा ? बोलते हुए सुलेखा जी ने फोन उठाया ही था कि उघर दरवाजे पर भी घण्टी बजी । शिवानन्द जी ने दरवाज़ा खोला तो सामने सुरभि खड़ी थी, उसके बच्चे और कुंवर साहब सब खड़े थे । यूं बिना किसी सूचना के सबका आना, शिवानन्द जी को अन्दर से खटका सा लगा । उघर सुलेखा जी फोन पर समधन से बतिया रही थी । समधन हां इंग्लैण्ड से सुरभि की सास का कॉल था । समधन ने साठवीं वर्षगांठ की बधाई दी । फोन रखकर बोली कौन है जी दरवाज़े पर, शिवानन्द जी बोले खुद ही आकर देख लो जी । सुरभि, दामादजी और बच्चों को सामने देखकर सुलेखा जी की खुशी का ठिकाना न रहा वो समझ गई थी कि सुरभि ने ही अपनी सास को बताया है । शायद शिवानन्द जी को आज का दिन याद नहीं आया था सो पूछ बैसे किसका फोन था । सुरभि जानती थी लेकिन बोली पापा वो सब छोड़ो --- सबसे पहले तो मम्मी और पापा को ”हैप्पी एनिवर्सरी“ । आज कोगी ग्रांड पार्टी क्यों बच्चों नाना नानी की सिक्सटीएथ एनिवर्सरी का सेलिब्रेशन हो जाए --- यस मॉम । शिवानन्द जी की खुशी का ठिकाना न था कि बेटी दामाद बच्चे कितना ख़याल रखते हैं तभी टेलीफोन एक बार फिर बज उठा इस बार शिवानन्द जी गए उठाने --- उघर से समधी जी और समधन दोनो ने विवाह वर्षगांठ की बअधाइयां दी और नहीं आ पाने के लिए क्षमा याचना भी कर डाली ।
शाम को वाकई एक ग्राण्ड सेलिब्रेशन रखा गया । सुरभि हर चीज का बहुत बारीकी से ध्यान रख रही थी । समय कम था इसलिए सभी मेहमानो को फोन करके ही बुलाया गया था । पार्टी भी अरेंज की गई शहर के सबसे महंगे होटल में । शिवानन्द जी यू ंतो बहुत खुश थे लेकिन भीतर कोई फांस थी बेटे और बहु के फोन तक नहीं करने की । फिर सोचने लगे शायद उन्हें मालुम न होगा लेकिन इस भ्रम को तोड़ा सुलेखा जी ने, उन्होने बताया कि सुरभि ने दोपहर ही भई से बात की है और बताया कि आज मम्मी पापा की एनिवर्सरी है । भाई ने कोई उत्साह नहीं दिखाया और बोल दिया कि वो पापा से बात करेगा । लेकिन उसका कॉल नहीं आया था दिन में । अभी पार्टी चल ही रही थी कि सुरभि के मोबाइल पर उसके भाई का कॉल आया । सॉरी दीदी मैं पापा को कॉल नहीं कर पाया था बिजी था अभी भी मैं शिकागो जा रहा हूँ, डॉ. रीना भी मेरे साथ ही है । मेरी तरफ से तुम ही पापा को बिश कर देना ना दीदी ---- ओ के भाई स्वीट सिसं । और फोन डिस्कनेक्ट हो गया शिवानन्द जी उसके चेहने के भावों को पढ़ने का प्रयास कर रहे थे । सुरभि बोली पापा भैया का कॉल था वो अभी बहुत बिजी है आपको एनिवर्सरी विश कर रहा था र् वो बोल गयी लेकिन उसकी आवाज़ के दर्द को नहीं छुपा पाई । उधर शिवानन्द जी और सुलेखा जी को लगा जैसे किसी ने थप्पड़ मारा हो इस तरह फोन करके । लेकिन कुछ नहीं बोले । सभी मेहमान विदा लेकर घर चले गए । पूरे पांच दिन तक घर में खूब चहल पहल रही छठे दिन सुबह ही उन्हें लंदन की फ्लाइट से रवाना होना पड़ा बेटी, दामाद और बच्चों के चले जाने के बाद एकदम सुनसान । फिर वही दोनो प्राणी, फिर वही सन्नाटा और फिर वही अकेलापन । दिनभर मन नहीं लगा दोनो का ही इसलिए दोपहर में खाना भी नहीं बनाया था लेकिन पेट की अगन तो जलाती ही है ना सो शाम को र्थोड़ा जल्दी ही खाना बनाने लग गई थी सुलेखा जी, खाना बनाया, खाया और बरामदे में ही बाहर दोनो कुर्सी लगाकर बैठ गए मानो उन्हें अब भी उम्मीद थी कि बेटी दामाद वापस आ जाएंगे । ठण्ड बढ़ने लगी थी बाहर, सुलेखा जी ने लिहाफ ओढ लिया था और बोली कुछ ओढ लो जी वरना जुकाम हो जाएगी । अरे अब क्या बोलें, चलो अन्दर ही चलते हैं । ये बच्चे भी ना कितनी धमाचोकड़ी मचाए रखते थे, पता ही नहीं चला पांच दिन कब निकल गए । हूँ ये तो है जी ।
बस यूं ही बतियाते से दोनो बेडरूम की ओर चल दिए । शिवानन्द जी बैड पर बैठ गये थे सुलेखा जी भी बस पीछे पीछे आई । अचानक ही सुलेखा जी थोड़ा सा लड़खड़ाई और शिवानन्द जी की तरफ हुई । शिवानन्द जी ने तुरन्त ही सुलेखा जी को संभाल लिया बिल्कुल राजकपूर की फिल्म पोस्टर की तरह शिवानन्द जी का हाथ सुलेखा जी की कमर मे और ------ फिर ----- फिर पता नहीं क्या हुआ शिवानन्द जी गिर गए बिस्तर पर कभी नहीं उठने के लिए । सुलेखा जी ने तुरन्त उन्हें हिलाया बोली अजी क्या हुआ लेकिन कोई आवाज़ नहीं । पंछी पिंजरा छोड़ उड़ चुका था । सुलेखा की कमर में शिवानन्द जी का हाथ अीी उसी तरह था तभी एक हिचकी के साथ ही सुलेखा जी के भी प्राण पखेरू उड़ गए । दोनो एक दूसरे में समाए, बिस्तर पर चिर निद्रा में लीन और उधर टेलीफोन घनघ्ना रहा था लेकिन उठाए कौन ?

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