#ShortStory #लघुकथा
|| गुल्लक ||
बचपन से हम यही सुनते आए हैं कि भविष्य के लिए बचत करनी चाहिए। सब अलग अलग मशवरा देते हैं। अलग अलग तरीके बताते हैं कि पैसा कैसे संजोया जाता है। एक तरीका जो तकरीबन सब बताते हैं वो हैं गुल्लक।
रोहित के साथ भी यही हुआ। उसको भी सब ने सिखाया कि संजोना चहिए, भविष्य के लिए और उसने हामी भी भरी। नौकरी लगते ही, उसने घर की जिम्मेदारी लें ली। सब कुछ निपटने के बाद जो रह जाता वो वह अपने अलमारी में बने लॉकर में रखी गुल्लक में रख देता। घर की सारी जरूरतें पूरी करने के बाद कितना बचता ही होगा, यह एक प्रशन उसके पत्नी के मन में रहता था मगर बोलती नहीं थी।
कभी कभी तो घर खर्च के बाद दोस्त और रिश्तेदार को भी मदद करनी होती थी। बीवी सवाल करती है कि अपने लिए भी कुछ बचा है, अब के? इस पर रोहित ने मुस्कुराकर कहा- इन सब के बावजूद भी गुल्लक में रख दिया है।
यही हर महीने होता। परन्तु परिवार वाले और खास कर बीवी को लगता था कि रोहित ने गुल्लक में काफी सारा पैसा संजो लिया है। सब ठीक चल रहा था, सब खुश भी थे।
मगर वक्त तो बदलता रहता है। रोहित के साथ भी वक्त ने करवट बदली। उसकी नौकरी चली गई। मगर बीवी और परिवार के सब को लगा कि ये दिन कट जाएंगे।
नौकरी जाने के बाद महिना दो महिना तो जेब में पड़े नगदी से निकल गया। मगर फिर बच्चे की स्कूल फीस देनी थी। क्रेडिट कार्ड के बकाया का भी देना जरूरी था। रोहित थोड़ा परेशान होने लगा। उस ने परिवार वालों से कुछ नहीं कहा। वे तो वैसे भी रोजमर्रा का खर्च उठा रहे थे। उसे उम्मीद थी कि वे खुद ही मदद को आगे बढ़ेंगे। रिश्तेदार और दोस्तों से मदद मांगी मगर मिली नहीं। सब कि अपनी मजबूरियांँ थी।
बीवी ने सुझाया कि आप अपनी गुल्लक क्यों नहीं तोड़ते। रोहित ने कहा नहीं, अभी नहीं बाद में काम आयेगा। परन्तु कोई बंदोबस्त हो नहीं रहा था। फीस के लिए नोटिस भी आगया। क्रेडिट कार्ड का भुगतान के लिए फोन और मेसेज भी आने लगे। अब परिस्थिति और ख़राब होने लगी। रोहित के बीवी को अब देखा नहीं जा रहा था। उसने मन में सोचा, जब जरूरत होगी तब का तब देखेंगे। उसने पती से इजाजत लिए बगैर, गुल्लक निकाल लाई और सब के बीचों बीच, पटक कर तोड़ दिया।
गुल्लक के टूटते ही, पूरा परिवार चौंक पड़ा। कुछ रुपए और चंद सिक्कों के सिवा कुछ नहीं निकला। सब अचंभित नज़रों से रोहित को देख रहे थे। रोहित खामोश खड़ा था। बीवी चीखती हुई रोहित से पूछी- "कहाँ गया जो तुम इतने सालों से संजो रहे थे। हर महिना ही कहते थे, जो बच गया वो गुल्लक में डाल दिया है। तो अब कहांँ गया।"
रोहित ने बहुत ही नर्म लहजे में कहा - " वादा, उम्मीद, एतबार और आसवाशन बचते थे, वहीं डाल देता था, गुल्लक में। सभी ने तो यही दिया मुझको। और आज हैरत है कि ये सिक्के बाज़ार में नहीं चलते। मुझ नासमझ को ये बात अब समझ में आया, तभी तुम को रोक रहा था मेरी गुल्लक तोड़ने से।"
© रमण