वियोग का विलाप RAMAN KUMAR JHA द्वारा लघुकथा में हिंदी पीडीएफ

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वियोग का विलाप

रोहित एक मध्यम वर्गीय, नोकदार परिवार का युवक था। पढ़ाई के उपरांत, नौकरी करने लगा। बहुत वर्षों तक छोटी-मोटी, औनी-पौनी संस्थानों में काम कर जीवन यापन कर रहा था। वो, और उसके साथ रह रहे परिवार जन खुश थे। परिस्थिति अगर, प्रतिकूल न थी, तो अनूकूल भी न थी।

मगर जैसे हर रात के बाद सबेरा आता हैं, वैसे ही रोहित के साथ हुआ। बहुत संघर्ष के बाद, रोहित को, एक अच्छी नौकरी मिली। प्रतिष्ठित संस्था में उसे आकर्षक वेतन और अन्य सुविधाओं के साथ सम्मानजनक पद मिला। इस नौकरी में सिर्फ एक ही दुविधा थी, नौकरी दूसरे शहर में थी। उसे घर छोड़कर जाना होगा। जिस पर परिवार का, बिना प्रकट किये, विरोध था।

परिवार के विरोध के बावजूद, रोहित ने नौकरी को स्वीकृति दे दी। रोहित का निर्णय इस बात पर आधारित था, कि अब के, चालीसी में, उसे एक स्थाई और आर्थिक रूप से सबल नौकरी की आवश्यकता हैं।

इन्हीं बातों कि उधेड़-बुन में, और नयी जरूरतों को प्राथमिकता देते हुए, नौकरी स्थान पर पहुंच गया।
रोहित का तात्कालिक निर्णय ये था, कि प्रथम कुछ महीनों तक वो अकेला ही वहाँ जाएगा और उसके उपरान्त वो अपने बीवी बच्चों को ले जाएगा।

जियूँ-जियूँ, रोहित के बीवी बच्चों के जाने के दिन नजदीक आ रहे थे, परिवार में खटपट भी बढ़ रहा था। आरोप प्रत्यारोप का सिलसिला शुरू होने लगा। उधर परिवार के सभी सदस्य, रोहित को कोसने लगे। बद्दुआ देने लगे। एक उस पे घर तोड़ने का आरोप लगा रहा था। दूसरा, ये कि अब कभी उसकी शक्ल नहीं देखूंगा। एक ये कि वो तो मेरे लिए मर ही गया यह समझूंगा । एक ने तो यहाँ तक, कह दिया, कि भगवान करे, उसकी नौकरी छूट जाये। ये सारी बातें, भावनात्मक आवेश में कहा गया या फिर रंज में, ये तो कहने वाले ही जानते होंगे।

इधर रोहित, यह समझने की कोशिश कर रहा था, कि परिवार किसलिए नाखुश हैं। परिवार के तात्कालीन वर्तमान से, या रोहित के भविष्य से!!

खैर, फिर वो दिन आ ही गया जब, रोहित ने, अपने बीवी बच्चों को अपने नौकरी स्थान पर ले आया। परिवार वाले, परन्तु, अब भी खुश नहीं थे, सिर्फ खुशी जाहिर कर रहे थे।

रोहित ने, किन्तु अपने परिवार के प्रति जिम्मेदारी को निभाना बरकरार रखा। हर माह, न्यूनतम खर्च की राशि, वो हर हाल में भेजता रहा।

जिंदगी अब धीरे-धीरे पटरी पर आ रही थी। परिवार के कई सदस्यों ने, रोहित के कर्म स्थल पर आ कर देखा। उनको यह भान हुआ कि जो बातें रोहित ने बताई थी, वह सत्य थी, न की परिवार से दूर जाने के लिए बहाना।अब उनके मन में खुशी का भाव आया या ईर्ष्या का, वो तो ईश्वर ही जाने। परन्तु चेहरे सब के प्रसन्न ही लग रहें थे।

वक़्त की चाल कभी सीधी नहीं होती। वक़्त ने फिर नया मोड़ लिया। पूरे विश्व में, महामारी घोषित हो गई। बहुतों कि नौकरी छूट गई, या तात्कालीन छंटनी हुई। रोहित के परिवार के कुछ सदस्यों को भी जबरन छुट्टी पे डाल दिया गया। तब भी रोहित ने, यथासंभव सब सम्हाला था।

परन्तु, आप मानो या मानो, बद्दुआ रंग लाती हैं। देर लाती हैं मगर दुरुस्त लाती है। बद्दुआ चाहे सोच समझ कर दिया गया हो, या भावना के आवेश में, रंग लाती जरूर है। रोहित के साथ भी यही हुआ। जैसा की परिवार वालों ने बोला था, उसकी वो नौकरी छूट गई। वो फिर लौट कर घर आ गया। परिस्थिति फिर बदल गई। अब फिर उसके भाग्य में बेरोज़गारी, दर-ब-दर की ठोकर आ गई।

शायद, अब परिवार वाले खुश होंगे , कि घर नहीं टूटा । इससे क्या फर्क पड़ता हैं, कि रोहित का हौसला टूट गया, आत्मसम्मान टूट गया। परिवार कि चाहत के अनुरूप , वर्तमान बनाने की कोशिश में रोहित का भविष्य टूट गया।

मगर समय की भी समय सीमा होती है। वो एक जैसा सर्वदा नहीं रहता। समय के साथ मन में परिवर्तन भी आता है। समय, एहसास पर चढ़े धूल को पोंछ देती है। अब रोहित के घर वालों को एहसास हुआ कि, शायद उन्होंने रोहित के लिए, द्वेश में ही सही, परन्तु गलत चाहा था। और अब परिणाम स्वरूप वे रोहित से क्षमा याचना और रोहित के लिए ईश्वर से प्रार्थना करने लगे।

परिवार वालों की प्रार्थना के बदौलत और रोहित के भाग्य की एक नयी कोशिश, नये संघर्ष ने, वक़्त को फिर अपनी प्रवाह बदलने पर मजबूर कर दिया। रोहित को फिर उसी संस्था ने नौकरी पे बुला लिया। वही पद, वेतनमान और अन्य सुविधाएं। परन्तु, रोहित को फिर घर से दूर जाना ही पड़ा। शायद अब, परिवार वाले रोहित की नयी परिस्थिति से दुखी न हो, अगर खुश नहीं है तो।

रोहित, मगर इन सब बातों से परे, नियती की राह पर, कर्म का हाथ थामे, वर्तमान से भविष्य की ओर चल पड़ा था।

रमण बे-इल्म ©